कुमार मुकुल की वाल से एक ज़रूरी पोस्ट :
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अनुरोध शर्मा |
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पहले पांच पन्ने पढ़ते हैं तो लगता है क्या ही खूब किताब है... बेहद शानदार। उपन्यास की मुख्य किरदार से आपका त'आरुफ़ होता है लेकिन उसके बाद कहानी कहीं और चली जाती है। साठ-सत्तर पृष्ठ पलट जाते हैं पर वो नायिका वापस नहीं मिलती। हम उसे ढूंढते रह जाते हैं। हमें लगने लगता है कि जितनी तारीफ़ थी इस किताब की, ऐसा तो कहीं नहीं है। उतना मज़ा आ नहीं रहा।
करीब सौ पन्ने पलट जाने के बाद नायिका फिर से दर्शन देती है और इस बार हमें छोड़कर नहीं जाती। इस बार हम भी नहीं चाहते कि वो कहीं जाए। फिर बस उसी की कहानी है और कहानी में क्या रवानी है। अगले सात सौ पन्ने पढ़ते हुए आप हिंदी-उर्दू अदब का वो वक़्त जी लेते हैं जो अब शायद वापस कभी लौट कर ना आये।
हिन्द-इस्लामी तहज़ीब का वो वक्फा जब मुग़ल सल्तनत की साँसे उखड़ने लगी थी, जिस मुगलिया खानदान के अधिकतर चश्म-ओ-चराग़ इसी मिट्टी में पैदा हुए और इसी में दफ़न हुए, उसके आखिरी शहंशाह को अपने आखिरी वक़्त यहाँ की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई थी, उसी ने ग़मज़दा होकर कहा था,
"कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए,
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।"
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अच्छी किताबें क्यूँ पढनी चाहियें?
कभी भी देख लीजियेगा, जिन लोगों के मन में नए-नए विचार पैदा होते हैं वो किस तरह होते हैं। आप एक अच्छी फिल्म देख रहे हैं या कोई किताब पढ़ रहे हैं तो दिमाग अपना खेल खेलना शुरु करता है। हम अब तक इंसानी दिमाग की मशीनरी को पूरी तरह समझ नहीं पाये हैं पर एक शानदार चीज़ पढ़ते वक़्त दिमाग बहुत उपजाऊ हो जाता है और एक के बाद एक नई नई बातें सूझने लगती हैं, जिनका उस पढ़े हुए से वास्ता हो भी सकता है या बिलकुल भी नहीं हो सकता है।
तो जब मैं इस किताब को पढ़ रहा था जिसमें किशनगढ़ की बणी-ठणी भी है और कश्मीर के गायक भी, जिसमें दिल्ली की गलियां भी हैं और ग़ालिब के शेर भी, जौक भी हैं और दाग़ भी, ऊँचे दर्जे की फारसी शायरी है और शातिर ठग भी, नवाबों की ठसक भी है और अंग्रेजों की धूर्तता भी, आखिरी मुग़ल ज़फर भी हैं और उनकी सबसे कमसिन और तेज़-तर्रार बेगम जीनत महल भी... और इन सात सौ पन्नों में इतना कुछ है कि उसे बयान करने की ताक़त मुझमे नहीं... हाँ, लेकिन उस वक्फे को जी ज़रूर चुका हूँ मैं। जो अनुभव किया है, उसे बस अनुभव किया जा सकता है बताया नहीं जा सकता।
आप खुद पढेंगे तो जानेंगे।
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तो इस किताब को पढ़ते हुए कई सारे विचार उपजे, जिनका किताब से कोई ताल्लुक नहीं लेकिन तहज़ीब से है।
औरंगजेब दाहोद में जन्मा था, गांधी पोरबंदर में, सरदार पटेल नाडियाद में, नरेन्द्र मोदी वडनगर में....पैदाईश से ये सब गुजराती हैं। इनमे से हम किसे बाहरी मानते हैं? सिर्फ़ औरंगजेब को... और इसकी वजह उसके पुरखों का काबुल से आने से ज़्यादा उसका धर्म है। वरना बाबर की आखिरी इच्छा के मुताबिक उसे काबुल में दफनाया गया और काबुल तो सम्राट अशोक के साम्राज्य का हिस्सा था। ‘अखंड भारत’ का हिस्सा तो आज भी है। महाभारत के मुताबिक गांधारी भी अफगानिस्तान की थी।
अफगानिस्तान को तो एक वक़्त के हिंदुस्तान का हिस्सा मानना ही चाहिए, ये एक तथ्य है कोई गप तो है नहीं। तो सिवाय फिरकापरस्ती के और कोई वजह नहीं दिखती कि हम औरंगजेब या मुगलों को बाहरी मानें।
किताब में एक मज़ेदार किस्सा है कि कैसे एक अंग्रेज अफसर दिल्ली में अपनी सवारी निकलते हुए बिलकुल वैसे ही बर्ताव करता है जैसे कभी आलमगीर किया करते थे लेकिन अपनी पूरी कोशिश के बावजूद औरंगज़ेब की एक भद्दी नक़ल के ज़्यादा कुछ नहीं लग पाता। अंग्रेजों ने खुद को मुगलों के बराबर दिखाने की बहुत कोशिश की लेकिन इस मुल्क में वो कभी वो इज़्ज़त हासिल नहीं कर पाए और उसकी वजह ये है कि मुग़ल इस मुल्क को लूट नहीं रहे थे, जबकि ज़्यादातर अंग्रेजों का इस मुल्क से कभी कोई जज़्बाती लगाव नहीं रहा।
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स्कूलों के जिस इतिहास को दक्षिणपंथी एकतरफ़ा कहकर ख़ारिज करते हैं और झूठा इतिहास बताते रहते हैं मुझे तो उस इतिहास की तालीम से भी थोड़ी दिक्कतें हैं। उन किताबों की बुनावट में कमी रही या पढ़ाने वालों के नज़रिए में या हमारी आसपास के माहौल में... मुझे नहीं पता लेकिन ये बात देखी गयी कि जैसे ही अकबर या महाराणा प्रताप की लडाई का ज़िक्र आता या शिवाजी और औरंगजेब की प्रतिद्वंदिता का तो दिलो-दिमाग खुद-ब-खुद प्रताप और शिवाजी की तरफ झुक जाते। औरंगजेब और अकबर खलनायक नज़र आते। जबकि ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए था।
अगर किसी का दिमाग धर्म की वजह से अकबर और औरंगज़ेब की तरफ झुक रहा है तो वो भी ग़लत है।
हमें बचपन में ही इस तरह नहीं समझाया गया कि ये लडाई ना किसी धर्म के बीच थी और ना अंदरूनी और बाहरी ताकतों के बीच। ये सदियों से चलते आ रहे सत्ता संघर्ष के अलावा और कुछ नहीं था जिसमें धर्म को भी हथियार की तरह उपयोग में लिया जाता था और आज भी लिया जाता है। आज भी कुर्सी की लडाई में धर्म एक हथियार से ज़्यादा कुछ नहीं।
जो भी ये समझते हैं कि राजा धर्म ध्वजा रक्षक होता है उन्हें थोडा परिपक्व हो जाना चाहिए। बचपन में ये सब चल जाता है कि प्रताप हमारा है और अकबर उनका लेकिन समझ विकसित हो जाने के बाद ये एहसास होना चाहिए कि ना प्रताप किसी का है और ना अकबर। ये इतिहास के मजबूत किरदार हैं जो आये और चले गए। हमें निरपेक्ष भाव से इन्हें जानना है और आगे बढ़ जाना है। उस वक़्त ना कोई धर्म के लिए लड़ रहा था और ना देश के लिए। राजनीतिक भारत का तब कोई अस्तित्व ही नहीं था। उल्टा हम बहुत पढेंगे तो जानेंगे कि ये दो मजबूत संस्कृतियाँ इस तरह घुली मिली थी कि इन्हें अलग कर पाना अब किसी के बस की बात नहीं।
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भारत हमेशा से एक विचारवान देश रहा है। गहरे फलसफे में डूबा हुआ देश। बाहर से जितनी भी छोटे मोटे आक्रमण हुए या जातियां आई, भारत ने उन सबको अपने में समेट लिया और अपना बना लिया। फिर सदियों बाद अरब के रेगिस्तान में एक बहुत बड़ा बवंडर उठा जो सबको अपने में लपेटता हुआ भारत की तरफ बढ़ा। भारत, जिसकी हैसियत एक विशाल बरगद जैसी थी उससे इस्लाम का ये बवंडर आकर भिड़ा। बरगद को उखाड़ पाना संभव नहीं था, उसकी जड़ें बहुत गहरी थी लेकिन बवंडर में भी जवानी का जोश था, वैसी उमग थी जैसे एक नए नौजवान में होती है। तो जब इन दो विशाल संस्कृतियों का टकराव हुआ तो कुछ ऐसी मिली-जुली तहज़ीब बनी जो सिर्फ़ इसी धरती पर बन सकती थी, आज भी सिर्फ़ यहीं मौजूद है। भारतीय मुसलमान अपने आप में एक अलग करैक्टर है।
मणि कौल बहुत बड़े फिल्मकार हैं, उनका कहना है कि ग़ालिब सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही पैदा हो सकते थे, कहीं और उनका होना संभव नहीं था। कैसे?
“ना था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं तो क्या होता”
जावेद अख्तर इस शेर को समझाते हुए कहते हैं कि ग़ालिब कह रहे हैं कि मुझे तो इस होने ने मरवा दिया अगर मैं ना होता तो मैं ही खुदा होता।
ये खुद के खुदा होने की बात भारतीय परंपरा में उपनिषदों से आती है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ यानी कि मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही खुदा हूँ। और किसी मुल्क का शायर ये कहने की गुस्ताखी नहीं करेगा। ग़ालिब ये भारत की धरती पर ही कह सकते थे। ग़ालिब भारत में ही हो सकते थे। भारतीय मुसलमान का चरित्र औरों से जुदा है वो इसलिए कि उसमें इस मिट्टी का चरित्र भी समाया हुआ है। ये दो तहजीबों के मिलन से संभव हुआ है।
अगर हम इस तरह इतिहास को पढ़ा पायें तो क्या ही खूबसूरत बात हो।
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किताब का नाम इस शेर से लिया गया है।
कई चांद थे सरे-आसमां कि चमक-चमक के पलट गए
ना लहू ही मेरे जि़ग़र में था ना तुम्हारी जुल्फ़ स्याह थी
- अहमद मुश्ताक़
जो तहज़ीब और इतिहास में रूचि रखते हैं (कुछ तो रखते ही होंगे) या जो इश्क़ फरमाते हैं (कौन इस शय से दूर होगा) उन सबको ये किताब पढनी चाहिए।
बेहतरीन समीक्षा : हमने पढ़ी है किताब।
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