वह कहती पढ़ो मत किताब मुझसे करो बात गो, कि तुम हो बाहर चार लोगों मंे बैठते-उठते हो ऐसा हो नहीं सकता कहीं किसी से आज न की हो कोई बात... वह कहती तुम रहते क्यों हो इतने ख़ामोश जब घर में रहते हो माना कि मैं तुम्हारे मानसिक स्तर के लायक़ नहीं लेकिन मैं क्या करूं इसमें भला मेरा क्या दोष? वह कहती घर में पसरे भुतहे चुप को बेरहमी से काटने के लिए बात की तलवार से गिनाती गृहस्थी की झंझटें जो तुम्हें लगती हैं यकीनन खामखां की बकवास, जबकि ये उलझनें मेरे लिए कम नहीं किसी इम्तिहान से। वह कहती जब तुम नहीं होते तुम्हारी पसंद-नापसंद सोचती-गुनती हूं ताकि काम से थककर तुम जब भी घर आओ महानता के उच्च शिखर पर बैठे तुम्हारे अस्तित्व को सम्भाल सकूं अपनी पूरी सामर्थ्य से। वह कहती तुम इतने बेरूखे़ क्यों हो चाय के वक़्त या खाने की टेबिल पर और निगोड़े बिस्तर पर भी क्या मैं तुम्हारे किसी लायक नहीं? कभी सोचता हूं कितना अच्छा होता अगर वह इठलाकर हथेलियां ठुड्डी पर टिका बड़ी-बड़ी आंखे नचाकर कहती-- ‘सुनाओ, उस नई कहानी का प्लॉट जो तुम्हारे दिमाग की फैक्टरी में ले रही आकार कुछ तो सुनाओ सरकार!’ मैं उसे कैसे समझाऊं वह मेरे लिए है कितनी ज़रूरी चार सौ फिट गहरी कोयला खदान से नमक कमाने के बाद थका-हारा हो जाता हूं भीतर-बाहर एकदम खाली उस निर्वात को भरने दिमाग में कुलबुलाते कीड़े जो उकसाते, प्रेरित करते अस्तित्व की सार्थकता के लिए। मैं क्या करूं मेरी जान तुम्हें कैसे समझाऊं समझौता दर समझौता अपनी दास्तान....
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