बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

नाउम्मीदी बनी स्थाई भाव




 उम्मीद और ख़्वाब जैसे अलफ़ाज से
नहीं दीखती कोई निजात की सूरत
ना-उम्मीदी जैसे बन गई हो स्थाई भाव
और ख़्वाब तो तब आयें जब नींद आये
ये समय किसी तरह से अपना नहीं है
पहले भी समय अपना नहीं था
लेकिन तब उम्मीद और ख़्वाब छोड़ते नहीं थे साथ
जीवन की लौ हिलती-डुलती जलती तो रहती थी
टिमटिमाती रौशनी में भी रास्ते सूझ ही जाते थे
अब घनघोर अन्धकार है
और अचानक बिजली की कौंध से
कैसे तय हो सफ़र कि चकबकियाई आँखें
भक्क से खुलती और झमक जाती हैं
अँधेरा ठोस हो जाता है जैसे कि एक दीवार
धडकनें बादलों की तरह गरजने लगती हैं
साँसों से उठता है अंधड़….


ऐसे दुर्दांत समय में खोजता हूँ ]
कोई हमनफस, कोई हमनवा
कोई रहनुमा, कोई राहबर
भूल जाता हूँ सच
कि उम्मीदों की डोर टूट चुकी है
कि उचटी नींदें ख़्वाब को खदेड़ चुकी हैं
कि जीवन की टिमटिमाती ढिबरी
हल्के से झोंके से बुझ सकती है कभी भी
याद आती है माँ और उनकी खामोशियाँ
हमेशा किसी न आने वाले का
रास्ता तकती सवालों से भरी औचक निगाहें
और मन ही मन करती स्वागत की तैयार
याद आती हैं माँ
खुलते जाते उम्मीदों के दर
समाने लगते ख़्वाब जागती आँखों में…
इसके अलावा कोई राह नहीं
इसके अलावा कोई चाह नहीं….

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