बहुत आसान था अपनी कृतियों को जाने-अन्जाने पहुंचाना ऐसे मोड़ पर जहां उगता हो आसमान पर लाल सूरज या अंत में नायक तानता हो हवा में मुट्ठियां या ठहरे पानी पर कंकरियां फेंक छोड़े जाते हों उथल-पुथल के संकेत। एक समय था यही फैशन तब प्रलेसी, जलेसी, दलेसी लेते हाथों-हाथ उसे मिल जाता मान-सम्मान किन्तु दुख की बात है उस समय व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन का वह था हामी जिससे मिली उस वक्त गुमनामी। फिर वह समय आया जब अभिव्यक्ति पर लगा दिया गया ताला मौलिक अधिकारों का किया गया हनन फिर ऐसी बही बयार खुले प्रजातांत्रिक द्वार हुआ अधिनायक का अंत और प्रलेसी-जलेसी-दलेसी मित्रों ने समय की नब्ज़ पर हाथ रख धड़ाधड़ छपवाए अपनी काल्पनिक अनुभवों वाली आपातकालीन डायरी के अंश। हुए खूब प्रशंसित-उपकृत। फिर बदला माहौल दब गया लाल-आसमानी रंग बही भगवा-बयार लुटा दिल का करार सत्तानशीन हुए तुक्काड़ इतिहास की इुई चीर-फाड़ हक़ीक़तों की बखिया उघाड़ प्रलेसी-जलेसी-दलेसी मित्रों ने फिर बदला पाला सेठ-सत्ता-संत-समालोचकों में हुए सहज स्वीकार्य लोक-परलोक का हुआ पुख़्ता इंतेजाम अब भी नहीं समझे जजमान! और मुझ जैसे कई समय की धड़कनों से अंजान लोक रीति-नीति से अज्ञान खोजते रहे सत्य दूसरे करते रहे गड़बड़झाला इस तरह लगा रहा हमारी किस्मतों पर अलीगढ़ी-ताला.
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