शनिवार, 26 अप्रैल 2025

अनहोनियों की आहटें



मुझे अक्सर सुनाई देती हैं 

अनहोनियों की आहटें 

लोग समझाते हैं तुम्हारा वहम है ये 

मैं खुद को भी समझाने लगता हूँ 

वहम ही होगा लेकिन वहम होता नहीं ऐसा 

वहम जब हकीकत के करीब बैठा हो 

तो उसे वहम कहना बेमानी है


शुभचिंतक बन कर वे फिर आकर समझाते हैं 

काहे लिखते हो वैसी कवितायेँ जिनसे बढ़ता हो तनाव 

देशप्रेम, श्रृंगार, विरह या वात्सल्य की

रूप-कलावादी कविताएँ क्यों नहीं लिखते

माँ, पिता, छाता, कुर्सी, टेबिल, चिड़िया,लडकी या 

मोची, धोबी, गायक, चित्रकार पर भी 

लिखी जा सकती हैं बेहतरीन कविताएँ 

और देखो ऐसी कविताओं को हम सम्मानित भी करते हैं 

तुम जो लिखते हो, जो पढ़ते हो 

उससे कुछ हासिल नहीं होगा सिवाय तनाव के


उनकी सलाह मेरे किसी काम की नहीं 

मुझे अक्सर सुनाई देती हैं 

गला घोंटने से पैदा हुई घुटी-घुटी आवाजें 

और बारहा ऐसा लगता जैसे 

कोई आ रहा हो दबे पाँव चुपके से 

कभी बेहयाई के साथ कोई बेधड़क घुसा चला आता है 

और धमका जाता है कि मेरा एकांत 

अब उनके कैमरे की ज़द में है 

ये आहटें मेरे पूरे वजूद को 

परेशान किये रहती हैं आजकल


मेरी इस कविता को पढ़ते हुए 

तुम भी सोच रहे होगे कि बेशक 

ऐसी ही तनाव पैदा करने वाली आवाजें 

तुम्हारा भी पीछा नहीं छोड़ रही हैं 

इन आवाजों से 

डरावनी आहटों से 

कैसे मिले निजात 

कोई तो होगी राह? 

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

तिलस्मी धूप में

 


( अनुभूति गुप्ता पेंटिंग को देखकर )

भीतर तक बहुत गहरे
अपमान, प्रताड़ना के ज़ख्म
रह रह कर पीड़ा उभारते
दिल में बहुत कुछ कर जाने की
अदम्य लालसा की हत्या को आतुर
तुम्हारा निज़ाम मुस्तैद है
और मैं अपनी ज़िद से
काले बादलों को हटा कर
अपने हिस्से के सूरज को पाने को
हूँ बेचैन कि उसकी तिलस्मी धूप में
सेंक कर बदन की सीलन भगा तो लूं
और तुम्हारे स्वागत में आंगन बुहार लूं।