शनिवार, 17 मई 2025

कुछ लघुकथाएँ : अनवर सुहैल

 लघुकथायें : अनवर सुहैल



असहिष्णु
ये मुसल्लों की जात…बड़े बेरहम, बेदर्द होते हैं ये….इनके मन में
तनिक भी दया नहीं होती…
मुर्गा या बकरा काटते हैं तो बड़े इत्मीनान से उनकी गरदन पर छुरी रगड़ते
हैं, कहते हैं ‘हलाल’ कर रहे हैं…कितना दर्द होता होगा जानवरों को?
इसीलिए बंधु…अपन तो ‘झटका’ वाली मटन दुकान से मांस खरीदते हैं…जहां
चापड़ के एक ही वार से जानवर मर जाता हैै…

लेकिन
उनमें कुछ शीया थे और कुछ सुन्नी…
उनमें कुछ देवबंदी थे और कुछ बरेलवी अक़ीदे वाले थे.
उनमें कुछ अशराफ थे कुछ पसमांदा…
उनमें कुछ अमीर थे कुछ ग़रीब…
लेकिन दंगाईयों की निगाह में वे सिर्फ ‘कटुए’ थे।

आखि़र हुमा कहां पढ़े?
ईसाइयों के स्कूल में हुमा को कैसे पढ़ाएं…अव्वल तो जाने कितनी प्रेयर
कराते हैं और लड़कियों की ड्रेस, तौबा…कितनी छोटी सी स्कर्ट होती है कि
टांगें दिखती रहें…
संघियों के स्कूल में तो हुमा को डालने की सोचना भी गुनाह है…वहां
पढ़ाई कम और पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन ही तो ज्यादा होता है…
सरकारी स्कूल में हुमा को डाल नहीं सकते…न ढंग के टीचर, न
डिसीप्लीन…पढ़ाई तो होती ही नहीं वहां…
बीवी अपने शौहर की चिन्ताओं से तंग आ गई–’फिर हुमा कहां पढ़ेगी?’
शौहर सोच में डूबा रहा।

एक नया डर
मित्र राकेश ने पूछा–’अराधना नर्सिंग होम’ तो शानदार हास्पीटल है हमीद!
तुम बेटे का इलाज यहां क्यों नहीं कराते?’
‘नहीं राकेश भाई…अब अराधना या ओमसाईं जैसे नर्सिंग होम में इलाज कराने
से डर लगता है. वो जो अपना रहमान-नर्सिंग होम है न वही ठीक रहेगा…!’
‘काहे हमीद भाई…?’
‘डर लगता है यार, कहीं इन दंगों के बाद शहर में पुलिस की तरह कहीं डाॅक्टर भी…!’
एक नए डर से हमीद की जुबान लड़खड़ाई…राकेश का कलेजा कांप गया।

छह दिसम्बर के बाद
ज्वाला सर आज कुछ बुझे-बुझे हैं।
वे अनमना सा पढ़ा रहे हैं मुगलकालीन भारत का इतिहास…मुगलों-मुसलमान
शासकों को क्रूर, असहिष्णु, मूर्ति-भंजक, म्लेच्छ औैर कठमुल्ला आदि
विशेषणों के सहारे अक्सर कोसा करते हैं ज्वाला सर।
जावेद के लिए इतिहास का पीरियड इसीलिए बेहद तनावपूर्ण हुआ करता।
इतनी बड़ी कक्षा में कुल जमा दो मुसलमान छात्र…
ऐसा लगता कि सारी कक्षा उसे मुगलकालीन भारत का अपराधी बना किसी कटघरे में
खड़ा कर देती हो।
लेकिन आज जाने क्या बात है कि ज्वाला सर की वाणी में वो आक्रामकता नहीं,
वो ओज नहीं…
शायद, आज छह दिसम्बर के बाद हुई अफरा-तफरी के बाद, लगने वाली पहली क्लास
है इतिहास की…

सर्वाधिकार 
आॅफिस में फुर्सत के क्षण।
आज़म और तिवारी के बीच नोंक-झोंक बदस्तूर जारी है।
–’यार तिवारी, अपना बी. राम साहब कितना प्रतिभावान अधिकारी है।’
–’कौन…ई बेचन राम साहब…!’ तिवारी चिढ़ गया।
–’हां, बी. राम साहब, कितना ड्राई-आॅनेस्ट है और उसकी ड्राफ्टिंग कितनी
ज़बर्दस्त होती है..एक-एक शब्द नपा-तुला…!”
–’काहे चिढाते हो आज़म भाई…मेरे सामने इनकी बड़ाई न किया करो…!’
तिवारी तिलमिलाकर बोला।
आज़म इतने पर नहीं रूका–’तुम तो तिवारी जी, झुट्ठे पिनक जाते हो…अरे
भाई, राम साहब वैसे नहीं है, देखा नहीं कितना स्मार्ट हैं और डेशिंग
पर्सनाल्टी है उनकी…गोरे-चिट्टे, लम्बी नाक, उन्नत ललाट….!’
आज़म की इन बातों से तिवारी बौखला गया, बी. राम साहब जैसा आकर्षक
व्यक्तित्व सिर्फ सवर्णों की बपौती हो…सिर्फ उन्हीं का एकाधिकार हो ऐसे
शारीरिक लक्षणों पर—’हां भइयवा…ई राम साहब तुम्हरे बनारसी ठहरे…और
पता कर लेना ज़रूर किसी ठाकुर-बामन का बीज होगा ससुरा…!’

बीमा
‘क्यों जी, जब कहते हो बीमा से कोई फायदा नहीं फिर काहे इतना बीमा क्यों
करवाया हुआ है?’
‘देखो, बीमा ज्यादातर मैंने मजबूरी में कराया है।’
-नौकरी लगी तो बड़े बाबू ने ज्चाइनिंग के समय मदद इस शर्त पर की थी कि
पहली पेमेंट पाते ही एक बीमा-पाॅलिसी उनसे लूंगा।’
-फिर प्रमोशन में दिक्कत न हो इसलिए  चीफ-साहब के छोटा भाई से एक पाॅलिसी ली थी।
-मस्जिद कमेटी के सदर के कहने पर उनके दामाद से बीमा की एक पाॅलिसी लेनी पड़ी थी।
-पेंशन-स्कीम वाली पाॅलिसी मैंने खुद अपने विवके से ली।
-तुम्हारा भाई को जब करोड़पति एजेण्ट बनने में मदद करनी थी तब उससे भी तो
पाॅलिसी ली थी न!
-अब तुम्हीं बताओ, मैंने कहां गलती की है?
-’वो तो ठीक है, हर साल इन पाॅलिसियों की प्रीमियम भरने में जाने कितनी
रकम लग जाती है और मिलता-जुलता कुछ भी नहीं। टाईम पूरा होने पर कितनी रकम
मिलेगी हमें?’
-’मूलधन वापस आ जाए यही क्या कम होगा?’
-’जब फायदा नहीं तो काहे इतना पैसा बीमा में बरबाद करना…?’
-’फायदा काहे नहीं है, हमने अपनी कार का बीमा कराया था न…जब कार का
एक्सीडेंट हुआ तो नुकसान की भरपाई बीमा कम्पनी ने की थी कि नहीं?’
-कहने का मतलब?’
-’बीमा से फायदा मरने पर है….जीवित बचे रहने पर नहीं…!”
बातचीत में तत्काल विराम लग गया।

फ़तवे की दरख़्वास्त
दाढ़ी, टोपी और नमाज़ पढ़ने से बना माथे पर काला निशान देख मैंने बुजुर्ग
को सलाम किया।
ट्रेन लेट थी सो हम बतियाने लगे। बात निकली तो बहुसंख्यकों की और सरकार
की आलोचना होने लगी।
कुछ देर बाद बुजुर्ग ने मुझे गौर से देखकर कहा–’आपको कोई खतरा नहीं
है…आपका पहनावा, चेहरा-मोहरा वगैरा देखकर कोई नहीं कह सकता कि आप
मुसलमान हैं…परेशानी हम मज़हबी लोगों के साथ है।’
वाकई, हमें बिना नाम जाने कोई नहीं पहचान सकता कि हम उनमें से नहीं।
बुजुर्ग चिंतातुर थे–’सोचता हूं कि मौलानाओं से, उलेमाओं से ऐसे हालात
के लिए फ़तवा की दरख़्वास्त करूं। ऐसे हालात में यदि मर्दों को
दाढ़ी-टोपी से और औरतों को बुरके से आज़ाद कर दें तो समस्या सुलझ सकती
है। और हां…औरतों अपनी आत्म-रक्षा के लिए मंगल-सूत्र, सिंदूर,
बिंदिया-चूड़ी वगैरह भी पहन सकें…!’
मेरे पास उनकी चिंताओं का कोई जवाब न था।

एक नसीहत और…
अहमद इंजीनियरिंग पढ़ने महाराष्ट्र जा रहा था।
अब्बा उसे एक नई जगह में गुजर-बसर के लिए ऊंच-नीच समझा रहेे थे।
अहमद उन नसीहतों को अपनी गांठ में बांध रहा था। आखिर अब्बा ने दुनिया
देखी है…ठीक तो समझा रहे हैं।
अंत में एक नसीहत और दी—’और हां…सफ़र में या किसी अनजान जगह में
लोगों के बीच ये ज़ाहिर न होने देना कि तुम मुसलमान हो। मुमकिन हो तो कोई
ऐरा-गैरा यदि नाम पूछे तो उसे अहमद की जगह अरविन्द, रमेश, महेश जैसे नाम
बताओ…इन्शा-अल्लाह मुसीबतों से बच जाओगेे।”

फ़र्क़
फुटपाथ पर दोनों की गुमटियां हैं।
एक मोची की, दूसरी धोबी की।
मोची शूद्र और धोबी मुसलमान।
दोनों फुर्सत में अपनी दीन-हीन दशा पर चिंता किया करते।
मोची अपने साथ छुआ-छूत और दुतकार से दुखी रहता।
मुसलान धोबी ने उसे समझाया–’भाई, छुआछूत, ऊंच-नीच का बर्ताव तो हमारे
समाज में भी होता है…उसे तो हम बरदाश्त कर लेते हैं लेकिन शुक्र है कि
तुम्हें कोई पाकिस्तानी, आतंकवादी या देशद्रोही तो नहीं कहता!”

निषेध
एक बरेलवी मौलाना की तक़रीर का निचोड़—“अल्लाह पाक परवरदिगार ने इंसान को
अशरफुल-मख़लूकात बनाया है यानी इंसान का दरजा तमाम जीव-जन्तुओं में सबसे
आ’ला है। इसीलिए हम इंसानों की जि़म्मेदारियां भी कुछ ज्यादा हैं।“
मौलाना ने अपनी तक़रीर जारी रक्खी—“हमें तमाम मखलूकात से
मुहब्बतो-इख़्लास से पेश आना चाहिए। एक-दूसरे की पसंद-नापसंद का ख्याल
रखना चाहिए, लेकिन इन वहाबियों-देवबंदियों को छोड़कर….इनका कतई एहतराम
न करें…इनके सलाम का जवाब न दें…इससे ईमान जाने का ख़तरा है…!”

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