मेरे यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि आज के जो भी जन आंदोलन हैं उनसे जुड़ी कविताएं एकदम नहीं लिखी जा रही हैं। ऐसी कविताएं लिखी जा रही हैं, पर वे कविताएं और कवि, हिन्दी कवि
की मुख्यधरा से अलग हाशिये पर हैं और हाशिये की जिन्दगी की कविता लिखते हैं।
अभी हाल में लीलाध्र मंडलोई के सम्पादन में 25 कवियों की कविताओं का एक संग्रह आया है, जिसका नाम है कविता का समय। उस संग्रह में अनेक कवि ऐसे हैं जो जीवन की वास्तविक समस्याओं और
वास्तविकता की मार्मिक कविताएं लिखते हैं और वे प्रयत्नपूर्वक हिन्दी कविता की मुख्यधरा से अपनी अलग पहचान रखते हैं।
उस संग्रह में शामिल एक कवि हैं अनवर सुहैल। उन्होंने एक कविता खान मजदूरों पर लिखी है। उस कविता में वे एक जगह कहते हैं-
‘‘मेरी कविताओं में नहीं है
कोमलकांत पदावली,
रस-छंद, अलंकार मुक्तभाषा
क्योंकि मैं एक खनिक हूं
खदान में खटते-पड़ते,
खो गया सौन्दर्य-शास्त्र’’
इस संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए कोई भी व्यक्ति यह महसूस करेगा कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। जहां भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता अपनी उपस्थिति से उस संकट का सामना करने में मनुष्य की मदद करती है। इन कविताओं के बारे में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अध्किांश कविताएं पाठकों से सीधे संवाद करती हैं। उनमें से किसी कविता को किसी दुभाषिए की जरूरत नहीं है। यह कविता का लोकतन्त्र है, जो कविता के अनुभवों और मुद्दों में ही नहीं, भाषा में भी मौजूद है।
युवा सम्वाद जनवरी 2011 अंक में मैनेजर पाण्डेय से लिए गए साक्षात्कार का एक अंश