शनिवार, 18 मार्च 2017

और चुप ही रहो तो बेहतर

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अब तुम नहीं कहोगे कुछ भी
काहे इतना बोलते रहते हो
वैसे भी तुम लोग
नापसंद हो सिरे से हमें
देख लो जिनसे पाते थे शह
वे धरासाई हैं किस तरह
कि छुपाये फिर रहे मुंह
छोड़ा नहीं हमने इतने के लायक भी
कि मुंह उठाकर चल सकें
उन्हीं सडकों और गलियों में
जहां अब तक उनकी उपस्थिति को
सहते थे हम सब
समझ नहीं पाए अभिनय हमारा
और मान लिए कि हम उनके साथ हैं...

बहुत कह चुके तुम सब
इतने बरसों से
भुगत रहे हम तुम्हें
बोलने की आज़ादी देकर
तुम्हारे सुर में सुर मिलाने वालों का
देखो कैसा बिगड़ा हाल है

सोच लो
समझ लो अच्छे से
और चुप ही रहो तो बेहतर
अब तो जान ही चुके हो
कि सारे तालों की चाभियाँ
हमारे पास आ गई हैं 
और क्या तुम चाहते हो
कि तुम्हारे किस्मतों को बंद कर

फेंक दें चाभियाँ हम अरब-सागर में?

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