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Tuesday, January 16, 2018

खुद्दार इतने हैं कि बस खामोश हैं

कब तलक चलता रहेगा
मनमानी का कारोबार
कब तलक खामोशियों को
अनसुना करती रहेंगी
कत्लगाहों की चीत्कारें
कब तलक छाई रहेंगी बदलियाँ
कब तलक सिमटी रहेंगी परछाइयां
कब तलक लगती रहेंगी बंदिशें
आइये और देखिये तो गौर से
उस भीड़ में लाचारी है, गुस्सा भी है
तमतमाए हैं कई चेहरे, भिंची हैं मुट्ठियाँ
ये कोई आयातित बंदे नहीं हैं
ये कोई प्रायोजित धंधे नहीं हैं
खुद-ब-खुद आये हैं भूखे हैं मगर
खुद्दार इतने हैं कि बस खामोश हैं
मेरी आँखों से देखो दिख जायेंगी
अनगिनत ज़ुल्मो-सितम की दास्तान
कोई टीवी कोई अखबार नहीं इनके लिए
कोई खुदाई मददगार नहीं इनके लिए
मुद्दतों से हैं ये मजलूम ठगी के शिकार
फिर कोई डाका न डाले होशियार
हर किसी के मन में इक उम्मीद है
इस उम्मीद से हमें भी बड़ी उम्मीद है......

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