बुधवार, 17 जनवरी 2018

मत तलाशो सौन्दर्य-शास्त्र मेरी कविताओं में

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आलोचकों काहे तलाशते हो
किसी भी तरह का सौन्दर्य-शास्त्र मेरी कविताओं में
मेरी कवितायेँ बाहर हैं उन सीमाओं से
यह समय सौन्दर्य-शास्त्र के मापदंड साधने का नहीं है दोस्तों
भोथरे होते जा रहे हैं पूर्व और प्राच्य के चिंतन 
रस-छंद-अलंकार की बंदिशों में
मत बांधों कुछ दिन और इन कविताओं को
ये कवितायेँ जूनून में तारी हो रही हैं
देखते नहीं कि तमाम तार्किकताओं को
किस तरह किया जा रहा है ध्वस्त
अतार्किकता इस समय का मूल भाव है
झूठ की बुनियाद में खड़ी की जा रही हैं अट्टालिकाएं
सच कवि के साथ सहमा-सिकुड़ा खामोश है
बरसों से बनी-बनाई संस्थाएं बिचौलियों का काम कर रही हैं
और जाने कितने संशोधनों के थीगड़े चिपकाए
भारी-भरकम किताब उपेक्षित सी हाशिये पर सिसक रही है
आलोचकों, यह समय एक नया सौन्दर्य-शास्त्र गढ़ने का है
तुम बने-बनाये फार्मूलों की ज़द से बाहर आओ
आने वाला समय तभी तुम्हें गंभीरता से लेगा
एक बात तो तय कर लिए जाए
कि किसी भी तरह के आनंद की अनुभूति के लिए अब
कोई कवि नहीं लिख रहा कविताएँ
और जो लिख रहे हैं
उन्हें समय कभी माफ़ नहीं करेगा...

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