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Monday, January 2, 2012

ghazal by noor muhammad noor

नूर मुहम्मद नूर ने नए साल २०१२ में अपनी एक अप्रकाशित ग़ज़ल भेजी.
मैं अपने मित्रों में बांटना चाह रहा हूँ. ये ग़ज़ल नूर ने लगभग उन्नीस साल पहले लिखी थी. देश में स्तिथियाँ आज भी वही हैं..कुछ भी नहीं बदला.....

मुहब्बत सिफार क़त्लो-गारत जियादा, अजीयत हिकारत वगैरा वगैरा
यही इस बरस भी कमाएंगे दौलत ये नफ़रत ये दहशत वगैरा वगैरा
नई होगी सूरत नई होगी मूरत नई गर्दो खू में नहाएगी आफत
नए साल में भी यही सब तो होगा ये ज़ुल्मत ये दशत वगैरा वगैरा
वही होगी ग़ुरबत वही होगी लानत वही हुक्मरा हाकिमो की हुकूमत
वही सिरफिरों की अदालत सखावत अदावत नसीहत वगैरा वगैरा
वही ज़ख्म होंगे वही दर्द होंगे मुसीबत के मारे हुए फर्द होंगे
न होगी न होगी कहीं भी तो शफ़क़त मुहब्बत मुरव्वत वगैरा वगैरा
नई जिल्लतों की भी बरसात होगी फजीहत से हरदम मुलाक़ात होगी
बिकेगी वही फिर टके सेर उल्फत ये इशमत वो इज्ज़त वगैरा वगैरा
सुकून सोचते हैं अमन ढूढ़ते हैं जहां गुल ही गुल वो चमन ढूंढते हैं
कहाँ इतनी फुर्सत की सोचें अलग से ये दोज़ख ये जन्नत वगैरा वगैरा
अदब के रगों में सियाही है जब तक उमीदों की शम्मा भी रौशन तभी तक
चले कोई आंधी उठे कोई तूफ़ान या दहशत या ताक़त वगैरा वगैरा
यही सब जो चलता रहा हर बरस तो तय है फिर जंग होकर रहेगी
सरे आम चरों तरफ कोना कोना बगावत क़यामत वगैरा वगैरा
मिया 'नूर' शाईर हो तुम भी ग़ज़ल के मरे जा रहे क्यों हो मारे अदब के
बताओ भी किस काम आएगी अजमत ये इज्ज़त ये शोहरत वगैरा वगैरा

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