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Friday, June 28, 2013

‘पहचान’ पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए पोस्टकार्ड


श्री उमाशंकर तिवारी : अवकाशप्राप्त डी आई जी के पत्र

पत्र 1.                                             3/10/2011
प्रिय अनवर,
आप सोचते होंगे, मैं पोस्टकार्ड पर पार्ट बार्इ पार्ट अपने विचार लिखकर क्यों भेज रहा हूं? तो सुनो:-
‘पहचान’ के पन्ने पलटते ही लगा, इस पुस्तक में कुछ है। जब पूरा पढ़ा तो पाया इस उपन्यास में इतना कुछ है, लेखक, के भाव-रंग कर्इ रूपों में मेरे सामने आने लगे, इसमें प्रेमिका, पत्नी के अलावा औरतों / आदमियों की एक पूरी बसाहट है, पूरी एक नर्इ कॉलरी की दुनिया मौजूद दिखी। मैं चकित हो गया आपकी लेखनी में। एक आग, एक सषक्त भाव है, पैनी धार है तथा भावुक हृदय है। काफी दिनों के बाद कॉलरी (कोयला खदान) क्या है, इसकी जानकारी मिली।

पत्र 2.                                         3/10/2011

तुम्हारा उपन्यास ‘पहचान’ कल से “ाुरू किया और आज खत्म कर लिया। कहीं पढ़ा था कि आदमियों की भीड़ में, जिसकी रूह पाक होती है, वही कथाकार, “ाायर, कवि या कलाकार होता है। मुझे खुषी है मैंने तुम्हें इसमें हर रूप में देखा। इस पुस्तक को एक आदर्ष के रूप में लिया जाए। हृदय के अतल गहरार्इयों में डूबकर भावों की अभिव्यक्ति को अनुभूति के समन्दर से कहानी रूपी मोती निकालने की कला सीखनी हो तो अनवर सुहैल, अजय “ार्मा, सैली बलजीत, व यषपाल “ार्मा को पढ़ना चाहिए। इ्रन्हें पग-पग पर सम्मानित किया जाना चाहिए। अनवर, मुझे तुम पर गर्व है।

पत्र 3.                                            4/10/2011
पुस्तक राजकमल प्रकाषन ने सुन्दर ढंग से छापा है। कवर पेज पर विचारों की उठती सुनामी लहर आदमी की पहचान, उसका धर्म, उसका पेषा हृदय? इसका उत्तर क्या है? जनाब “ाम्षुर्रहमान फारूकी ने कुछ कहा। उनकी बात अपनी जगह सही है। विवाद का विशय है। हर आदमी अपनी नज़र से देखेगा। जिसके चष्में का रंग, जो होगा वही दिखेगा।
लेखक अनवर सुहैल, अपना उपन्यास आने वाली पीढ़ी को देता है और आषा करता है कि पिछलग्गू वर्ग नहीं होगा यानी ‘भोंपू’ की तरह किसी के बटन दबाने पर, चीखेगा नहीं और न ‘टूल्स’ जो बेजान होता है चाहे जो चाहे, उसे उठाए, उपयोग करे, फेंक दे। सकारात्मक आषा लेकर चला है लेखक। कवर के पीछे लेखक का परिचय है, फोटो न होना अच्छा नहीं लगा।

पत्र 4.                                                  5/10/2011
फोटो न देने की वजह हो सकती है, आत्म प्रचार से दूर या संकोच या प्रकाषन के वक्त कुछ असुविधा, पर हर पाठक अपने लेखक को देखना चाहता हे। भविश्य में याद रक्खें।
‘पहचान’ पढ़ते हुए जैसे टीवी में सीरियल “ाुरू होता है, उसी प्रकार का दृष्य देने की कोषिष है। ठण्ड में चाय /षराब/षबाब/कबाब, सब याद आना ज़रूरी है। जब आदमी अकेला होता है पुरानी यादें आ घेरती हैं तथा अच्छे-बुरे ख्याल उलझाए रहते है। जहां पर नए निर्माण चलते हैं, वहां पेज नं 14 के आखिरी पैरा में बताए अड्डे भी होते हैं। (उद्योगों के आसपास जो स्लम उगते हैं और जहां कुषल, अर्द्धकुषल श्रमिक, बाज़ारू स्त्रियां और दारू के अड्डे स्वमेव उग आते हैं)। एक किस्म का बफर-ज़ोन है। “ौतान को रोकने के लिए, वरना अपराध पर अंकुष नहीं लगाया जा सकता। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद आदमी की कुछ और ज़रूरतें होती हैं...........

पत्र 5.                                         5/10/2011
‘साहित्य मस्तिश्क की वस्तु नही, हृदय की वस्तु है। जहां ज्ञान और उपदेष असफल होते हैं, वहीं साहित्य बाजी ले जाता है।’’ -प्रेमचंद
बहुत सुन्दर...
नए “ाब्द जो सीखे- परसटोला, महुआर टोला, अम्माडांड, इमलिया, बरटोला, मोरवा, भनौती, ताजिया, झींगुरदहा सीम, बैढ़न।
मुहर्रम का दृष्य, तरीका, रीति-रिवाज़ व हिन्दू-मुस्लिम एकता, गहरवार राज्य के महलों का बांध में डूबना तथा नेहरू व समाजवाद का तालमेल। बड़े सुन्दर व रोचक ढंग से लिखा गया है। ताजिया के साथ मातम मनाते पुरूश, “ोरों का नाच तथा ताजिया के नीचे से निकलते हिन्दू-मुस्लिम भार्इ। झांसी व दीगर जगहों पर देखा है मैंने भी।
अनवर, आप पूर्ण रूप् से सफल रहे हैं अपनी बात कहने में --’’डीजल चोरी का ढंग प्राय: हर जगह एक सा है। दंतेवाड़ा में पेलोडर / पोकलेन चलते देखा है।

पत्र 6.                                             6/10/2011
उपन्यास मानव-मन की गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। उपन्यास लेखक,उस व्यवस्था पर प्रहार करता है जो वह देखता/ भोगता/ सुनता है, जहां जरूरी समझता है, वहां प्रहार करता है। पहचान में अनवर सुहैल की क़लम कुछ इन्हीं बातों के बारे में चर्चा कर रही है।
उपन्यास के प्लाट को ढूंढने में ज्यादा मषक्कत नहीं करनी पड़ी है। सब कुछ अपने ही आसपास लेखक को मिल गया है। जिसकी वजह से “ाब्दों में ढालने के लिए संवेदना के घोड़े दौड़ाने की जरूरत नहीं पड़ी।  दर्रा नाला, आज़ाद नगर, यूनुस और जमीला प्रकरण। सनूबर की हंसी, सभी के वजूद को हर सांचे में ढालते हुए एक ऐसी तस्वीर पेष करते हैं जो रह व्यक्ति के जीवन का एक हिस्सा है। लेखक ने मानव-मन को एक संदेष देने के साथ-साथ एक उत्कृश्ट साहित्य को जन्म दिया है। जो जिन्दगी के विभिन्न आयामों को परिभाशित करती है।

पत्र 7.                                                6/10/2011
मेरी राय में किसी उपन्यास की सार्थकता उसकी संवेदना और प्रासंगिकता में ही निहीत है। पहचान में लेखक ने अपने आस-पास के वातावरण तािा सामाजिक सन्दर्भो को केंद्र बिन्दुओं से जोड़कर सत्य को उजागर किया हे। यहां पर पूरा वर्णन विसंगतियों और विद्रूपताओं पर केंद्रित है, समाज के असली मुखौटों को नाना रूप में पेष किया है। जो पाठकों को कुछ सोचने के लिए विवष करती है। कथानक, पाठक व श्रोता दोनों को मंत्र-मुग्ध कर लेता है। यूनुस का कल्लू के वेष्या-गमन हेतु जाना और वहां से पलायन/ रोचक लगा। सबसे बढ़िया लगा -’’तुम अपने अल्ला को क्या मुंह दिखाओग यूनुस जब वो पूछेगा कि ये सब बिना किए कैसे आ गए?’’
बस यहीं अटक गया हूं। क्या जवाब दूंगा मैं????

पत्र 8.                                              6/10/2011
‘पहचान’ का कथानक आगे बढ़ता है। यूनुस के मार्फत, लेखक पूरे समय के चरित्रों को अपने ढंग से बताने का प्रयास करता है। यूनुस किस तरह अपने समाज से, समय से किस तरह जूझता है, उसके मन में किस तरह के संकल्प-विकल्प हैं, किस तरह वह वापस फिर अपनी मेहबूबा के पास लौटना चाहता है। यह पूरी गाथा विस्तार से इसमें वर्णित है। पूरे उपन्यास में बहुत साधारण लोग हैं, जिन्होंने बाहरी दुनिया को देखा नहीं है, सहज रूप में देखें तो, एक ऐसे व्यक्ति की कथा है, जिसका एक परिवार है, सनूबर नाम की मेहबूबा है, चारों तरफ उसके आस-पास जो कुछ हो रहा है, वही कथा है। एक “ाब्द में, यह आम कथा है जिसमें  एक नौजवान सतरंगी सपना लेकर परदेष चला है।

पत्र 9.                                             7/10/2011
उपन्यास को रोचक बनाने के लिए यूनुस की अम्मी से बात करवाया गया है। जहां हर चरित्र को अलग-अलग ढंग से पेष कर उपन्यास में रोचकता, आकर्शण पैदा किया गया है। सोचने को हर एक को मजबूर करता है कि जिन्दगी की चढ़ार्इ कितनी मुष्किल है, हर आदमी थक कर हांफने के बाद, रूकने की सहूलियत की कोषिष करता है, सांस व्यवस्थित करने के वास्ते कुछ कुरबानियां हैं, अच्छी या बुरी, अनवर साहब आपने हर किरदार को खूब मांजा है, चमकाया है व पीतल से सोना बनाकर पेष किया है। पढ़ने में रूचि बढ़ती जाती है।

पत्र 10.                                          8/10/2011
अजनबी लोग भी देने लगे इलज़म मुझे
कहां ले जाएगी मेरी (सनूबर) पहचान मुझे
भुलाना चाहूं भी तो भुलाऊं कैसे,
लोग ले ले बुलाते हैं तेरा नाम मुझे।। -’अनाम’
ममदू पहलवान की दश से, एक परी धरती पर आ गर्इ। कहीं खुषी, कहीं ग़म। बेचारी, सनूबर की मां का दोश नहीं, क्योंकि ‘यौवन, जीवन, धन, परछार्इं, मन और स्वामित्व- ये छहों चंचल हैं, स्थिर होकर नहीं रह सकते।’’ इसी सूत्र को लेखक ने चटपटी व मसालेदार बनाकर कहानी के रूप में पाठकों की थाली में परोसा है।
अब नया चेहरा जमाल साहब ने इन्ट्री उपन्यास में लिया है। क्या गुल खिलाते हैं जमाल साहब। अभी तो पड़ोसियों में “ाान बढ़ी है। नर्इ रिष्तेदारी बनी है। बेचारा यूनुस- सनूबर से, बिछुड़ने का सुन, परेषान है!

पत्र 11.                                           8/10/2011
प्हचान पर दो “ाब्द--
‘‘चन्द्रमा की चांदनी से भी नरम
और रवि के भाल से ज्यादा गरम
है, नहीं कुछ और केवल (सनूबर) का प्यार।।
यूनुस क्या करता। जमाल साहब सांप की तरह कुण्डली मार कर बैठ गए और उसे दामाद बनाने की तैयारियां होने लगीं। बेचारा यूनुस? स्त्री व पुरूश की दोस्ती बन्द मुट्ठी में पारे के समान होती है ज़रा खुली - ‘पारा’ ढलक जाता है।
उपन्यास पहचान एक सुरंग है जिसके भीतर लेखक अपने पाठकों को लेकर अपने पात्रों के साथ प्रवेष करा देता है। फिर पाठक, एक विष्व को छोड़कर दूसरे विष्व में घुसता चला जाता है। यही कलाबाजी इन पात्रों में वह खूबसूरती से खेल रहा है। किसी ने कहा है कि ‘‘औरत को समझने के लिए हजार साल की जिन्दगी चाहिए।’’ अनवर सुहैल आपने नारी जीवन के विभिन्न रूपों और पक्षों को इतनी गहरार्इ से और ठहराव के साथ उजागर किया किया है। कमाल है! संवेदनषील / सारगर्भित रचना हेतु साधुवाद। मज़ा आ गया।

पत्र 12.                                          9/10/2011
ऊर्जा तीर्थ सिंगरौली, नर्इ कथा, नर्इ जानकारी, कार्य करने का तरीका, यूनुस का पलायन -’’दुनिया में कुछ इंसान स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ इच्छाएं भी पूरी नहीं हो पाती।’’ लार्इनें अच्छी लगीं। जमाल साहब का जादू चलते देखा। सनूबन की बगावत--पर-सब कुछ जहां का तहां।
‘नर्इ पहचान’ में यूनुस एक नए मंजिल की तलाष में चल देता है। वह सफल होगा या नहीं, कुछ नहीं जानता। पर लेखकर आज की युवा पीढ़ी को एक स्वस्थ और सकारात्मक सोच देने में सफल होता है। ‘सफलता’ अपने मनपसंद काम में संतुश्टि है। यूनुस उसी की तलाष में निकला है। अनवर सुहैल ‘पहचान’ में जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य का रहस्योद्घाटन  करने में सफल है।

तीन पत्र उपन्यास की पात्र ‘सनूबर’ के नाम :

पत्र 1.    दिनांक : 14/11/2011

प्रिय सनूबर,
‘‘कैसे इस ज़माने में / जिन्दा खुद को रक्खूं मैं
 मेरी सच्ची बातें भी / आज सबको खलती हैं’’
एक मंज़र यह भी-
‘‘जैसे मौजें साहिल से / मारती है सर अपना
 आरजू़एं दिल में यूं   / करवटें बदलतीं हैं ‘‘
इन पंक्तियों को लिखने के बाद सनूबर का चेहरा याद आया। “ाायद महबूब के जाने के बाद यही सब खयाल तुम्हारे मन में उठते होंगे सनूबर। इस प्रकार की मनोदषा व घर का वातावरण तथा गिद्ध की तरह तीखी नज़र वालों से सनूबर अपने को बचा पाओगी कैसे?

पत्र 2.  दिनांक 15/11/2011
प्रिय सनूबर,
मेरी बच्ची ‘पहचान’ में मजबूर लेखक तुम्हें छोड़ गया। कुछ मजबूरियां रहीं होंगी उसकी। पर तुझे पता नहीं कि प्यार और प्यार की राह बड़ी कठिन  व संघर्शों से पूरी लबा-लब भरी है। “ाायद किसी ने तुम्हें गुमराह किया होगा। क्योंकि इस खेल में अब ‘प्रेम’ की परिभाशा बदल गर्इ है, उसका रूप भी बदल गया है। आपसे कौन प्रेम कर रहा है और कौन आपको प्रेम में धोखा दे रहा है, समझना कठिन है। “ाायद यहीं आकर लेखक रूका होगा, सोचने को। क्योंकि वह तो अब तक सिर्फ परिचित रहा है कि यह “ाब्द, बड़ा कोमल, मधुर और विराट है। पहले प्रेमी के दर्षन मात्र से माषूका का चेहरा लहलहा उठता था क्योंकि उसमें उसको खुदा का अक्स नज़र आता था। अब तो प्यार की खुष्बू उसका रंग, मुहब्बत का जादू, सिनेमा/टीवी स्तर से देखा जा रहा है। काष, तुम्हें किसी ने समझाया होता?

पत्र 3.  दिनांक 16/11/2011
प्रिय बेटी सनूबर,
‘पहचान’ में लेखक ने तुम्हारे वर्ग की स्त्रियों की व्यथा-कथा बड़ी षिद्दत से लिखा है, जिस वर्ग से तुम आती हो, वहां की बहू-बेटियों की अस्मिता, साहूकारों, ठेकेदारों, व जो अपना होने का दम भरते, नए रिष्तेदारी बनाते व अपने अहसानों से दबाते हैं, उनके सामने कोर्इ मायने नहीं रखती। बेचारा लेखक, तुम्हें, कहां तक अपनी क़लम से बचाता। तुम्हारा महबूब  भी रोजी-रोटी की तलाष में मेहनत-मजदूरी करने निकल गया है। अब सारा दारो-मदार तुम्हारे ऊपर है, उन सब की दृश्टि भांप कर तुम कैसे अपने आपको बचाने में सफल हो पाती हो। ‘चौकस’ तुम्हें रहना है। अस्मिता बचाए रखने के वास्ते, कुछ सोचो? बस फिर कभी...........
तुम्हारा “ाुभचिन्तक / एक पाठक बस्स.


(श्री यू एस तिवारी उम्र के इस पड़ाव में भी देष भर में लेखकों से पत्राचार करते हैं और साल में एक-दो बार विभिन्न “ाहर जाकर लेखकों से आत्मीय मुलाकात करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हैं। अपनी स्वर्गीय बहू की याद में ‘षैव्या तिवारी ट्रस्ट’ का संचालन करते हैं। इस संस्था के माध्यम से तिवारी साहब स्लम्स / गांव जाकर लोगों को वस्त्र, किताबें और भोजन आदि का निषुल्क वितरण करते हैं। तिवारी साहब भोपाल और झांसी से निकलने वाले कर्इ पत्रों में कालम भी लिखते हैं। ‘पहचान’ उपन्यास उन्होंने वीपीपी से मंगवा कर पढ़ा और लेखक को “ााबाषियां तो दीं ही, लगभग पंद्रह पोस्टकार्ड भी लिखे। सारे पत्र मेरे पर सुरक्षित हैं। उन पत्रों को मैं लिपिबद्ध कर प्रस्तुत कर रहा हूं।)

Saturday, June 22, 2013

जद्दोजहद पहचान पाने की - जाहिद खान

समीक्षा: उपन्यास ‘पहचान’

किसी भी समाज को गर अच्छी तरह से जानना-पहचाना है, तो साहित्य एक बड़ा माध्यम हो सकता है। साहित्य में जिस तरह से समाज की सूक्ष्म विवेचना होती है, वैसी विवेचना समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भी मिलना नामुमकिन है। कोई उपन्यास, कहानी या फिर आत्मकथ्य जिस सहजता और सरलता से पाठकों को समाज की जटिलता से वाकिफ कराता है। वह सहजता, सरलता समाजशास्त्रीय अध्ययनों की किताबों में नही मिलती। यही वजह है कि ये समाजशास्त्रीय अध्ययन अकेडमिक काम के तो हो सकते हैं, लेकिन आम जन के किसी काम के नहीं। बहरहाल, भारतीय मुसलिम समाज को भी यदि हमें अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो साहित्य से दूजा कोई बेहतर माध्यम नहीं। डाॅ. राही मासूम रजा का कालजयी उपन्यास आधा गांव, शानी-काला जल, मंजूर एहतेशाम-सूखा बरगद और अब्दुल बिस्मिल्लाह-झीनी बीनी चदरिया ये कुछ ऐसी अहमतरीन किताबें हैं, जिनसे आप मुसलिम समाज की आंतरिक बुनावट, उसकी सोच को आसानी से समझ सकते हैं। अलग-अलग कालखंडों में लिखे गए, ये उपन्यास गोया कि आज भी मुसलिम समाज को समझने में हमारी मदद करते हैं।
भारतीय मुसलिम समाज की एक ऐसी ही अलग छटा कवि, कथाकार अनवर सुहैल के उपन्यास ‘पहचान’ में दिखलाई देती है। पहचान, अनवर सुहैल का पहला उपन्यास है। मगर जिस तरह से उन्होंने इस उपन्यास के विषय से इंसाफ किया है, वह सचमुच काबिले तारीफ है। उपन्यास में उन्होंने उस कालखंड को चुना है, जब मुल्क के अंदर मुसलमान अपनी पहचान को लेकर भारी कश्मकश में था। साल 2002 में गोधरा हादसे के बाद जिस मंसूबाबंद तरीके से पूरे गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार हुआ, उसकी परछाईयां मुल्क के बाकी मुसलमानों पर भी पड़ीं। भारतीय मुसलमान अपनी पहचान और अस्तित्व को लेकर आशंकित हो गया। गोया कि ये आशंकाएं ठीक उस सिख समाज की तरह थीं, जो 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे मुल्क के अंदर संकट में घिर गया था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद गुजरात दंगों ने मुसलमानों के दिलो-दिमाग पर एक बड़ा असर डाला। इस घटना ने मुल्क में उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक के मुसलमानों को झिंझोड़ कर रख दिया। अनवर सुहैल अपने उपन्यास के अहम किरदार युनूस के मार्फत इसी कालखंड की बड़ी ही मार्मिक तस्वीर पेश करते हैं।
उपन्यास में पूरी कहानी, युनूस के बजरिए आगे बढ़ती है। युनूस, निम्न मध्यमवर्गीय भारतीय मुसलिम समाज के एक संघर्षशील नौजवान की नुमाइंदगी करता है। जो अपनी एक स्वतंत्र पहचान के लिए न सिर्फ अपने परिवार-समाज से, बल्कि हालात से भी संघर्ष कर रहा है। जिन हालातों से वह संघर्ष कर रहा है, वे हालात उसने नहीं बनाए, न ही वह इसका कसूरवार है। लेकिन फिर भी युनूस और उसके जैसे सैंकड़ो-हजारों मुसलमान इन हालातों को भोगने के लिए अभिशप्त हैं। गोया कि उपन्यास में युनूस की पहचान, भारतीय मुसलमान की पहचान से आकर जुड़ जाती है। युनूस समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए जिस तरह से जद्दोजहद कर रहा है, वही जद्दोजहद आज मुसलिम समाज के एक बड़े तबके की  है। उपन्यास की कथावस्तु बहुत हद तक किताब की शुरूआत में ही उर्दू के प्रसिद्ध समालोचक शम्शुरर्रहमान फारूकी की इन पंक्तियों से साफ हो जाती है-‘‘जब हमने अपनी पहचान यहां की बना ली और हम इसी मुल्क में हैं, इसी मुल्क के रहने वाले हैं, तो आप पूछते हो कि तुम हिन्दुस्तानी मुसलमान हो या मुसलमान हिन्दुस्तानी।’’ ऐसा लगता है कि अनवर सुुहैल ने फारूकी की इस बात से ही प्रेरणा लेकर उपन्यास की रचना की है।
बहरहाल, उपन्यास पहचान की कहानी गुजरात से सैंकड़ों किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे सिंगरौली क्षेत्र की है। एशिया प्रसिद्ध एल्यूमिनियम प्लांट और कोयला खदानों के लिए पूरे मुल्क में पहचाने जाने वाले इस क्षेत्र में ही युनूस का परिवार निवास करता है। युनूस वक्त के कई थपेड़े खाने के बाद, यहां अपनी खाला-खालू के साथ रहता है। घर में खाला-खालू के अलावा उनकी बेटी सनूबर है। जिससे वह दिल ही दिल में प्यार करता है। युनूस की जिंदगी बिना किसी बड़े मकसद के यूं ही खरामां-खरामां चली जा रही थी कि अचानक उसमें मोड़ आता है। मोड़ क्या, एक भूचाल ! जो उसकी सारी दुनिया को हिलाकर रख देता है। एक दिन गुजरात के दंगों में युनूस के भाई सलीम के मारे जाने की खबर आती है। ‘‘सलीम भाई का पहनावा और रहन-सहन गोधरा-कांड के बाद के गुजरात में उसकी जान का दुश्मन बन गया था.....।’’ (पेज-114) सलीम की मौत युनूस के लिए जिंदगी के मायने बदल कर रख देती है। उसे एक ऐसा सबक मिलता है, जिसे सीख वह अपना घर-गांव छोड़, अपनी पहचान बनाने के लिए निकल पड़ता है। एक ऐसी पहचान, जो उसके धर्म से परे हो। उसका काम ही उसकी पहचान हो।
उपन्यास पहचान की खासियत इसकी कथा का प्रवाह है। अनवर सुहैल ने कहानी को कुछ इस तरह से रचा-बुना है कि शुरू से लेकर आखिर तक उपन्यास में पाठकों की दिलचस्पी बनी रहती है। कहानी में आगे क्या घटने वाला है, यह पाठकों को आखिर तक मालूम नहीं चलता। जाहिर है, यही एक मंझे हुए किस्सागो की निशानी है। छोटे-छोटे अध्याय में विभाजित उपन्यास की पूरी कहानी, फ्लेश बैक में चलती है। सिंगरौली रेलवे स्टेशन के प्लेटफाॅर्म पर कटनी-चैपन पैसेंजर के इंतजार में खड़ा युनूस, अपने पूरे अतीत में घूम आता है। उसकी जिंदगी से जुड़ी हुई सभी अहम घटनाएं एक के बाद एक, किसी फिल्म की रील की तरह सामने चली आती हैं। युनूस के अब्बा-अम्मा, खाला सकीना, फौजी खालू, जमाल साहब, यादव जी, पनिकाईन, मदीना टेलर के मालिक बन्ने उस्ताद, बब्बू, कल्लू, मोटर साईकिल मिस्त्री मन्नू भाई, सरदार शमशेर सिंह उर्फ ‘डाॅक्टर’, सिंधी फलवाला और उसका बड़ा भाई सलीम यानी सभी किरदार एक-एक कर मानो युनूस के सामने आवाजाही करते हैं। अनवर सुहैल ने कई किरदारों को बेहतरीन तरीके से गढ़ा है। खासकर खाला सकीना और मदीना टेलर के मालिक बन्ने उस्ताद।
पारिवारिक हालातों के चलते कहने को यूनुस ने स्कूल में जाकर कोई सैद्धांतिक तालीम नहीं ली। लेकिन जिंदगी के तजुर्बों ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया ‘‘फुटपथिया लोगों का अपना एक अलग विश्वविद्यालय होता है, जहां व्यवहारिक-शास्त्र की तमाम विद्याएं सिखाई जाती हैं। हां फर्क बस इतना है कि इन विश्वविद्यालयों में ‘माल्थस’ की थ्योरी पढ़ाई जाती है न डार्विन का विकासवाद। छात्र स्वमेव दुनिया की तमाम घोषित, अघोषित विज्ञान एवम् कलाओं में महारत हासिल कर लेते हैं।’’ (पेज 72) गोया कि यूनुस और उसके जैसे तमाम सुविधाहीन बच्चे दुनिया में ऐसे ही बहुत कुछ सीखते हैं। ‘‘बड़े भाई सलीम की असमय मृत्यु से गमजदा यूनुस को एक दिन उसके आटोमोबाईल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक यानी मोटर साईकिल मिस्त्री मन्नू भाई ने गुरू-गंभीर वाणी में समझाया था-‘‘बेटा मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन ‘लढ़ा’ जरूर हूं। अब तुम पूछोगे कि ये लढ़ाई क्या होती है तो सुना, एम्मे, बीए जैसी एक डिग्री और होती है जिसे हम अनपढ़ लोग ‘एलेलपीपी’ कहते हैं। जिसका फुल फार्म होता है, लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, समझे। इस डिग्री की पढ़ाई फर्ज-अदायगी के मदरसे में होती है। जहां मेहनत की काॅपी और लगन की कलम से ‘लढ़ाई की जाती है।’’ उपन्यास में जगह-जगह ऐसे कई संवाद हैं, जो जिंदगी को बड़े ही दिलचस्प अंदाज से बयां करते हैं। खासकर, भाषा का चुटिलापन पाठकों को मुस्कराने के लिए मजबूर करता है।
 अनवर सुहैल ने उपन्यास के नैरेशन और संवादों में व्यंग्य और विट् का जमकर इस्तेमाल किया है। सुहैल जरूरत पड़ने पर राजनीतिक टिप्पणियां करने से भी नहीं चूकते। खासकर, आजादी के बाद मुल्क में जो सामाजिक, राजनीतिक तब्दीलियां आईं, उन पर वे कड़ी टिप्पढ़ियां करते हैं। मसलन ‘‘इस इलाके में वैसे भी सामंती व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक नेतृत्व का अभाव था। जनसंचार माध्यमों की ऐसी कमी थी कि लोग आजादी मिलने के बाद भी कई बरस नहीं जान पाए थे कि अंग्रेजी राज कब खत्म हुआ।’’(पेज-16) आजाद हिंदुस्तान के उस दौर के हालात पर सुहैल आगे और भी तल्ख टिप्पणी करते हैं,  ‘‘नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व का दौर था। देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य। नए-नए लोकतंत्र में बिना शिक्षित-दीक्षित हुए गरीबी, भूख, बेकारी, बीमारी और अंधविश्वास से जूझते देश के अस्सी प्रतिशत ग्रामवासियों को मतदान का झुनझुना पकड़ा दिया गया।’’ (पेज-17) उपन्यास का कालक्रम आगे बढ़ता है, मगर हालात नहीं बदलते। मुल्क की पचास फीसद से ज्यादा आबादी के लिए हालात आज भी ज्यों के त्यों हैं। अलबत्ता, गरीबी रेखा के झूठे आंकड़ों से गरीबी को झुठलाने की नाकाम कोशिशें जरूर होती रहती हैं।
कुल मिलाकर, लेखक अनवर सुहैल का उपन्यास पहचान न सिर्फ कथ्य के स्तर पर बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर भी प्रभावित करता है। उपन्यास का विषय जितना संवेदनशील है, उतनी ही संजीदगी से उन्होंने इसे छुआ है। पूरी तटस्थता के साथ वे स्थितियों का विवेचन करते हैं। कहीं पर जरा सा भी लाउड नहीं होते। साम्प्रदायिकता की समस्या को देखने-समझने का नजरिया, उनका अपना है। बड़े सीन और लंबे संवादों के बरक्स छोटे-छोटे संवादों के जरिए, उन्होंने समाज में घर कर गई साम्प्रदायिकता की समस्या को पाठकों के सामने बड़े ही सहजता से प्रस्तुत किया है। उपन्यास पढ़कर ये दावा तो नहीं किया जा सकता कि कहानी, मुल्क के सारे मुसलमानों की नुमाइंदगी करती है। लेकिन बहुत हद तक कथाकार अनवर सुहैल ने थोड़े में ज्यादा समेटने की कोशिश, जरूर की है। उम्मीद है, उनकी कलम से आगे भी ऐसी ही बेहतरीन रचनाएं निकलती रहेंगी।


                                                              महल काॅलोनी, शिवपुरी मप्र
                                                  मोबाईल: 94254 89944

किताब: पहचान,   लेखक: अनवर सुहैल
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,  मूल्य: 200 रूपए

Thursday, June 20, 2013

कविता में प्रेम

हिना फिरदौस की पेंटिंग
















उसने मुझसे कहा
ये क्या लिखते रहते हो
गरीबी के बारे में
अभावों, असुविधाओं,
तन और मन पर लगे घावों के बारे में
रईसों, सुविधा-भोगियों के खिलाफ
उगलते रहते हो ज़हर
निश-दिन, चारों पहर
तुम्हे अपने आस-पास
क्या सिर्फ दिखलाई देता है
अन्याय, अत्याचार
आतंक, भ्रष्टाचार!!
और  कभी विषय बदलते भी हो
तो अपनी भूमिगत कोयला खदान के दर्द का
उड़ेल देते हो
कविताओं में
कहानियों में
क्या तुम मेरे लिए
सिर्फ मेरे लिए
नहीं लिख सकते प्रेम-कवितायें...
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ प्रिये
कि  बेशक मैं लिख सकता हूँ
कवितायें सावन के फुहारों की
रिमझिम  बौछारों की
उत्सव-त्योहारों की कवितायें
कोमल, सांगीतिक छंद-बद्ध कवितायें
लेकिन तुम मेरी कविताओं को
गौर से देखो तो सही
उसमे तुम कितनी ख़ूबसूरती से छिपी हुई हो
जिन पंक्तियों में
विपरीत परिस्थितियों में भी
जीने की चाह लिए खडा दीखता हूँ
उसमें  तुम्ही तो मेरी प्रेरणा हो...
तुम्ही तो मेरा संबल हो.....

Tuesday, June 18, 2013

दुःख सहने के अभ्यस्त लोग

-के रवीन्द्र का रेखांकन-



















उनके जीवन में है दुःख ही दुःख

और हम बड़ी आसानी से कह देते

उनको दुःख सहने की आदत है...

वे सुनते अभाव का महा-आख्यान

वे गाते अपूरित आकांक्षाओं के गान

चुपचाप सहते जाते जुल्मो-सितम

और हम बड़ी आसानी से कह देते

अपने जीवन से ये कितने सतुष्ट हैं...

वे नही जानते कि उनकी बेहतरी लिए

उनकी शिक्षा, स्वास्थय और उन्नति के लिए

कितने चिंतित हैं हम और

सरकारी, गैर-सरकारी संगठन

दुनिया भर में हो रहा है अध्ययन

की जा रही हैं पार-देशीय यात्राएं

हो रहे हैं सेमीनार, संगोष्ठिया...

वे नही जान पायेंगे कि उन्हें

मुख्यधारा में लाने के लिए

तथाकथित तौर पर सभ्य बनाने के लिए

कर चुके हजम हम

कितने बिलियन डालर

और एक डालर की कीमत

आज पचपन रुपये है...!

Tuesday, June 11, 2013

जाने कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...













कब मिलेगी फुर्सत
कब मिलेगा मौका
कब बढ़ेंगे कदम
कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...

बेशक, आप खुद्दार हैं
बेशक, आप खुद-मुख्तार हैं
बेशक, आप नहीं देना चाहते तकलीफ
        अपने वजूद से,
                      किसी को भी
बेशक , आप नहीं बनना चाहते
                   बोझ किसी पर..
तो क्या इसी बिना पर
हम आपको छोड़ दें तनहा!

ये सच है, आप तनहा हैं
ये सच है, आप कमज़ोर हो गए हैं
ये सच है, आपकी नज़रें अब
खोजने लगी हैं अपनों को
और हम फंसे हैं
अपनी उलझनों में
अपनी परेशानियों में
निकाल नहीं पा रहे फुर्सत
जबकि इस बीच हमने की
कई शादियों में शिरकत
कई आफीसियल टूर...
एल एल टी सी लेकर
मज़े लिए दार्जिलिंग में सपरिवार
सपरिवार?
हाँ सपरिवार
क्योंकि परिवार की परिभाषा में
अब माँ-बाप कहाँ आते हैं...?

Saturday, June 8, 2013

खानदानी भाट-चारण

के रवीन्द्र की पेंटिंग



















उसके जाते ही

बदल गए उसके लोग

करते थे जो निश-दिन

उसका कीर्ति-गान

उनका था ऐसा आचरण

जैसे वे हों खानदानी भाट-चारण

जबकि उसने

जो भी कदम उठाये

गलत ही उठाये

लेकिन उसके मुरीद

साधे रहे  चुप्पी

कहीं नहीं था कोई विरोध

उसके डर से

तथा-कथित योद्धाओं के तलवार

जंग खाते रहे म्यानों में

आम-जन को बहलाए रखे

उलटे-सीधे बयानों में..

आज वही लोग

उसके जाने के बाद

खोले बैठे निंदा-पुराण

गरियाते उसको सरे-आम!

जानती है जनता सब-कुछ

ऐसे लोगों को पहचानती बहुत-कुछ

और याद रखती है

शोषण में सहायक

ऐसे विभीषणों को....