शुक्रवार, 28 जून 2013

‘पहचान’ पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए पोस्टकार्ड


श्री उमाशंकर तिवारी : अवकाशप्राप्त डी आई जी के पत्र

पत्र 1.                                             3/10/2011
प्रिय अनवर,
आप सोचते होंगे, मैं पोस्टकार्ड पर पार्ट बार्इ पार्ट अपने विचार लिखकर क्यों भेज रहा हूं? तो सुनो:-
‘पहचान’ के पन्ने पलटते ही लगा, इस पुस्तक में कुछ है। जब पूरा पढ़ा तो पाया इस उपन्यास में इतना कुछ है, लेखक, के भाव-रंग कर्इ रूपों में मेरे सामने आने लगे, इसमें प्रेमिका, पत्नी के अलावा औरतों / आदमियों की एक पूरी बसाहट है, पूरी एक नर्इ कॉलरी की दुनिया मौजूद दिखी। मैं चकित हो गया आपकी लेखनी में। एक आग, एक सषक्त भाव है, पैनी धार है तथा भावुक हृदय है। काफी दिनों के बाद कॉलरी (कोयला खदान) क्या है, इसकी जानकारी मिली।

पत्र 2.                                         3/10/2011

तुम्हारा उपन्यास ‘पहचान’ कल से “ाुरू किया और आज खत्म कर लिया। कहीं पढ़ा था कि आदमियों की भीड़ में, जिसकी रूह पाक होती है, वही कथाकार, “ाायर, कवि या कलाकार होता है। मुझे खुषी है मैंने तुम्हें इसमें हर रूप में देखा। इस पुस्तक को एक आदर्ष के रूप में लिया जाए। हृदय के अतल गहरार्इयों में डूबकर भावों की अभिव्यक्ति को अनुभूति के समन्दर से कहानी रूपी मोती निकालने की कला सीखनी हो तो अनवर सुहैल, अजय “ार्मा, सैली बलजीत, व यषपाल “ार्मा को पढ़ना चाहिए। इ्रन्हें पग-पग पर सम्मानित किया जाना चाहिए। अनवर, मुझे तुम पर गर्व है।

पत्र 3.                                            4/10/2011
पुस्तक राजकमल प्रकाषन ने सुन्दर ढंग से छापा है। कवर पेज पर विचारों की उठती सुनामी लहर आदमी की पहचान, उसका धर्म, उसका पेषा हृदय? इसका उत्तर क्या है? जनाब “ाम्षुर्रहमान फारूकी ने कुछ कहा। उनकी बात अपनी जगह सही है। विवाद का विशय है। हर आदमी अपनी नज़र से देखेगा। जिसके चष्में का रंग, जो होगा वही दिखेगा।
लेखक अनवर सुहैल, अपना उपन्यास आने वाली पीढ़ी को देता है और आषा करता है कि पिछलग्गू वर्ग नहीं होगा यानी ‘भोंपू’ की तरह किसी के बटन दबाने पर, चीखेगा नहीं और न ‘टूल्स’ जो बेजान होता है चाहे जो चाहे, उसे उठाए, उपयोग करे, फेंक दे। सकारात्मक आषा लेकर चला है लेखक। कवर के पीछे लेखक का परिचय है, फोटो न होना अच्छा नहीं लगा।

पत्र 4.                                                  5/10/2011
फोटो न देने की वजह हो सकती है, आत्म प्रचार से दूर या संकोच या प्रकाषन के वक्त कुछ असुविधा, पर हर पाठक अपने लेखक को देखना चाहता हे। भविश्य में याद रक्खें।
‘पहचान’ पढ़ते हुए जैसे टीवी में सीरियल “ाुरू होता है, उसी प्रकार का दृष्य देने की कोषिष है। ठण्ड में चाय /षराब/षबाब/कबाब, सब याद आना ज़रूरी है। जब आदमी अकेला होता है पुरानी यादें आ घेरती हैं तथा अच्छे-बुरे ख्याल उलझाए रहते है। जहां पर नए निर्माण चलते हैं, वहां पेज नं 14 के आखिरी पैरा में बताए अड्डे भी होते हैं। (उद्योगों के आसपास जो स्लम उगते हैं और जहां कुषल, अर्द्धकुषल श्रमिक, बाज़ारू स्त्रियां और दारू के अड्डे स्वमेव उग आते हैं)। एक किस्म का बफर-ज़ोन है। “ौतान को रोकने के लिए, वरना अपराध पर अंकुष नहीं लगाया जा सकता। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद आदमी की कुछ और ज़रूरतें होती हैं...........

पत्र 5.                                         5/10/2011
‘साहित्य मस्तिश्क की वस्तु नही, हृदय की वस्तु है। जहां ज्ञान और उपदेष असफल होते हैं, वहीं साहित्य बाजी ले जाता है।’’ -प्रेमचंद
बहुत सुन्दर...
नए “ाब्द जो सीखे- परसटोला, महुआर टोला, अम्माडांड, इमलिया, बरटोला, मोरवा, भनौती, ताजिया, झींगुरदहा सीम, बैढ़न।
मुहर्रम का दृष्य, तरीका, रीति-रिवाज़ व हिन्दू-मुस्लिम एकता, गहरवार राज्य के महलों का बांध में डूबना तथा नेहरू व समाजवाद का तालमेल। बड़े सुन्दर व रोचक ढंग से लिखा गया है। ताजिया के साथ मातम मनाते पुरूश, “ोरों का नाच तथा ताजिया के नीचे से निकलते हिन्दू-मुस्लिम भार्इ। झांसी व दीगर जगहों पर देखा है मैंने भी।
अनवर, आप पूर्ण रूप् से सफल रहे हैं अपनी बात कहने में --’’डीजल चोरी का ढंग प्राय: हर जगह एक सा है। दंतेवाड़ा में पेलोडर / पोकलेन चलते देखा है।

पत्र 6.                                             6/10/2011
उपन्यास मानव-मन की गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। उपन्यास लेखक,उस व्यवस्था पर प्रहार करता है जो वह देखता/ भोगता/ सुनता है, जहां जरूरी समझता है, वहां प्रहार करता है। पहचान में अनवर सुहैल की क़लम कुछ इन्हीं बातों के बारे में चर्चा कर रही है।
उपन्यास के प्लाट को ढूंढने में ज्यादा मषक्कत नहीं करनी पड़ी है। सब कुछ अपने ही आसपास लेखक को मिल गया है। जिसकी वजह से “ाब्दों में ढालने के लिए संवेदना के घोड़े दौड़ाने की जरूरत नहीं पड़ी।  दर्रा नाला, आज़ाद नगर, यूनुस और जमीला प्रकरण। सनूबर की हंसी, सभी के वजूद को हर सांचे में ढालते हुए एक ऐसी तस्वीर पेष करते हैं जो रह व्यक्ति के जीवन का एक हिस्सा है। लेखक ने मानव-मन को एक संदेष देने के साथ-साथ एक उत्कृश्ट साहित्य को जन्म दिया है। जो जिन्दगी के विभिन्न आयामों को परिभाशित करती है।

पत्र 7.                                                6/10/2011
मेरी राय में किसी उपन्यास की सार्थकता उसकी संवेदना और प्रासंगिकता में ही निहीत है। पहचान में लेखक ने अपने आस-पास के वातावरण तािा सामाजिक सन्दर्भो को केंद्र बिन्दुओं से जोड़कर सत्य को उजागर किया हे। यहां पर पूरा वर्णन विसंगतियों और विद्रूपताओं पर केंद्रित है, समाज के असली मुखौटों को नाना रूप में पेष किया है। जो पाठकों को कुछ सोचने के लिए विवष करती है। कथानक, पाठक व श्रोता दोनों को मंत्र-मुग्ध कर लेता है। यूनुस का कल्लू के वेष्या-गमन हेतु जाना और वहां से पलायन/ रोचक लगा। सबसे बढ़िया लगा -’’तुम अपने अल्ला को क्या मुंह दिखाओग यूनुस जब वो पूछेगा कि ये सब बिना किए कैसे आ गए?’’
बस यहीं अटक गया हूं। क्या जवाब दूंगा मैं????

पत्र 8.                                              6/10/2011
‘पहचान’ का कथानक आगे बढ़ता है। यूनुस के मार्फत, लेखक पूरे समय के चरित्रों को अपने ढंग से बताने का प्रयास करता है। यूनुस किस तरह अपने समाज से, समय से किस तरह जूझता है, उसके मन में किस तरह के संकल्प-विकल्प हैं, किस तरह वह वापस फिर अपनी मेहबूबा के पास लौटना चाहता है। यह पूरी गाथा विस्तार से इसमें वर्णित है। पूरे उपन्यास में बहुत साधारण लोग हैं, जिन्होंने बाहरी दुनिया को देखा नहीं है, सहज रूप में देखें तो, एक ऐसे व्यक्ति की कथा है, जिसका एक परिवार है, सनूबर नाम की मेहबूबा है, चारों तरफ उसके आस-पास जो कुछ हो रहा है, वही कथा है। एक “ाब्द में, यह आम कथा है जिसमें  एक नौजवान सतरंगी सपना लेकर परदेष चला है।

पत्र 9.                                             7/10/2011
उपन्यास को रोचक बनाने के लिए यूनुस की अम्मी से बात करवाया गया है। जहां हर चरित्र को अलग-अलग ढंग से पेष कर उपन्यास में रोचकता, आकर्शण पैदा किया गया है। सोचने को हर एक को मजबूर करता है कि जिन्दगी की चढ़ार्इ कितनी मुष्किल है, हर आदमी थक कर हांफने के बाद, रूकने की सहूलियत की कोषिष करता है, सांस व्यवस्थित करने के वास्ते कुछ कुरबानियां हैं, अच्छी या बुरी, अनवर साहब आपने हर किरदार को खूब मांजा है, चमकाया है व पीतल से सोना बनाकर पेष किया है। पढ़ने में रूचि बढ़ती जाती है।

पत्र 10.                                          8/10/2011
अजनबी लोग भी देने लगे इलज़म मुझे
कहां ले जाएगी मेरी (सनूबर) पहचान मुझे
भुलाना चाहूं भी तो भुलाऊं कैसे,
लोग ले ले बुलाते हैं तेरा नाम मुझे।। -’अनाम’
ममदू पहलवान की दश से, एक परी धरती पर आ गर्इ। कहीं खुषी, कहीं ग़म। बेचारी, सनूबर की मां का दोश नहीं, क्योंकि ‘यौवन, जीवन, धन, परछार्इं, मन और स्वामित्व- ये छहों चंचल हैं, स्थिर होकर नहीं रह सकते।’’ इसी सूत्र को लेखक ने चटपटी व मसालेदार बनाकर कहानी के रूप में पाठकों की थाली में परोसा है।
अब नया चेहरा जमाल साहब ने इन्ट्री उपन्यास में लिया है। क्या गुल खिलाते हैं जमाल साहब। अभी तो पड़ोसियों में “ाान बढ़ी है। नर्इ रिष्तेदारी बनी है। बेचारा यूनुस- सनूबर से, बिछुड़ने का सुन, परेषान है!

पत्र 11.                                           8/10/2011
प्हचान पर दो “ाब्द--
‘‘चन्द्रमा की चांदनी से भी नरम
और रवि के भाल से ज्यादा गरम
है, नहीं कुछ और केवल (सनूबर) का प्यार।।
यूनुस क्या करता। जमाल साहब सांप की तरह कुण्डली मार कर बैठ गए और उसे दामाद बनाने की तैयारियां होने लगीं। बेचारा यूनुस? स्त्री व पुरूश की दोस्ती बन्द मुट्ठी में पारे के समान होती है ज़रा खुली - ‘पारा’ ढलक जाता है।
उपन्यास पहचान एक सुरंग है जिसके भीतर लेखक अपने पाठकों को लेकर अपने पात्रों के साथ प्रवेष करा देता है। फिर पाठक, एक विष्व को छोड़कर दूसरे विष्व में घुसता चला जाता है। यही कलाबाजी इन पात्रों में वह खूबसूरती से खेल रहा है। किसी ने कहा है कि ‘‘औरत को समझने के लिए हजार साल की जिन्दगी चाहिए।’’ अनवर सुहैल आपने नारी जीवन के विभिन्न रूपों और पक्षों को इतनी गहरार्इ से और ठहराव के साथ उजागर किया किया है। कमाल है! संवेदनषील / सारगर्भित रचना हेतु साधुवाद। मज़ा आ गया।

पत्र 12.                                          9/10/2011
ऊर्जा तीर्थ सिंगरौली, नर्इ कथा, नर्इ जानकारी, कार्य करने का तरीका, यूनुस का पलायन -’’दुनिया में कुछ इंसान स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ इच्छाएं भी पूरी नहीं हो पाती।’’ लार्इनें अच्छी लगीं। जमाल साहब का जादू चलते देखा। सनूबन की बगावत--पर-सब कुछ जहां का तहां।
‘नर्इ पहचान’ में यूनुस एक नए मंजिल की तलाष में चल देता है। वह सफल होगा या नहीं, कुछ नहीं जानता। पर लेखकर आज की युवा पीढ़ी को एक स्वस्थ और सकारात्मक सोच देने में सफल होता है। ‘सफलता’ अपने मनपसंद काम में संतुश्टि है। यूनुस उसी की तलाष में निकला है। अनवर सुहैल ‘पहचान’ में जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य का रहस्योद्घाटन  करने में सफल है।

तीन पत्र उपन्यास की पात्र ‘सनूबर’ के नाम :

पत्र 1.    दिनांक : 14/11/2011

प्रिय सनूबर,
‘‘कैसे इस ज़माने में / जिन्दा खुद को रक्खूं मैं
 मेरी सच्ची बातें भी / आज सबको खलती हैं’’
एक मंज़र यह भी-
‘‘जैसे मौजें साहिल से / मारती है सर अपना
 आरजू़एं दिल में यूं   / करवटें बदलतीं हैं ‘‘
इन पंक्तियों को लिखने के बाद सनूबर का चेहरा याद आया। “ाायद महबूब के जाने के बाद यही सब खयाल तुम्हारे मन में उठते होंगे सनूबर। इस प्रकार की मनोदषा व घर का वातावरण तथा गिद्ध की तरह तीखी नज़र वालों से सनूबर अपने को बचा पाओगी कैसे?

पत्र 2.  दिनांक 15/11/2011
प्रिय सनूबर,
मेरी बच्ची ‘पहचान’ में मजबूर लेखक तुम्हें छोड़ गया। कुछ मजबूरियां रहीं होंगी उसकी। पर तुझे पता नहीं कि प्यार और प्यार की राह बड़ी कठिन  व संघर्शों से पूरी लबा-लब भरी है। “ाायद किसी ने तुम्हें गुमराह किया होगा। क्योंकि इस खेल में अब ‘प्रेम’ की परिभाशा बदल गर्इ है, उसका रूप भी बदल गया है। आपसे कौन प्रेम कर रहा है और कौन आपको प्रेम में धोखा दे रहा है, समझना कठिन है। “ाायद यहीं आकर लेखक रूका होगा, सोचने को। क्योंकि वह तो अब तक सिर्फ परिचित रहा है कि यह “ाब्द, बड़ा कोमल, मधुर और विराट है। पहले प्रेमी के दर्षन मात्र से माषूका का चेहरा लहलहा उठता था क्योंकि उसमें उसको खुदा का अक्स नज़र आता था। अब तो प्यार की खुष्बू उसका रंग, मुहब्बत का जादू, सिनेमा/टीवी स्तर से देखा जा रहा है। काष, तुम्हें किसी ने समझाया होता?

पत्र 3.  दिनांक 16/11/2011
प्रिय बेटी सनूबर,
‘पहचान’ में लेखक ने तुम्हारे वर्ग की स्त्रियों की व्यथा-कथा बड़ी षिद्दत से लिखा है, जिस वर्ग से तुम आती हो, वहां की बहू-बेटियों की अस्मिता, साहूकारों, ठेकेदारों, व जो अपना होने का दम भरते, नए रिष्तेदारी बनाते व अपने अहसानों से दबाते हैं, उनके सामने कोर्इ मायने नहीं रखती। बेचारा लेखक, तुम्हें, कहां तक अपनी क़लम से बचाता। तुम्हारा महबूब  भी रोजी-रोटी की तलाष में मेहनत-मजदूरी करने निकल गया है। अब सारा दारो-मदार तुम्हारे ऊपर है, उन सब की दृश्टि भांप कर तुम कैसे अपने आपको बचाने में सफल हो पाती हो। ‘चौकस’ तुम्हें रहना है। अस्मिता बचाए रखने के वास्ते, कुछ सोचो? बस फिर कभी...........
तुम्हारा “ाुभचिन्तक / एक पाठक बस्स.


(श्री यू एस तिवारी उम्र के इस पड़ाव में भी देष भर में लेखकों से पत्राचार करते हैं और साल में एक-दो बार विभिन्न “ाहर जाकर लेखकों से आत्मीय मुलाकात करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हैं। अपनी स्वर्गीय बहू की याद में ‘षैव्या तिवारी ट्रस्ट’ का संचालन करते हैं। इस संस्था के माध्यम से तिवारी साहब स्लम्स / गांव जाकर लोगों को वस्त्र, किताबें और भोजन आदि का निषुल्क वितरण करते हैं। तिवारी साहब भोपाल और झांसी से निकलने वाले कर्इ पत्रों में कालम भी लिखते हैं। ‘पहचान’ उपन्यास उन्होंने वीपीपी से मंगवा कर पढ़ा और लेखक को “ााबाषियां तो दीं ही, लगभग पंद्रह पोस्टकार्ड भी लिखे। सारे पत्र मेरे पर सुरक्षित हैं। उन पत्रों को मैं लिपिबद्ध कर प्रस्तुत कर रहा हूं।)

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