चहल्लुम : अनवर सुहैल : हिंदी कहानी 
सफेद
साड़ी पर आसमानी बार्डर।  
सिर
पर आंचल। 
चेहरे
पर वीरानी सी छाई। 
आंखों
पर ग़म के पनीले बादल... 
सदाबहार
अम्मी को इस ग़मज़दा रूप में देख जूही का दिल रो पड़ा। 
अब्बू
खुद तो सादा कपड़ा पहनते लेकिन अम्मी के कपड़ों के लिए वे खासे 
‘चूज़ी’ थे। इसीलिए अम्मी की साडि़यां षोख़ रंग की होतीं। उनमें 
लाल-गुलाबी
रंगों की डिज़ाईनें बनी हों तो बेहतर। बाकी हल्के रंगों का 
अब्बू
मज़ाक उड़ाया करते-‘‘डाॅक्टर, प्रोफेसरों वाला रंग घरेलू औरतों को 
कहां
फबेगा।’’ 
अम्मी
की जिन कलाईयों में दर्जनों चूडि़यां खनखनाया करतीं वे सूनी हुईं। 
मुस्लिमों
में मंगल-सूत्र पहनने का चलन नहीं, लेकिन अम्मी हमेषा 
मंगल-सूत्र
पहना करती थीं।  
काली
मोतियों और सोने से बने भारी-भरकम मंगलसूत्र के बगैर उनका 
गला
कितना खाली लग रहा है। 
अम्मी
के लबों पर पान की लालिमा नहीं, कैसे बेरौनक हो रहे हैं
होंठ! 
वह
खुद पान खाया करतीं और घर आए लोगों की खिदमत में पान पेष 
करती
थीं। 
अब्बू
क्या गए अम्मी के पान का षौक़ भी छिन गया। 
अब्बू
क्या गए अम्मी की घर में कोई क़ीमत न रह गई। 
अब्बू
क्या गए उनका मान-सम्मान चला गया।  
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 2 
अपने
कमरे में दीवान पर तकिए के सहारा लेकर बैठी अम्मी, बच्चों की 
खुदगजऱ्ी
भरी बातें सुन रही हैं। 
उनके
दाहिने कंधे का दर्द उभर आया है। 
अम्मी
ने जब अब्बू के इंतेकाल की ख़बर सुनी, बेहोष गिर पड़ी थीं। उसी
से
कंधे पर अंदरूनी चोट आ गई है। यदि कंधों की अच्छे से मालिष हो 
जाए
तो कुछ राहत मिले। कंधे को हाथ से टटोलने पर ऐसा लगता है कि 
जोड़
से कंधा उखड़ गया है। काॅलर-बोन कुछ उठ सी गई है। उन्हें 
हड्डी
के डाॅक्टर के पास ले जाना चाहिए था। उनका इलाज कराना था। 
दर्द
कभी इतना अधिक बढ़ जाता है कि जान ही निकलने लगती है। 
अपने
हाथों से वे कंधा सहलाते रहती हैं। लेकिन इस घर में किसे फुर्सत 
है
कि उनके दुख-दर्द देखे। सभी अपने में मगन हैं। उखड़े-उखड़े और 
व्यस्त।
घर में घुसते ही सबके माथे पर तनाव की लकीरें घर बना लेती 
हैं।  
अब
अपना दर्द वे किसे बताएं। उनकी छोटी-छोटी जि़दों पर अपनी जान 
न्योछावर
करने वाला तो अल्ला को प्यारा हो गया।  
अब्बू
को याद कर वह रोने लगीं। 
इतनी
लाचार, इतनी बेबस वह कभी न थीं।
अम्मी यही सोचा करतीं कि 
षौहर
के बिना बाकी का जीवन क्या ऐसे ही गुज़रेगा? 
कोई
नहीं उनकी सुध लेने वाला।  
माना
कि घर में षोक है, लेकिन सल्लू बेटे की बेगम
को तो पता है कि 
सुबह
से अब तक उनकी तीन-चार चाय चल जाती थी।  
कैसे
दिन आए कि अभी तक एक भी चाय नसीब नहीं हुई है। 
किससे
कहें, कहीं कोई उल्टी-सीधी बात
न कह दे। 
जब
देखो तब सल्लू बेगम यही ताना देती कि अम्मी ज्यादा रोई नहीं।  
कल
रात मैके अपनी मां से फोन पर बहू बातें उन्होंने सुनी थीं-‘‘ऐसी 
हालत
में तो कितनी रो-रोके जान तक दे देती हैं। यहां तो बुढि़या रोई 
ही
नहीं।’’ 
उधर
दोनों बेटे खामखां की व्यस्तता दिखा कर साबित करते हैं कि वे 
कितने
परेषान हैं।  
सल्लू
जब भी घर में घुसता है चेहरा लटका रहता है। उसके जिस्म से 
सिगरेट
की बू आती है और मंुह में गुटका दबा रहता है। 
बाहर
वाले कमरे में मौलवी साहब कुरान-षरीफ़ की तिलावत कर रहे हैं।   
हर
दिन एक पारा (अध्याय) खत्म होता है।  
मौलवी
साहब जब कुरआन पढ़ लेते हैं तो उन्हें एक टाईम का खाना 
खिलाना
पड़ता है।  
पूरे
चालीस दिन ये क्रम चलेगा। 
सल्लू
की बेगम की भुनभुनाहट रसोई-घर से अम्मी के कमरे तक आ रही 
है-‘‘पता नहीं ये कहां का जहालत
भरा रिवाज़ है। हमारे यहां तो ऐसा 
नहीं
होता कि घर में बाहर से मौलवी आकर चहल्लुम तक तिलावत करे। 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 3 
अरे, घर में सभी पढ़े-लिखे हैं, तिलावत तो खुद करना चाहिए।
फालतू में 
पैसे
बरबाद हो रहे हैं। उस पर तुर्रा ये कि मौलवी साहब को खाना भी 
खिलाओ।
मुर्गा-मछली नहीं तो कम से कम अण्डे तो होना ही चाहिए।’’ 
सल्लू
भी उसकी हां मंे हां मिलाते।  
उसकी
बेगम का नखरा दोगुना हो जाता-‘‘अम्मी
पड़े-पड़े क्या करती 
रहती
हैं? उन्हें नमाज़ अदा करनी
चाहिए, कुरआन-पाक की तिलावत 
करनी
चाहिए और तस्बीहात पढ़नी चाहिए।’’ 
अम्मी
सब सुना करतीं। 
उनकी
दोनों आंखों में मोतियाबिंद का आपरेषन हुआ है। मोटे षीषे के 
कारण
चष्मा कितना भारी है। बिना चष्मे के चीज़ें धुंधली दिखलाई देती 
हैं।
अम्मी पुराने दिन याद करने लगीं जब वह क्रोषिए और एम्ब्रायडरी का 
षौक
रखती थीं। इतनी बारीक से बारीक डिज़ाईनें काढ़ा करतीं कि देखने 
वाला
दांतों तले उंगली दबा ले। स्वेटर बुना करती थीं। 
मुहल्ले
की औरतें और लड़कियां उनसे कढ़ाई-बुनाई सीखने आया करती 
थीं।
तब वे किसी से कहतीं कि बिटिया ज़रा दाल चढ़ा दो। कोई लड़की 
सब्जि़यां
काट देती। सब उन्हें आंटीजी कहा करती थीं। 
मनोरमा, सरिता के बुनाई विषेषांक वह खरीदा करतीं। आज भी उनकी 
एक
आलमारी उन किताबों से भरी हुई है। 
आज
बच्चे इतने समझदार हो गए कि ताना देते है कि अम्मी इतना टीवी 
क्यों
देखती हैं। ज्यादा टीवी देखना आंखों के लिए ठीक नहीं।  
उनकी
जि़न्दगी की रोषनी को नज़र लग गई। चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा 
छा
गया है। 
उनके
दो बेटे और एक बेटी है। 
सलाम
उर्फ सल्लू, गुलाम उर्फ गुल्लू और
बेटी जूही। 
जूही
अपने मियां जाहिद के साथ दुबई मंे रहती है। 
एक-दो
दिन मंे वे लोग आने वाले हैं।  
अम्मी
को जूही का बेताबी से इंतज़ार था।  
सल्लू
और गुल्लू ने मौत-मिट्टी का सारा इंतेज़ाम किया था। वे नहीं 
करते
तो कौन करता? ऐसे मामलात में ग़ैर दिलचस्पी
लेते हैं।  
अरे, ये तो इनका फ़जऱ् था, फिर सल्लू-गुल्लू एहसान
का बोझ काहे 
लादते
हैं इस बेवा पर। 
उनके
सामने आने पर ये नालायक ऐसा ज़ाहिर करते हैं कि जैसे अब्बू के 
बाद
सारी जि़म्मेदारी उनके कंधे पर हो। ये न होते तो पत्ता भी न 
खड़कता।
सल्लू
और उसकी बेगम ने घर का प्रबंध अपने हाथ ले लिया है। 
सारा
घर उनके हाथों की कठपुतली बना हुआ है। कामवाली कमरून तो 
रोकर
गई कि आप लोगों का मुंह देख कर चली आती हूं। यदि आपकी 
बड़ी
बहू रह गई तो जान लीजिए, इलाके में नौकरानी के
लिए तरस 
जाईएगा।
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 4 
सल्लू
की बेगम द्वारा एक से बढ़कर एक तुगलकी फ़रमान जारी हो रहे 
हैं।
अम्मी
ने सोचा कि चलो अल्लाह पाक परवरदिगार के रहमोकरम से 
जनाजे
का काम तो ठीक-ठाक ढंग से निपट गया। अच्छा हुआ अब्बू के 
दोस्त
वदूद भाई आ गए थे।  
सल्लू
के अब्बू की लाष के सिरहाने बैठकर कितना फूट-फूट कर रोए थे 
वदूद
भाई।  
‘‘ऐसे कैसे चले गए भाई....!’’ 
वदूद
भाई का रोना-कलपना देख पूरा माहौल गमगीन हो गया। 
उस
दिन हिचकियों, सिसकियों और छाती पीट-पीट
कर मातम करने का 
कोई
अंत न था। 
उन्हीं
वदूद चचा के अहसानात, सल्लू और गुल्लू कैसे
भुला सकते हैं।  
ये
नामुराद बच्चे कितने एहसान-फरामोष हो गए हैं। 
अपने
वदूद चचा की भी इज़्ज़त अब नहीं करते।  
वदूद
चचा ने कहा था कि बच्चों ठण्ड रखो, इस तरह हड़बड़ाओ मत। 
पहले
राजी-खुषी ‘चहल्लुम’ तो निपट जाने दो। 
बिरादरी
और गांव-घर के लोग चहल्लुम का खाना खाकर विदा हो लें, 
फिर
किसी किस्म के हिस्सा-बंटवारे का मसला उठाना तुम लोग। 
अम्मी
ने उनकी बात का समर्थन किया था। 
सल्लू
उस समय तो कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके जाने के बाद
अम्मी पर 
बरस
पड़े।  
‘‘जाने कहां से आ जाते हैं
फटे में टांग घुसेड़ने वाले।’’ 
अम्मी
ने विरोध किया था--‘‘ऐसे
नहीं बोलते बेटा। तुम्हारे अब्बू के दोस्त 
हैं।
इस घर के लिए उनके दिल में हमदर्दी है। तुम लोगों की 
पढ़ाई-लिखाई
में जब कभी तंगी होती थी, वदूद भाई ही काम आते थे।
उनके
हम सब पर एहसानात हैं बेटा।’’ 
सल्लू
कहां मानने वाले। बस, बेवजह बड़बड़ाते रहे।
अम्मी
सब तरफ से टूट चुकी थीं। वे जूही की बाट जोह रही हैं। 
ऽ   
पता
नहीं कि ये षाम की सुरमई अंधियारा है या अम्मी के मन में उदासी 
के
काले-घनेरे बादल।  
अम्मी
ने उठकर ट्यूब-लाईट आॅन की।  
कमरा
दूधिया रोषनी से नहा गया।  
अम्मी
बड़बड़ाईं कि बताओ, अब तक किसी ने चाय भी
न पूछी। वे बहू से 
चाय
मांगे तो मांगें कैसे? बहू को स्वयं सोचना चाहिए
कि अम्मी के चाय 
का
वक्त निकल रहा है। थोड़ी ही देर में मग़रिब की अज़ान की आवाज़ 
आ
जाएगी। फिर कहां चाय-पानी? 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 5 
अम्मी
ने सोचा कि खुद किचन जाकर चाय बना लें।  
वह
उठीं और जैसे ही दरवाज़े तक गई थीं कि बीच वाले कमरे से सल्लू 
की
आवाज़ सुनाई दी। 
बहू
सलमा कह रही थी-‘‘बुढ़ऊ तो रहे नहीं, कौन पढ़ेगा अब ये हिन्दी 
अखबार।
फालतू बिल भरना पड़ेगा। कल जब हाॅकर आए तो उसे अख़बार 
बंद
करने को कह देना।’’ 
अम्मी
के क़दम ठिठक गए। दरवाज़े की चैखट थाम वह खड़ी हो गईं। 
उन्हें
याद आ रहा था कि हाॅकर जब अख़बार फेंक कर जाता तो उसे 
पहले-पहल
अब्बू ही पढ़ते। जब तक अब्बू सरसरी निगाह से अख़बार के 
पन्ने
पलट न लेते, किसी अन्य को अख़बार मिल
न पाता। सल्लू अख़बार 
खाली
होने का इंतेज़ार कितनी बेसब्री से करता था। जैसे कहीं अब्बू 
अखबार
में छपी खबरों को पढ़कर बासी न कर दें।  
अब्बू
रात दस बजे तक उस अख़बार को कई किष्तों में पढ़ते थे। 
वही
सल्लू आज कितना बड़ा आदमी हो गया है कि उस अखबार के लिए 
उसके
दिल में कितनी नफ़रत है।  
अम्मी
जानती हैं कि सल्लू की बीवी सलमा केवल हिन्दी पढ़ना जानती 
थी।
अंग्रेजी उसे आती न थी। समधी साहब ने अच्छा झांसा दिया था कि 
बेटी
उर्दू-अरबी में निपुण है। सलमा जब से घर आई, हिन्दी अखबार 
ज़रूर
पढ़ती। जुमेरात के दिन महिलाओं के लिए अलग से एक पत्रिका 
आती।
सलमा उसे सम्भाल कर रखती थी। 
आज
वही सलमा कह रही थी कि अब्बू नहीं तो कौन पढ़ेगा ये मुआ हिन्दी 
अखबार।
बन्द करा देने से ही ठीक रहेगा, वरना फालतू बिल कौन भरेगा!
अम्मी
सब सुन रही थीं। 
षौहर
के क़ब्र की मिट्टी अभी ढंग से सूखी भी नहीं है। 
अरे, उन्हें पर्दा किए चार दिन तो हुए हैं।  
अभी
तो तीजा निपटा है।  
पता
नहीं ये नालायक औलादें ‘चहल्लुम’ कर पाएंगी या नही... 
वैसे
भी सल्लू की बेगम तीजा-चालीसवां आदि को ढकोसला कहती है। 
कहती
है कि ये तो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के मुसलमानों की जहालत 
की
निषानी है। इस्लाम में इन दिखावों की क्या ज़रूरत?  
बेवा
के लिए भी खान-पान, पहनावा और बाहर निकलने
के नाम पर बहुत 
सी
पाबंदियां हैं।  
इद्दत
की अवधि (तीन मासिक धर्म का अंतराल) तक बेवा को घर से 
बाहर
निकलने की इजाज़त नहीं है। ख़ानदानी लोगों में तो इन रिवायतों 
का
कड़ाई से पालन होता है। 
अल्लाह
पाक-परवरदिगार नासमझ बच्चों को माफ़ करे, जो बिना 
जाने-बूझे
उल्टा-सीधा बोलते रहते हैं। 
अब्बू
का चहल्लुम तो करना ही होगा। 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 6 
बिना
‘चहल्लुम’ किए उनकी रूह को कहां सुकून मिलेगा। उनकी रूह 
भटकती
रहेगी।  
ऽ   
अम्मी
की इस समय जो हालत है उसे जूही बिटिया के अलावा अन्य कोई 
नहीं
समझ सकता। यदि जूही न आई होती तो सम्भवतः अम्मी को 
मेंटल-हाॅस्पीटल
में भरती कराना पड़ता।  
खुदा
का लाख-लाख षुक्र कि जूही आ गई। 
जूही
‘पेट-पोछनी’ है। अम्मी-अब्बू की आखि़री औलाद। अम्मी और जूही 
दो
सहेलियों की तरह रहा करती थीं। जूही अम्मी की मरज़ी के बग़ैर कोई 
क़दम
न उठाती। षादी के पहले जूही अम्मी की खूब खिदमत किया करती 
थी।
षादी के बाद कहां आ पाती है जूही....इतनी दूर जो चली गई है। 
आज
भी अगर अम्मी का सिर खुजलाता तो वे बड़ी षिद्दत से जूही को 
याद
करती हैं। जूही अपनी उंगलियों तेल मंे भिगो कर बाल की जड़ों में 
मालिष
कर देती। अम्मी का सिर एकदम हल्का हो जाता।  
जूही
के आने से अम्मी के दिल में क़ैद दुखों का ज्वालामुखी फट पड़ा। 
उसके
गले लगकर खूब रोईं थीं अम्मी।  
लगा
कि जैसे तटबंधों को तोड़ हरहराकर बह रहा हो जल। जैसे फट पड़े 
हों
पानी से लदे काले बादल। ऐसी बारिष जिसमें धुल गई धरती पर जमी 
धूल-गर्द।
नहा लिए फौव्वारे की तेज़ धार से जंगल के पेड़-पौधे। और 
पत्तियों
ने खुद को हल्का किया महसूस। 
अब्बू
की जुदाई का सदमा कुछ कम हुआ।  
सलमा
बहू इतनी आवाज़ में भुनभुनाती कि लोग चाहें तो सुन भी लें और 
चाहें
तो नज़रअंदाज़ कर दें-‘‘आ
गई हमदर्द, हम लोगों को जल्लाद 
समझती
है बुढि़या।’’ 
अम्मी
ने उसकी बात पर ध्यान न दिया। 
जूही
के आने के बाद अम्मी ने धीरे-धीरे हालात समझने की कोषिष की। 
उन्होंने
जाना कि रो-रोकर जि़न्दगी तबाह करने से बेहतर है मरहूम षौहर 
को
खिराजे-अक़ीदत के तौर पर पहले खुद को सम्भाला जाए और फिर 
कमान
अपने हाथ में ली जाए....इसके अलावा कोई चारा नहीं!  
जूही
ने आकर उन्हें टूटने से बचा लिया। 
जूही
के मियां जाहिद बेहद संजीदा षख़्स हैं।  
सिसकियों
के बीच अम्मी, जूही को अब्बू की बीमारी, उनका हास्पीटल में 
भरती
होना, उनकी मृत्यु और फिर उसके
बाद के हालात तफ़सील से 
जाहिद
और जूही को बता रही थीं। 
जूही
की बेटी रूही बड़ी पिन्नी है। किसी को नहीं पहचानती। दूर दुबई में 
अकेले
रहकर ऐसी हो गई है वह। सिर्फ अपने मम्मी-पापा भर को 
पहचानती
है। जूही को अम्मी के पास मषगूल देख जाहिद बच्ची को 
इधर-उधर
टहलाते रहते हैं। 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 7 
सावन
के आखिरी दिन हैं। भादों चढ़ने वाला है। बारिष है कि रूकने का 
नाम
नहीं ले रही। ठीक अम्मी के मन के हालात जैसा भीगा-भीगा है 
मौसम।
सूरज निकलता है और न धूप की सेंक-नुमा उम्मीद नज़र आती 
है।
माहौल बेहद किचकिचा और मुसमुसा हो गया है। उनके मन की 
हालत
इस मौसम से कितनी मिलती-जुलती है।  
फि़ज़ा
में इतनी मनहूसियत छा गई है कि अम्मी को बुखार-बुखार सा लग 
रहा
है। बदन टूट रहा है। ऐंठन सी है जोड़-जोड़ में। इधर घर से 
निकलना
भी बंद है। षुगर की मात्रा बढ़ने पर ऐसा होता है। दवाई भी 
खत्म
है। किससे कहें कि दवा ला दो। सभी इधर-उधर चाहे जिस मूड में 
रहें, उनके पास आते हैं तो माथा चढ़ा कर। जैसे अब्बू के बाद सारा बोझ
उनके
कंधे आ गया हो। 
अम्मी
अलस्सुबह फ़जिर की नमाज़ पढ़ कर कचहरी रोड पर टहला करती 
थीं।  इस सड़क पर सुबह मोटर-गाडि़यां नहीं चलतीं। इससे
उनका 
ब्लड-प्रेषर
और षुगर नियंत्रित रहता था।  
अब्बू
की मौत, सुनामी लहरें बनकर उनके
जीवन को तहस-नहस कर 
गईं।
जूही
ने उनका माथे पर हाथ रखा तो हरारत महसूस की। उसने अपने 
बैग
में रखी दवाईयों की किट से निमूसलाईड की एक गोली निकालकर 
अम्मी
को दी। बिना चीनी की चाय के साथ अम्मी ने गोली खाई। 
अम्मी
ने दवा खाकर फिर आंखें नम कीं-‘‘अल्लाह
तआला मुझे भी उठा 
लेता
तो....अब कौन करेगा मेरी देखभाल जूही!’’  
जूही
ने अम्मी को डांटा-‘‘आप
ज्यादा सोचा न करिए अम्मी! अब्बू की रूह 
को
तकलीफ़ पहुंचेगी।’’ 
जूही
जानती है कि अब्बू के बाद इस घर में इतना तनाव क्यों है? क्यों 
लोग
एक-दूसरे से दिल खोलकर बातें नहीं करते। सल्लू भाई तो अच्छी 
नौकरी
में हैं। माषाअल्लाह बढि़या कमाते हैं। नई अल्टो के मालिक हैं। 
बच्चे
इंग्लिष मीडियम पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। रायपुर के गांधी-नगर में 
अपना
एक फ्लेट किष्तों में लिया है। फिर किसलिए ये चिक-चिक। अरे, 
कितना
खर्च उठा रहे हैं कि उसकी धौंस अम्मी सहें।  
जूही
को ये भी बुरा लगा कि उसके षौहर जाहिद की कोई फि़क्र नहीं कर 
रहा
है। अरे, घर के इकलौते दामाद हैं।
अब्बू रहते तो खि़दमत में कोई 
कसर
न छोड़ते। जाहिद अपने दोस्तों के बीच बड़ी षान से अपने ससुर 
साहब
की बड़ाई बतलाते नहीं थकते कि उनके ससुर साहब अपने दामाद 
की
इतनी खिदमत करते हैं कि षर्म आने लगती है। दामाद के आगे-पीछे 
डोलते
रहेंगे अब्बू। दामाद बाबू को कोई तकलीफ़ न हो। कोई असुविधा न 
हो।
आज जाहिद ने उनकी कमी ज़रूर महसूस की होगी, जब दोपहर के 
खाने
में दाल-चावल और आलू की भुजिया खाए होंगे। वरना गोष्त, 
मछली
या अण्डे के बगैर खाना परोसा ही नहीं जाता था। अब्बू खु़द थैला 
लेकर
मीट-मछली लेने जाते थे। 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 8 
अब
किसे चिन्ता है उनकी? 
यही
हालात रहे तो आइंदा अपना खर्च करके इस घर में कौन आएगा! 
सल्लू
भाई की बीवी हैं तो किसी से सीधे मुंह बात नहीं करतीं। सुबह ही 
जूही
ने पूछा था कि भाभी दुपहर मंे क्या बनेगा?  
तब
भाभी ने चिढ़कर जवाब दिया था-‘‘बिरयानी
का जुगाड़ नहीं, जो होगा 
वो
पकेगा।’’  
वाकई, ये तो हद है। जूही ने तड़ाक से जवाब दे मारा था-‘‘बिरयानी की 
नहीं
मुहब्बत की भूखी है।’’ 
पता
नहीं सल्लू भाई को नमक-मिर्च लगाकर जैसा न कान भरी हों भाभी। 
जबकि
जब भी जूही इंडिया आई, इन सभी के लिए कुछ न कुछ
गिफ्ट 
ज़रूर
लेकर आई है। सेंट, साबुन, क्रीम, मेकअप का सामान, चाकलेट, 
सूखे
मेवे आदि अन्य छोटी-मोटी चीज़ें। वापस लौटते हुए कोई नहीं पूछता 
कि
जूही को भी तो कुछ गिफ्ट चाहिए। मुम्बई से वह कई तरह के अचार 
खरीदकर
ले जाती।  
जाहिद
बेहद प्यारे इंसान हैं। इंडिया के हरेक रिष्तेदार के लिए कुछ न 
कुछ
ज़रूर खरीद लाएंगे।  
जूही
ने देखा कि अम्मी के कमरे में भाभी बहुत कम आती हैं। हाल-चाल 
पूछना
तो दूर, कोई लिहाज नहीं अम्मी
का इस घर में। बस, दो रोटी 
लाकर
सामने रख दी। कोई खाए न खाए, कोई जिए या मरे अपनी बला
से।
जूही
के आने के बाद भाभी ने अम्मी के कमरे में आना छोड़ दिया है।  
लेकिन
कमरे के सामने से गुज़रते हुए भाभी की नज़रें कमरे मुअ़ायना 
करती
हैं। कभी जूही को लगता कि भाभी आड़ लेकर कमरे के अंदर की 
बातें
तो नहीं सुनतीं।  
जाने
क्यों इंसान ऐसा हो जाता है। ये सब सल्लू भाई की कमी है।  
अब्बू
के जाने के बाद घर मनहूसियत और वीरानी का डेरा है।  
जूही
अम्मी के दुख-दर्द सुनती और थोड़ा भी फुर्सत पाती तो तस्बीहात 
पढ़ती।
उसे एक लाख बार पहला कलमा ‘लाइलाह
इल्लल्लाह, मुहम्मदुर 
रसूलल्लाह’ पढ़ना है। कम से कम एक बार कुरआन-पाक खत्म करनी 
है।  
अब्बू
के चहल्लुम के दिन इन्हें बख़्षवाना है कि इसका ईसाले-सवाब अब्बू 
की
रूह तक पहुंचे।  
ऽ   
जब
तक जूही न आई थी अम्मी अपने कमरे में तन्हा बैठे-बैठे चुपचाप 
रोया
करतीं और सोचतीं कि वे कितनी अकेली हो गई हैं। जिस खूंटे के 
बल
पर उचका करती थीं, अब उस खूंटे का आसरा भी
नहीं। अगर आज 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 9 
बहू-बेटे
की निगाह बदली है तो उसमें किसी का कुसूर नहीं बल्कि ये तो 
उनकी
बदनसीबी है। वे अल्लाह से बच्चों की सलामती की दुआ करतीं। 
कभी
सोचतीं कि असल गुनहगार तो वे स्वयं हैं, तभी तो अल्लाह ने उन्हें
बेवा
होने की सज़ा दी है। एक औरत की जि़न्दगी में इससे बड़ा अज़ाब 
और
क्या हो सकता है? 
सल्लू
की बेगम ने तो पता बड़ी-बूढि़यों की तरह ऐलान कर दिया कि 
अम्मी
अब इद्दत (तीन मासिक धर्म की अवधि) के समय तक कहीं 
आ-जा
नहीं सकतीं। उन्हें घर की चारदीवारी में ही रहना है।  
उन्हें
लगा कि सल्लू-गुल्लू की भी यही मंषा है कि वे इद्दत की अवधि 
तक
घर की चारदीवारी में क़ैद रहें।  
जूही
के मामू और मुमानी ने भी अम्मी को यही हिदायत दी थी कि इद्दत 
का
एहतराम ज़रूरी है। 
अब्बू
बीमार होने से पूर्व बैंक से तीस हज़ार रूपए निकाल कर लाए थे। 
गुल्लू
के लिए रेडी-मेड कपड़ों की एक दुकान डाली जा रही है। कारपेंटर 
के
लिए वे रूपए निकाले गए थे। रूपए अपनी आलमारी के अंदर एक 
ब्रीफकेस
में वह रखा करते थे। जिसमें ज़रूरी काग़ज़ात भी रहते।  
अस्पताल
ले जाते समय उन्होंने उस ब्रीफकेस की चाभी अम्मी के हाथों में 
दी
थी। सल्लू भाई ने उनसे दवा वगैरा के लिए पांच हजार रूपए मांगे 
थे।
अम्मी ने सल्लू को ब्रीफकेस की चाभी दे दी थी। फिर उसके बाद वह 
चाभी
उन्हें मिली नहीं।   
अब्बू
की मौत के बाद तीजा के दिन तो अम्मी को होष आया। जब अम्मी 
ने
अब्बू की आलमारी खोली तो उसमें ब्रीफकेस नहीं थी। 
अम्मी
ने सल्लू से पूछा तो वह नाराज़ हो गया। 
‘‘आप मुझपे षक करती हैं।
क्या मैं चोर हूं। खुद को होष नहीं था, चारों 
तरफ
पैसे का खेला चला। मुझे क्या हिसाब देना पड़ेगा? कहां से हो रहा 
है
इतना ताम-झाम। अब तक मैं अपने तीस हज़ार भी फूंक चुका हूं। 
उसकी
फि़क्र है किसी को?’’ 
सल्लू
की बीवी भी लड़ने आ गई थी। 
अम्मी
जूही को सब बातें बता रही थीं।   
बताया-‘‘अच्छा हुआ तेरे अब्बू
चले गए। वरना ऐसे नालायकों के रहते 
उनकी
अस्पताल में देख-भाल कहां हो पाती? मुझसे तो कुछ हो न पाता, 
दुनियाभर
की बीमारी जो ढो रही हूं मैं।’’ 
सल्लू
और गुल्लू पारी-पारी अस्पताल आते-जाते थे। 
सल्लू
की बेगम बन-ठन के सिर्फ एक बार अस्पताल आई थी। 
डाॅक्टर
परमार अच्छे आदमी हैं। जब अम्मी ने उनसे पूछा था कि न 
सम्भल
रहे हों तो बता दें, उन्हें कहीं बाहर ले दिखा
दिया जाएगा। तब 
डाॅक्टर
परमार ने कहा था-‘‘ब्रेन-स्ट्रोक्स
का काम्प्लीकेटेड केस है। पहले 
3स्टेबलाईज़ हो जाएं फिर
कुछ कहा जा सकता है। इस हालत में इन्हें 
कहां
ले जाएंगी आप?’’ 
आईसीयू
में किसी को भी जाने की इजाज़त न थी। अम्मी को भी नहीं। 
हां, सल्लू चाहता तो जुगाड़ बना लेता था। लेकिन वह हास्पीटल में रहता
कितनी
देर था। गुल्लू और अम्मी तो आईसीयू के सामने लगी कुर्सियों पर 
बैठे
रहते। वहां हमेषा दर्जन भर लोग रहते, लेकिन उस गैलरी में डरावना
सा
सन्नाटा छाया रहता। 
ड्यूटी-नर्सें
बड़ी कड़क थीं। अम्मी के आंसू थमते नहीं थे, तब अब्बू के 
दोस्त
वदूद भाई ने डाॅक्टर परमार से प्रार्थना की थी-‘‘कम से कम इन्हें 
एक
बार अंदर जाकर मरीज़ को देखने की परमीषन दीजिए डाक्साब ?’’ 
डाॅक्टर
परमार नर्स को बुलवाया और पांच मिनट के लिए अंदर जाने की 
इजाज़त
दी।  
नंगे
पांव वे सिस्टर के पीछे-पीछे कांच के दरवाज़े खोल आईसीयू पहंुचे। 
अंदर
भी कांच के पार्टीषन से कमरे जैसे बने हुए थे। उनमें कई बिस्तर 
लगे
थे। एक आया एक मरीज़ को ब्रेड-दूध खिला रही थी। सभी मरीज़ 
जिन्दगी
और मौत के दरम्यान लड़ी जा रही जंग से रूबरू थे। बाईं ओर 
चैथे
बेड पर अब्बू थे। उनकी आंखें बंद थीं। मुंह से अजीब आवाज़ें आ 
रही
थीं। बाईं कलाई पर स्लाईन लगा था। नाक में पाईप डाली हुई थी।  
उनकी
आंखें खुलीं। 
अम्मी
और वदूद भाई ने इषारे से सलाम किया। 
अब्बू
ने सिर की हल्की जुंबिष देकर सलाम का जवाब दिया। 
उनके
चेहरे पर दर्द की रेखाओं का जाल बिछा था। उनकी तकलीफ़ देख 
अम्मी
का कंठ भर आया। आंचल के पल्लू से उन्होंने अपनी रूलाई रोकी। 
अब्बू
ने कुछ कहना चाहा था। 
उनके
मुंह से खर्र...खर्र जैसी कुछ अर्थहीन आवाज़ें निकलीं। 
सिस्टर
की आवाज़ गूंजी-‘‘चलिए, टाईम हो गया।’’ 
वदूद
भाई तो अब्बू को सलाम करके वापस हो लिए किन्तु अम्मी डटी 
रहीं।
सिस्टर से कहा-‘‘षायद प्यासे हैं।’’ 
सिस्टर
भड़क उठी-‘‘यहां पेषेंट का पूरा केयर
होता है। आप अब बाहर 
जाएं।’’ 
अम्मी
ने जैसे सुना नहीं। उन्होंने सिस्टर को घूर कर देखा। 
सिस्टर
ने कहा-‘‘आपके रहने से इंफेक्षन
का खतरा है। इसीलिए किसी 
को
यहां आने का परमीषन नहीं है।’’ अम्मी ने देखा कि अब्बू
की आंखों में 
इस
क़ैद से आज़ाद होने की चाहत है। 
उन्होंने
अब्बू के पैर सहलाए और भारी मन से वापस हुईं। 
उसके
बाद फिर अब्बू से कहां मुलाकात हो पाई थी। 
आईसीयू
के बाहर घड़ी मंे वक्त कम लोग देखते हैं। सभी एक-एक पल 
को
एक युग की तरह गुज़रते महसूस करते हैं। न जाने किसके प्रियजन 
के
बारे में कैसी खबर अंदर से आ जाए। एक बात तय थी कि बहुत कम 
लोग
अंदर से ठीक होकर निकलते हैं।  
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 11 
जिनके
केस आगे इलाज के लिए ‘रिफर’ हुए या जिन्हें अब आईसीयू के 
जगह
जनरल वार्ड की ज़रूरत है या जो जंग हार गए, उनके जिस्म ही 
बाहर
निकल पाते हैं। 
अब्बू
पूरे साठ घण्टे आईसीयू में जीवित रहे। 
अच्छा
हुआ इससे ज्यादा वह नहीं जिए, वरना उनकी देख-भाल कौन
करता।
अरे, इन गै़र- जि़म्मेदार बच्चों
के भरोसे रहते तो डूब जाते। हां, 
अम्मी
को भी अब्बू के बेड के बगल में ज़रूर भर्ती कराना पड़ सकता था। 
वदूद
भाई ने जूही को राज़ की बात बताई थी। जब अब्बू आईसीयू में थे, 
सल्लू
ने रातें घर में बीवी-बच्चों के संग बिताई थीं। 
अब्बू
की बीमारी की ख़बर सुन जब वदूद भाई सुबह दस बजे घर आए थे 
तो
बाल्कनी में सल्लू को लुंगी-बनियान में ब्रष करते पाया था--‘‘बताओ 
बिटिया, जिसके अब्बू आईसीयू में मौत से जंग लड़ रहे हों, उसका बेटा 
दस
बजे इत्मीनान से घर की बाल्कनी में खड़े-खड़े ब्रष करता रहेगा?’’ 
जूही
क्या जवाब देती। उसे सल्लू भाई से ऐसी उम्मीद न थी। अब्बू ने 
जीवन-भर
बच्चों को कोई तकलीफ़ न दी। उनसे कभी खि़दमत न 
करवाई
थी। इसीलिए षायद उन्होंने मलकुल-मौत (यमदूत) से दरख़्वास्त 
की
होगी कि आकर उन्हें उठा ले जाएं। 
उस
समय अम्मी का हमदर्द कोई न था, जो उनके पास कोई आकर 
बैठता।
उन्हें सांत्वना देता। 
अब्बू
की मौत के बाद सल्लू ही अम्मी के पास आते और हर बार 
रूपए-पैसे
की बात करते।  
यहां
इतना खर्च हुआ वहां इतना। आपने जो तीस हज़ार रूपए दिए थे, 
वह
खत्म हो गए। सल्लू कहते कि वह स्वयं अपनेे दस हज़ार रूपए अब 
तक
लगा चुके हैं। उनके पास भी अब पैसे नहीं हैं। अभी तो सारा काम 
बचा
है।  
अम्मी
के एकाउंट के पचास हज़ार रूपए पर सल्लू की नज़र है। 
तभी
तो बेटा-बहू आपस में सिर जोड़कर गुंताड़ा भिड़ाते रहते और पैसों 
का
रोना रोते। बहू ने तो यहां तक कह दिया था कि अम्मी अपने भाईयों 
से
क्यों नहीं कुछ मांगतीं। आखि़र किस दिन काम आएंगे वे। सल्लू की 
बेगम
ने तो यहां तक कहा कि अम्मी के माईके वाले रिष्तेदार गै़रों की 
तरह
मिट्टी में षरीक हुए और मसरूफि़यात का बहाना बनाकर फूट लिए। 
बड़े
अच्छे रिष्तेदार हैं सब। 
जूही
आने वाली है, तो उससे भी मदद मांगी
जाए। जूही जब भी इंडिया 
आती
है कितना बटोर कर ले तो जाती है। सिर्फ सल्लू की जिम्मेदारी नहीं 
है
ये। 
बस, ऐसी ज़हर भरी बातें सुनकर अम्मी का बीपी बढ़ जाता और 
डायबिटिक
तो वह थीं हीं। हाथ-पैर सुन्न हो जाते और लाचार होकर 
बिस्तर
पकड़ लेतीं।  
 ऽ  
अम्मी
को अपने छोटे भाई पर भी गुस्सा आया जिसने बहू के सामने अपने 
मरहूम
जीजा की रईसी का क़सीदा पढ़ते हुए कहा था कि उनका चहल्लुम 
थोड़ा
धूम-धाम से मनाया जाए। षहर के लोग याद करें कि चहल्लुम 
किसी
ऐरे-गैरे का नहीं। मरहूम को अल्लाह ने भरपूर दौलत से नवाज़ा 
था।
यही
बात सल्लू के चच्चा यानी उनके देवर भी कह गए थे कि चहल्लुम में 
छत्तीसगढि़या-स्टाईल
में काम नहीं होगा कि मेहमानों को एक बोटी 
खिला
कर टरका दिया। 
षानदार
बिरयानी बननी चाहिए। भाईजान-मरहूम को बिरयानी बहुत पसंद 
थी।
साथ में रायता और मंूग का हलवा हो तो क्या कहने। 
अब्बू
ज़ाएकेदार मुगलिया खाना पसंद करते थे।  
सब्जि़यां
चाहे जान डाल कर बनाओ उन्हें पसंद न आतीं। हां, गोष्त के 
साथ
आलू, लौकी या बरबट्टी आदि उन्हें
पसंद आती थी। कीमा-मटर वे 
षौक
से खाते। कुछ न हो तो फिर दूध में खूब सारी चीनी डालकर रोटियां 
खाते
और आमलेट बनने पर उसे पराठे में लपेटकर एग-रोल जैसा बना 
लेते
और फिर दांतों से काट-काट कर इत्मीनान से टीवी देखते हुए खा 
लिया
करते।  
अब्बू
सिंचाई विभाग मंे इंजीनियर हुआ करते थे। लोग कहते हैं कि वे बड़े 
ईमानदार
इंसान थे। ठेकेदारों का काम ऐसे ही कर दिया करते थे।  
अब्बू
को रिटायर हुए मात्र तीन साल हुए थे। सिंचाई विभाग में अब्बू की 
स्मृति
सुरक्षित थी। इसलिए अब्बू के जनाज़े में उनके ‘कलीग’ बड़ी तादाद 
में
षरीक हुए थे। 
चहल्लुम
में उन्हें यदि याद किया गया तो उनके लिए षाकाहारी व्यवस्था 
अलग
से करनी होगी। 
सल्लू
चहल्लुम के लिए कार्ड छपवाना चाहते हैं। उसे कूरियर के ज़रिए 
लोगों
तक पहंुचाया जाएगा।  
बस, मसला रूपईयों का था।  
सल्लू
जब भी घर आते अम्मी को रूपयों की ज़रूरत का एहसास दिलाकर 
टेंषन
में डाल देते। 
कभी
कहते टेंट वाले को एडवांस देना होगा। 
यतीमखाने
के बच्चांे और मौलवियों को बुलाया जाए तो संख्या सौ तक 
पहुंच
जाएगी। उसके बाद रिष्तेदार और परिचित आदि मिला कर तकरीबन 
चार
सौ आंकड़ा बनेगा।  पड़ोस की हज्जन बूबू के चहल्लुम
में तो हजारों 
लोगों
ने खाना खाया था। 
इतने
आदमियों का खाना होगा तो कैटरर बुलवाना होगा। 
नान-वेज
के लिए हफ़ीज़ और वेज के लिए जोषी। 
लेकिन
मसला फिर उन्हीं रूपयांे के इर्द-गिर्द आकर अटक जाता। 
सबसे
बड़ा रूपइया... 
ऽ   
सुबह
मदीना-मस्जिद के पेष-इमाम क़ादरी साहब घर आए। सल्लू उस 
समय
घर पर न थे। बहू ही उनसे बात कर रही थीं। अम्मी क़ादरी साहब 
से
पर्दा न करती थीं। वह भी बैठकी में चली आईं। देखा कि बहू ने बुरा 
सा
मुंह बनाया और वहां से हट गई है।  
क़ादरी
साहब अम्मी को समझा रहे थे कि चहल्लुम तो आप हैसियत के 
मुताबिक
करिए ही, लेकिन सबसे बड़ा सवाब
तो उनके नाम से मस्जिद या 
मदरसा
में कोई बड़ा काम करवा देने में है। मस्जिद और मदरसा में पानी 
की
बड़ी समस्या है।  
आप
चाहें तो मरहूम के नाम पर इतनी रक़म ख़ैरात करें कि वहां एक 
बोरिंग
करवा दी जाए।  
अम्मी
को अच्छा लगा ये सुनकर कि ता-क़यामत उस बोरिंग के पानी से 
जाने
कितने नमाज़ी वज़ू करेंगे। कितने यतीम और प्यासे उस पानी से 
अपनी
प्यास बुझाएंगे। 
उन्होंने
जनाब क़ादरी साहब को आष्वस्त किया कि वे इस बारे में अपने 
सभी
बच्चों से मष्विरा करेंगी। 
अब्बू
एक तरक्कीपसंद इंसान थे। 
दुनिया
के तमाम मसलों पर वह ग़ौरो-फि़क्र किया करते थे। 
मुस्लिम
समाज की आपसी फि़रकेबाज़ी के वह खि़लाफ़ थे। उनकी समझ 
में
नहीं आता कि सही कौन है? 
षिया
हों या अपने को खांटी सुन्नी कहने वाले हों या देवबंदी मुसलमान 
जिन्हें
सुन्नी लोग वहाबी के नाम से पुकारते हैं। मज़ार-खानकाहों के 
दरवेष
हों या क़व्वाल-गवैये।  
अब्बू
सभी की इज़्ज़त किया करते थे। 
अब्बू
तबीयत से खै़रात-ज़कात अदा करते थे। 
अम्मी
जानती थीं कि उनके मरहूम षौहर पंचगाना नमाज़ी भले न हों मगर 
रमज़ान
माह के पूरे रोज़े रखते। जुमा की नमाज़ कभी वह देवबंदियों की 
मस्जिद
में अदा करते और कभी बरेलवियों की मस्जिद में। यही उनका 
सबसे
बड़ी ग़लती थी।  
अब्बू
के इंतेकाल के बाद उनको गुस्ल देने का मसला हो या जनाजे की 
नमाज़
पढ़ाने का, ऐसे मामलों पर यही जनाब
क़ादरी साहब ने सल्लू और 
गुल्लू
को नाको चने चबवाए थे। 
अम्मी
ने जब पेष इमाम क़ादरी की ख़्वाहिष बच्चों को बताई कि मस्जिद में 
बोरिंग
करवाने के लिए हमें अब्बू के नाम से खै़रात करना चाहिए, तो 
सल्लू
और गुल्लू भड़क उठे-‘‘जनाजे़
की नमाज़ पढ़ाने के लिए कितने 
नखरे
किए थे मियां कादरी ने। जैसे अब्बू मुसलमान न हों बल्कि कोई 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 14 
काफि़र
हों। पैसे उगाहने हों तो उन लोगों को सुन्नी-वहाबी नहीं सूझता!  
धर्म
के ठेकेदार, चोट्टे साले!’’ 
चूंकि
सल्लू और गुल्लू तब्लीगी-जमात में आते-जाते थे। देवबंदियों की 
मस्जिद
से तआल्लुकात रखते थे, इसलिए बरेलवी मौलाना क़ादरी
ख़फा 
होते
ही। 
वह
तो सुन्नी-कमेटी में षामिल, अब्बू के दोस्तों ने दखलअंदाजी
की, तब 
जाकर
मौलाना क़ादरी कफ़न-दफ़न में षिरकत के लिए राज़ी हुए।  
इसी
बात पर अम्मी ने सल्लू को समझाया कि क्या हुआ, मिजाज़ ख़राब 
क्यों
करते हो? 
तब
सल्लू बोले-‘‘मिजाज़ काहे न खराब हो।
आप अपने खाते से पैसे 
निकालेंगी
नहीं। हम अब्बू के किसी भी खाते से पैसा निकाल नहीं सकते। 
पैसे
आएं तो आएं कहां से। अब तक मेरा बैलेंस भी खर्च हो चुका है। 
बैंक-मैनेजर
स्साला पहले कहता था कि ‘डेथ-सर्टिफिकेट’ के साथ 
अप्लीकेषन
जमा होने पर काम बन जाएगा। आज इतने दिन की 
भाग-दौड़
के बाद जब डेथ-सर्टिफिकेट लेकर मैनेजर के पास गए तो 
उसने
ढेर सारे काग़ज थमा दिए। कहता है कि इन्हें भरकर ले आएं फिर 
आगे
का ‘प्रोसेस’ बताया जाएगा।’’ 
अम्मी
ने बात को हल्केपन से लिया-‘‘फिर
क्या है, काग़ज़ात भर-भुराकर 
जमा
करवा दो।’’ 
तब
तक सल्लू की बेगम भी कमरे में आ गई। 
उसे
देख सल्लू की भवें तन गईं। 
बोले-‘‘वकील करना होगा। हम सभी
भाई-बहिन को कोर्ट में जाकर 
हलफ़नामा
तैयार कराना होगा कि अब्बू के बैंक खाते में जमा पैसे की आप 
हक़दार
हैं और सेहत ख़राब होने की वजह से आप मुझे ‘नामिनेट’ कर 
देंगी।
उस हलफ़नामे में बाकी के तमाम दावेदारों को भी दस्तख़त करने 
होंगे
कि आपके इस फैसले से उन्हें कोई ‘आॅब्जेक्षन’ नहीं है। तब कही 
जाकर
अब्बू के पैसे हाथ आएंगे। इस काम में हफ्तों लग सकते हैं। तब 
तक
काम चले इसके लिए मैंने अपने बैंक से लोन लेने की सोची है।’’ 
अम्मी
एकबारगी सोच में पड़ गईं।  
सल्लू
ने कागज़ात अम्मी के सामने रखे कि कुछ दस्तख़त आपको करने 
हैं।
अम्मी
का माथा ठनका।  
बिटिया
जूही और दामाद जाहिद से सलाह-मष्विरा किए वह किसी तरह 
के
काग़ज़ पर अपने दस्तख़त नहीं करना चाहती थीं। 
सल्लू
नाराज़ न हो इसलिए उन्होंने उससे काग़ज़ात ले लिए और 
कहा-‘‘कल-परसों तक जूही-जाहिद
भी आ जाएंगे, फिर मैं काग़ज़ात पर 
दस्तख़त
कर दूंगी।’’ 
इतना
सुनना था कि दरवाज़े की ओट लिए खड़ी सल्लू की बेगम गुस्से से 
भड़क
उठी और अपने षौहर को भला-बुरा कहने लगी-‘‘यही सिला 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 15 
आपको, घर-घर की रट लगाए रहते थे। मेरी अम्मी, मेरे अब्बू के बिना 
खाना
हज़म न होता था। आपकी इस घर में कितनी इज़्ज़्ात है, पता चल 
गया
मुझे। अब इस घर में एक मिनट भी नहीं रहना जहां हमारी नीयत 
पर
षक किया जाए। आप बोलते क्यों नहीं कुछ....? बुत क्यों बने हुए हैं...?’’ 
सल्लू
चुपचाप अम्मी के पास खिसक लिए थे। 
तब
तक मग़रिब की अज़ान की आवाज़ आई और अम्मी वज़ू बनाने 
गुसलखाने
चली गईं। 
ऽ   
कमरे
का दरवाज़ा अंदर से बंद करके जूही, जाहिद और अम्मी उन 
अदालती
काग़ज़ों को समझ रहे थे।  
अम्मी
अपनी बेवा जेठानी के भोलेपन का हश्र जानती थीं। जो जेठ के 
इंतकाल
के बाद बेटों के बहकावे में आकर बिना जाने-बूझे जहां-तहां 
दस्तख़त
करती रहीं और एक दिन सड़क पर आ गई थीं। जेठ की सारी 
दौलत
बच्चों ने अपने नाम करा लीं और उन्हें एडि़यां रगड़-रगड़ कर 
मरने
के लिए बेसहारा छोड़ दिया था। 
सल्लू
और गुल्लू पर उन्हें थोड़ा भी भरोसा नहीं रह गया था। ये सही था 
कि
दोनों दौड़-धूप कर रहे थे, लेकिन मरहूम बाप के लिए
उन्हें इतनी 
तकलीफ़
तो उठानी ही थी। वे अपनी बेवा-ग़मज़दा मां पर कोई एहसान 
तो
कर नहीं रहे थे।  
कितने
खुदगर्ज हो गए हैं बच्चे!  भूल गए वे वो समय
जब उनकी 
छोटी-छोटी
ख़्वाहिषों को पूरा करने के लिए मरहूम अब्बू कितनी तकलीफ़ 
उठाया
करते थे। 
ख़ैर, तब तक जाहिद कागज़ात को ध्यान से पढ़ चुके थे।   
जाहिद
ने बताया-‘‘अम्मी, अब्बू के खाते की रक़म पाने के लिए क़ानूनी 
काग़ज़
है। सल्लू भाई, गुल्लू और जूही को इसमें
दस्तखत करने होंगे कि 
वे
अब्बू की चल-अचल दौलत के वारिस हैं। लेकिन बैंक में फंसे पैसे पर 
अपना
हक़ छोड़ रहे हैं। अम्मी आप इन पैसों की मालिक होंगी।’’ 
अम्मी
ने सोचा कि इसमें तो कोई बुराई नहीं। 
फिर
बैंक के एक काग़ज़ को पढ़ते हुए जाहिद ने बताया कि इसमें एक 
चालबाज़ी
छिपी है। 
अम्मी
के बैंक के खाते में ‘नामिनी’ की जगह सिर्फ सल्लू भाईजान का 
नाम
लिखा है, यानी यदि आपको कहीं कुछ
हो गया तो आपके बाद सल्लू 
भाईजान
ही इस खाते के एकमात्र हक़दार रहेंगे। 
जाहिद
खामोष हुए।  
अम्मी
और जूही ने एक-दूसरे की तरफ सवालिया निगाहों से देखा। 
उन्हें
सल्लू की बदनीयती पर तरस आया। 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 16 
अम्मी
ने एकबारगी सोचा कि रोज़ की किचिर-किचिर से क्या फ़ायदा। 
जिन्हें
दौलत प्यारी है वे दौलत कमाएं।  
इसीलिए
उन्होंने जूही से कहा-‘‘ला
बेटा, पेन दे। कहां-कहां दस्तख़त
करने
हैं, बता!’’ 
लेकिन
जूही इस फैसले को कहां मानने वाली थी। उसने सोचा कि इस 
कठिन
समय में उनकी कौन मदद कर सकता है। 
और
उसे अपनी सहेली कल्पना षिवहरे याद आई।  
कल्पना
षिवहरे, जो वकालत करने के बाद
स्थानीय कोर्ट में वकील है। 
जूही
ने अम्मी से कहा कि कल्पना षिवहरे से मष्विरा करने के बाद ही 
कोई
‘डिसीज़न’ लिया जाएगा। 
जूही
ने जाहिद को साथ लिया और कल्पना षिवहरे के घर चली गई। 
अब्बू
के इंतेकाल की ख़बर सुनकर कल्पना षिवहरे ने दुख ज़ाहिर किया। 
जूही
की आंखें भर आई थीं।  
दुख-भरे
माहौल में जूही ने सल्लू भाई और भाभी के व्यवहार के बारे में 
विस्तार
से कल्पना को बताया। फिर उसे बैंक वाले कागज़ात दिखलाए। 
कल्पना
ने कहा कि वह कल अम्मी को लेकर कोर्ट आए। एक घण्टे में 
सारा
काम निपट जाएगा।  
जाहिद
ने बताया कि अम्मी तो इद्दत के पीरियड में घर से बाहर नहीं 
निकलेंगी।
तब
जूही और कल्पना सोच में डूब गईं। 
बहरहाल, बात तय ये हुई कि इस काम में अब सल्लू भाई के एहसान 
उठाने
की कोई ज़रूरत नहीं। 
एडवोकेट
कल्पना षिवहरे ने कहा-‘‘चहल्लुम
के लिए तो अभी एक महीना 
बाकी
है, भगवान चाहेगा तो तब तक सब ठीक हो जाएगा।’’ 
कल्पना
षिवहरे से मिलकर जूही-जाहिद को राहत मिली थी। 
अब
उन्हें आगे की रणनीति बनानी थी.... 
ऽ   
उस
रात जूही अम्मी के पास ही सोई। 
रात
भर दोनों अब्बू को याद कर रोती रहीं और इस नए मसले के हल के 
लिए
रास्ते तलाषती रहीं। 
‘इद्दत’ की अवधि में अम्मी के बाहर न निकलने की हिदायत मामुओं की 
भी
थी और चाचाओं की भी। बिना घर से निकले, अम्मी को इसपे-उसपे 
आश्रित
होना था। उसमें इतनी ज़्यादा ग़लतफ़हमी पैदा हो रही थी कि 
कुछ
समझ में न आ रहा था। दोनों परेषान थीं कि ऐसे हालात में कौन 
सी
राह निकाली जाए? 
घर
में पैसे की किल्लत होनी षुरू हो चुकी थी। बैंक वाला मसला जितनी 
जल्दी
सुलझे, उतना अच्छा था। 
अनवर
सुहैल: चहल्लुम: 17 
इसी
कषमकष में उन्हें कब नींद ने अपने आगोष में ले लिया, वे जान न 
सकीं।
सुबह
जब जूही की नींद खुली तो उसने अम्मी को कमरे में न पाया। 
सोचा
कि बाथरूम गई होंगी। लेकिन जब वहां से भी कोई आहट न मिली 
तो
वह उठ बैठी। देखा दीवाल घड़ी में छः बज चुके हैं। तख्त पर 
जानिमाज
बिछा है। इसका मतलब अम्मी ने फज्र की नमाज़ पढ़ ली है। 
जूही
खिड़की के पास आई। पर्दे हटाए तो देखा कि अम्मी मंथर गति से 
टहल
कर आ रही हैं। 
अम्मी
के चेहरे पर ताज़गी थी। रतजगे की जगह उम्मीद से भरपूर एक 
सुब्ह
का आग़ाज़ था वहां। ऐसा लग रहा था कि अम्मी ने तमाम मसलों 
का
हल खोज निकाला हो। 
अम्मी
ने जूही को देखा तो खुष हुईं और कहा कि बेटा, जल्दी तैयार हो 
जाओ।
इद्दत-विद्दत की बातों को गोली मारो। अल्लाह भूल-चूक माफ़ 
करेगा।  
फजिर
की अज़ान से पहले अलस्सुबह तुम्हारे अब्बू ख़्वाब में आए थे और 
कह
रहे थे कि जो भी काम करो, अपने बूते करो।  
और
मेरी नींद खुल गई थी। 
अब, हमें खु़द राह निकालनी होगी। 
जूही
के बदन में फुर्ती आ गई। उसने जाहिद को जगाया और सारी बात 
बताई।  
जाहिद
खुष हुए। 
फिर
सुबह दस बजे का मंज़र सल्लू भाई, उनकी बेगम और गुल्लू के
लिए 
अजीबो-गरीब
था।  
उन
सभी ने देखा कि घर के बाहर आॅटो घुरघुरा रहा है। 
अम्मी
और जूही घर से निकल कर आॅटो की तरफ जा रही हैं। 
आत्मविष्वास
से भरी जूही के हाथ में एक फाईल है। 
अम्मी
और जूही आॅटो पर सवार हो रही हैं। 
लोग
देख रहे थे और आॅटो धुंआ उड़ाते गली में ग़ायब हो