शनिवार, 22 अप्रैल 2017

उम्मीदें मरती नहीं


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उम्मीदें मरती नहीं
इसीलिए इंसान जिंदा है
इंसान का जिंदा रहना लाजिमी है
इंसान है तो हुकूमतें हैं
इंसान हैं तो संविधान है 
इंसान हैं तो कैदखाने हैं
इंसान हैं तो कत्लगाह हैं
इंसान हैं तो बाज़ार हैं
इंसानी बस्तियों को अँधेरे से सजाकर
बाजारों में रौनक बढ़ाई गई है
आसमानी किताबों में वर्णित स्वर्ग जैसे दृश्य
फुटपाथ पर छितराए जिस्म टकटकी लगाये देखते हैं
खैनी या बीडी से भूख को हज़म करने का हुनर
कोई सीखे इन इंसानों से
जो अट्टालिकाओं की नींव में दफ़न होकर भी
शुकराना अदा करते हैं उस ईश्वर का
जो हुकूमतों को दिव्यता प्रदान करता है
और इंसानों को क्षुद्रता में संतुष्टि का वरदान देता है

हुकूमतें सांचे में ढले इंसान चाहती हैं
एक जैसे हुकुम बजा लाते इंसान
एक जैसे कतारबद्ध इंसान
एक जैसे जयजयकार करते इंसान
इन्हीं इंसानों में से खोज लेती हैं हुकूमतें
इतिहासकार, व्याख्याकार और न्यायशास्त्री भी
इन्हीं इंसानों में होते हैं भांड, गवैये और आलोचक
हुकूमतों को सवाल करते इंसानों से नफरत है
हुकूमतों को प्रतिरोध के स्वर नागवार लगते हैं
हुकूमतें खूंखार कुत्तों की फौज छोड़ देती है ऐसे बददिमागों पर
फिर भी हुकूमतों के निजाम को बरकरार रखने के लिए
इंसान चाहिए ही चाहिए
एकदम एक सरीखे किसी फैक्ट्री से निकले उत्पाद की तरह
रैपर कोई भी लगा हो लेकिन अन्दर माल वही हो
जो हुक्मरानों को पसंद आये......

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