मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

मुहब्बतें डर रही हैं

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नफरतें थीं
लेकिन मुहब्बतें भी कम न थीं
बीच-बीच में थोडा-थोडा
सब कुछ रहे आता था
मुहब्बत की भीनी हवाएं
बहा ले जाती थीं अपने साथ
नफरतों के गर्दो-गुबार

अबके जाने कैसी हवा चली
कि मुहब्बतें डर रही हैं
और नफरतों के खौफनाक मंज़र
आँखों से नींद भगा ले जाते हैं

कोई अचानक धमकियाँ दे डालता है
एक ऐसे नर्क में धकेल देने की
कि काँप उठती रूह
ऐसे में कोई अगर मरहम लगा जाए
तो जैसे ज़ख्म का दर्द कम हो जाए
लेकिन नहीं आता कोई चारागर सामने

बढती जा रही है ज़ख्मियों की संख्या
कोई उम्मीदबर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
कोई दमदार आके समझा दे
वरना ये जान मुश्किलों में है......


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