- अनवर सुहैल
कठिन
कविताई का दौर जैसे अब समाप्त हो चला है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का आतंक और बीहड़
भाव-बोध से पाठकों के समझ को चैलेंज देती कविताओं के दिन जैसे लद गए हैं। कविताएं
आज जो आकार लेकर आ रही हैं वे पाठक या श्रोता से सीधे सम्वादरत् हैं। कविता का यह
नया गुण उसे रस-छंद-अलंकार के बंधे-बंधाए फार्मूले से अलगिया रहा है। रूपवादी ठसक
और कलात्मकता का दुराग्रह नए कवियों को बेचैन नहीं करता है और जब हम कई दशकों से
सृजनरत कवि शकुन्त की कविताएं पढ़ते हैं तो सहज ही उनकी रचनात्मकता से जुड़ाव हो
जाता है। सन् 1941 के जन्मे शकुन्त लगातार लिख रहे हैं। देश भर की स्तरीय साहित्यिक
लघु-पत्रिकाओं में उनकी जीवन्त उपस्थिति उन्हें लगातार ऊर्जावान बनाए रखे है। 1978
से
वह कविताएं लिख रहे हैं। आज के कवि निस्संदेह किताब प्रकाशित करने के लिए उतावले
रहते हैं लेकिन शकुन्त का पहला कविता संग्रह 2004 में प्रकाशित हुआ और ताज़ा संग्रह 2017
में
आया। छोटी-छोटी कविताएं लोक-संस्कार और मालवा प्रदेश की खुश्बू समेटे इस कठिन समय
में उम्मीदें बंधाती हैं कि कविताएं अजर-अमर रहेंगी।
मौजूदा दौर का संकट आदमी को आदमी से दूर कर रहा है। आज हम एक राष्ट्रवादी दादागिरी के शिकार हुए जा रहे हैं। बाज़ार और पूंजीवाद ने आदमी को एक आत्मकेंद्रित रोबोट में तब्दील कर दिया है। विविधता में समरसता, सामाजिकता और सहजीवन की अवधारणा जैसी सोच की जगह गुटबंदी और दलबंदी ने ले ली है। समाज इतना विभक्त क्या कभी रहा होगा, ऐसे समय में कवि की चुनौतियां भी बढ़ जाती हैं। इन चुनौतियों को शकुन्त स्वीकार करते हैं और कविता से आग्रह करते हैं कि “उतर आओ / मेरी कविताओं/ पगडंडियों पर/ लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।“
ये कौन लोग हैं जो कवि और कविता को पगडंडियों पर बुला रहे हैं---ये लोग मेहनतकश सर्वहारा हैं जो “‘उन हताश चेहरों को/ खुशियां दे जाओ/ जो गीली माटी संग/ पसीने की खारी/ बूंदों का जश्न मना रहे हैं।“ क्योंकि इन हताश, निराश, थके हुए लोगों को ऐसी कविताओं की ज़रूरत है जो उन्हें उम्मीदों की सेंक से प्रफुल्लित कर सके। शकुन्त की कविताएं हमें आगाह करती हैं ऐसे समय में कवियों को चौकस रहना बेहद ज़रूरी है। इस समय सृजन का दायित्व निभाना बड़ा कठिन कार्य है।
बेहद भयभीत कर देने वाला समय है यह। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने में बेहिसाब खतरे हैं। हमेशा ऐसा लगता है कि आज ऐसी संस्थाएं भी सक्रिय हैं जो व्यक्तिगत विचारों को, जीवन को और ख़्वाबों को भी स्कैन कर रही हैं। एक डर दिलो-दिमाग में हावी रहता है। विचार आकार लेने से पहले कई तरह की एडीटिंग प्रोसेस से गुज़रते हैं अब। इस कारण मूल विचार की गहनता और मारक-क्षमता कमज़ोर हो जाती है। कवि शकुन्त इस डर को बहुत ही कम शब्दों में इस तरह बयान करते हैं--
इतनी कुरूपता / कुंठाएं और भी / न जाने क्या-क्या
एक धुंध भरा माहौल/ एकदम कन्नीकाट रिश्ते / और संशय भरे / दिन औ रात
चलूं / नदी-पेड़ या किसी / पगडंडी से पूछूं तो सही कि, आखिर, यह हो / क्या रहा है”
बेशक बहुत बड़ा प्रश्न है आज कि सभी हैरान परेशान हैं जो कि जो भी हो रहा है ये सब क्या हो रहा है----क्या हमारी जड़ें इतनी कमज़ोर थीं कि सामाजिक समरसता की बातें इश्तिहारों में सिमट कर रह गई हैं। कवि शकुन्त जान रहे हैं कि आज के दौर में अचानक से वे लोग भी पाला बदल रहे हैं जो घोषित रूप से सेकुलर सोच के साम्यवादी विचारों के वाहक हुआ करते थे। ये लोग अब एकदम से साथ छोड़ कर आक्रामक से हो गए हैं और उन लोगों को गरियाने लगे हैं जो सामाजिक न्याय की बातें करते हैं और मिलजुल रहने का दम रखते हैं। ‘ज़िद’ श्रृंखला की कविताएं ऐसे ही लोगों को लक्ष्य कर लिखी गई हैं--
“तुम मुझे रोक नहीं सकते दोस्त / और तोड़ तो / बिल्कुल भी नहीं सकते/
चूंकि तुम्हारी सोच में/ बहुत खतरनाक विषाणुओं का/ घालमेल हो गया है।“
इन खतरनाक विषाणुओं से देश अचानक से विषाक्त हो गया है। ऐसे में लोकतन्त्र का चैथा पाया भी अचानक से बदल गया है। रामजादे और हरामजादे जैसी गालियों की कोई भी भर्त्सना नहीं करता। जो ज़हर बोया जाता है उसकी काट तलाश करने में देश में कोई भी तंत्र विकसित नहीं हो पा रहा है। बड़ी उहापोह की स्थिति है। हां यह ज़रूर हुआ है कि प्रतिरोधी आवाज़ें एक सामूहिक डर की गिरफ्त में आ गई हैं--
“फिर भी जाने क्यों
मेरे भीतर दहशत भरे
क्षण रह-रह कर खूंखारते हैं।“
लेकिन कवि शकुन्त आश्वस्त हैं कि ---“अपनी ज़िद पर अड़ो / और दुनिया के / साफ फलक पर / क्रूर बौने इरादे बोने वालों को / जड़ों से नेस्तनाबूद कर दो।“
शकुन्त का कवि उन ताकतों से भी समाज को आगाह करना चाहते हैं जो दलित सवालों के नाम पर और छद्म राष्ट्रवाद के नाम सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने लगे हुए हैं--
“आ रहे हैं कुछ लोग / धर्म, इंसाफ और / जोर-जुल्म की / दुहाई देते।“
ऐसे में—“आदिम सदी का कोई वर्ष/ उसमें / तना हुआ सा कोई दिन / मद्धिम रोशनी के साथ / ढूंढता है मानवता का वजूद।“
अर्थात इन बीते सालों में हमने खोई है मानवता और खोया है रिश्तों की गर्माहट का अहसास। कवि इन विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता---“एक दिन / जरूर आएगी/ इन आंखों को नींद /
बारूदी सुरंगों से / बहेगा पानी / और धरती पर / जाने कितने ग्रह / बांटेंगे सहज ही / अपने सुख-दुःख।“
कवि और कविताएं किसी बच्ची के मन की तरह सहज, सरल और मासूम होती हैं। प्रतिरोधी कविताएं इस क्रूर समय में भी इतराती चलती हैं उन लोगों से बेखबर होकर जो राह पर हर मोड़ में घात लगाए बैठे हैं। अपनी धुन में रमी कविताएं एक ऐसी धरती की कल्पना करने का दुस्साहस करती हैं जहां अन्याय, शोषण और असमानता का दंश से पीड़ित मानवता कराह रही है।
कवि अपनी कविताओं पर तंज़ कसता है—“अरे भाई / तुम्हें कविता का / ज्यादा ही शौक चर्राया था / तो बोल देते/ किसी कवि-मंच से / फूहड़ हास्य भरे फिरके / रच देते किसी शादी-ब्याह में / बरातियों के लिए / पेटू कसीदे.......XXXXX..........तुम्हें मालूम नहीं / बाजार और कारपोरेट / की जुगलबंदी के / राग ‘ग्लोबल-गांव’ ने / हमारी संस्कृति के / चिन्दे-चिन्दे कर दिए हैं।“
छोटी-छोटी छपपन कविताओं से आलोकित कवि शकुन्त की यह दूसरी कविता पुस्तक “गुंथी हुई उम्मीदें” हमारे समय के सच की तर्जुमानी करती हैं। कवि का लोक उनकी कविताओं में खूब बोलता है। बच्चे, पहाड़, नदी, स्त्री, चिड़िया, मां और इन सबके साथ उम्मीदों के ख़्वाब से बनी है ये कविता पुस्तक। जिसमें प्रतिरोध के स्वर भी हैं और एक जीने लायक पृथ्वी के बचे रहने की उम्मीदें भी।
कवि की इन उम्मीदों के साथ पाठक भी आश्वस्त होता है---“अंधेरा बहुत बड़ा / और डरावना है / फिर भी / जाने क्यों / उजास के फववारे / झरते रहते हैं / मेरे आस-पास।“
मुझे ऐसे समय फै़ज़ की पंक्तियां याद आती हैं---”अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं।“
बेशक, ससम्मान जीवन जीने की प्रेरणा देती कविताएं इंसान को दोगलेपन से बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
मौजूदा दौर का संकट आदमी को आदमी से दूर कर रहा है। आज हम एक राष्ट्रवादी दादागिरी के शिकार हुए जा रहे हैं। बाज़ार और पूंजीवाद ने आदमी को एक आत्मकेंद्रित रोबोट में तब्दील कर दिया है। विविधता में समरसता, सामाजिकता और सहजीवन की अवधारणा जैसी सोच की जगह गुटबंदी और दलबंदी ने ले ली है। समाज इतना विभक्त क्या कभी रहा होगा, ऐसे समय में कवि की चुनौतियां भी बढ़ जाती हैं। इन चुनौतियों को शकुन्त स्वीकार करते हैं और कविता से आग्रह करते हैं कि “उतर आओ / मेरी कविताओं/ पगडंडियों पर/ लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।“
ये कौन लोग हैं जो कवि और कविता को पगडंडियों पर बुला रहे हैं---ये लोग मेहनतकश सर्वहारा हैं जो “‘उन हताश चेहरों को/ खुशियां दे जाओ/ जो गीली माटी संग/ पसीने की खारी/ बूंदों का जश्न मना रहे हैं।“ क्योंकि इन हताश, निराश, थके हुए लोगों को ऐसी कविताओं की ज़रूरत है जो उन्हें उम्मीदों की सेंक से प्रफुल्लित कर सके। शकुन्त की कविताएं हमें आगाह करती हैं ऐसे समय में कवियों को चौकस रहना बेहद ज़रूरी है। इस समय सृजन का दायित्व निभाना बड़ा कठिन कार्य है।
बेहद भयभीत कर देने वाला समय है यह। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने में बेहिसाब खतरे हैं। हमेशा ऐसा लगता है कि आज ऐसी संस्थाएं भी सक्रिय हैं जो व्यक्तिगत विचारों को, जीवन को और ख़्वाबों को भी स्कैन कर रही हैं। एक डर दिलो-दिमाग में हावी रहता है। विचार आकार लेने से पहले कई तरह की एडीटिंग प्रोसेस से गुज़रते हैं अब। इस कारण मूल विचार की गहनता और मारक-क्षमता कमज़ोर हो जाती है। कवि शकुन्त इस डर को बहुत ही कम शब्दों में इस तरह बयान करते हैं--
इतनी कुरूपता / कुंठाएं और भी / न जाने क्या-क्या
एक धुंध भरा माहौल/ एकदम कन्नीकाट रिश्ते / और संशय भरे / दिन औ रात
चलूं / नदी-पेड़ या किसी / पगडंडी से पूछूं तो सही कि, आखिर, यह हो / क्या रहा है”
बेशक बहुत बड़ा प्रश्न है आज कि सभी हैरान परेशान हैं जो कि जो भी हो रहा है ये सब क्या हो रहा है----क्या हमारी जड़ें इतनी कमज़ोर थीं कि सामाजिक समरसता की बातें इश्तिहारों में सिमट कर रह गई हैं। कवि शकुन्त जान रहे हैं कि आज के दौर में अचानक से वे लोग भी पाला बदल रहे हैं जो घोषित रूप से सेकुलर सोच के साम्यवादी विचारों के वाहक हुआ करते थे। ये लोग अब एकदम से साथ छोड़ कर आक्रामक से हो गए हैं और उन लोगों को गरियाने लगे हैं जो सामाजिक न्याय की बातें करते हैं और मिलजुल रहने का दम रखते हैं। ‘ज़िद’ श्रृंखला की कविताएं ऐसे ही लोगों को लक्ष्य कर लिखी गई हैं--
“तुम मुझे रोक नहीं सकते दोस्त / और तोड़ तो / बिल्कुल भी नहीं सकते/
चूंकि तुम्हारी सोच में/ बहुत खतरनाक विषाणुओं का/ घालमेल हो गया है।“
इन खतरनाक विषाणुओं से देश अचानक से विषाक्त हो गया है। ऐसे में लोकतन्त्र का चैथा पाया भी अचानक से बदल गया है। रामजादे और हरामजादे जैसी गालियों की कोई भी भर्त्सना नहीं करता। जो ज़हर बोया जाता है उसकी काट तलाश करने में देश में कोई भी तंत्र विकसित नहीं हो पा रहा है। बड़ी उहापोह की स्थिति है। हां यह ज़रूर हुआ है कि प्रतिरोधी आवाज़ें एक सामूहिक डर की गिरफ्त में आ गई हैं--
“फिर भी जाने क्यों
मेरे भीतर दहशत भरे
क्षण रह-रह कर खूंखारते हैं।“
लेकिन कवि शकुन्त आश्वस्त हैं कि ---“अपनी ज़िद पर अड़ो / और दुनिया के / साफ फलक पर / क्रूर बौने इरादे बोने वालों को / जड़ों से नेस्तनाबूद कर दो।“
शकुन्त का कवि उन ताकतों से भी समाज को आगाह करना चाहते हैं जो दलित सवालों के नाम पर और छद्म राष्ट्रवाद के नाम सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने लगे हुए हैं--
“आ रहे हैं कुछ लोग / धर्म, इंसाफ और / जोर-जुल्म की / दुहाई देते।“
ऐसे में—“आदिम सदी का कोई वर्ष/ उसमें / तना हुआ सा कोई दिन / मद्धिम रोशनी के साथ / ढूंढता है मानवता का वजूद।“
अर्थात इन बीते सालों में हमने खोई है मानवता और खोया है रिश्तों की गर्माहट का अहसास। कवि इन विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता---“एक दिन / जरूर आएगी/ इन आंखों को नींद /
बारूदी सुरंगों से / बहेगा पानी / और धरती पर / जाने कितने ग्रह / बांटेंगे सहज ही / अपने सुख-दुःख।“
कवि और कविताएं किसी बच्ची के मन की तरह सहज, सरल और मासूम होती हैं। प्रतिरोधी कविताएं इस क्रूर समय में भी इतराती चलती हैं उन लोगों से बेखबर होकर जो राह पर हर मोड़ में घात लगाए बैठे हैं। अपनी धुन में रमी कविताएं एक ऐसी धरती की कल्पना करने का दुस्साहस करती हैं जहां अन्याय, शोषण और असमानता का दंश से पीड़ित मानवता कराह रही है।
कवि अपनी कविताओं पर तंज़ कसता है—“अरे भाई / तुम्हें कविता का / ज्यादा ही शौक चर्राया था / तो बोल देते/ किसी कवि-मंच से / फूहड़ हास्य भरे फिरके / रच देते किसी शादी-ब्याह में / बरातियों के लिए / पेटू कसीदे.......XXXXX..........तुम्हें मालूम नहीं / बाजार और कारपोरेट / की जुगलबंदी के / राग ‘ग्लोबल-गांव’ ने / हमारी संस्कृति के / चिन्दे-चिन्दे कर दिए हैं।“
छोटी-छोटी छपपन कविताओं से आलोकित कवि शकुन्त की यह दूसरी कविता पुस्तक “गुंथी हुई उम्मीदें” हमारे समय के सच की तर्जुमानी करती हैं। कवि का लोक उनकी कविताओं में खूब बोलता है। बच्चे, पहाड़, नदी, स्त्री, चिड़िया, मां और इन सबके साथ उम्मीदों के ख़्वाब से बनी है ये कविता पुस्तक। जिसमें प्रतिरोध के स्वर भी हैं और एक जीने लायक पृथ्वी के बचे रहने की उम्मीदें भी।
कवि की इन उम्मीदों के साथ पाठक भी आश्वस्त होता है---“अंधेरा बहुत बड़ा / और डरावना है / फिर भी / जाने क्यों / उजास के फववारे / झरते रहते हैं / मेरे आस-पास।“
मुझे ऐसे समय फै़ज़ की पंक्तियां याद आती हैं---”अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं।“
बेशक, ससम्मान जीवन जीने की प्रेरणा देती कविताएं इंसान को दोगलेपन से बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
संग्रह: गुंथी हुई उम्मीदें
कवि: शकुन्त
प्रकाशन: 2017 प्रकाशक: विमर्श प्रकाशन उज्जैन मप्र
पृष्ठ: 88 मूल्य: 100
कवि सम्पर्क: शकुन्त पो. बखेड़ जिला राजगढ़ /ब्यावरा मप्र 465687
मो. 08827701707
कवि: शकुन्त
प्रकाशन: 2017 प्रकाशक: विमर्श प्रकाशन उज्जैन मप्र
पृष्ठ: 88 मूल्य: 100
कवि सम्पर्क: शकुन्त पो. बखेड़ जिला राजगढ़ /ब्यावरा मप्र 465687
मो. 08827701707
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