- अनवर सुहैल
छत्तीसगढ़ जो कभी अखण्ड मध्यप्रदेश का एक उपेक्षित अंग था। राज्यों के पुनर्गठन के बाद अस्तित्व में आया छोटा सा प्रदेश छत्तीसगढ़ तो जैसे इस प्रदेश में विकास के नाम पर एक नई राजनीति गरमा गई। छत्तीसगढ़ की धरा धान का कटोरा कही जाती है लेकिन इसके साथ इसमें प्राकृतिक खनिजों, कोयला भण्डारों, ताप-विद्युत घरों की अकूत सम्पदा है। इन तमाम बातों के साथ छत्तीसगढ़ की एक और पहचान इसके जंगलों, आदिवासियों और नक्सलियों से भी बनती है। जल, जंगल और जमीन से जुड़ी आदिवासियों की अस्मिता और उनकी स्वतंत्रता को किस तरह कारपोरेट जगत अपना शिकार बनाता है यह किसी से छिपा नहीं है। इन आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के नाम पर अरबों-खरबों का बजट स्वाहा हो जाता है। इन आदिवासियों के विकास के नाम पर सरकारें वज्र वाहन, हेलीकाॅप्टर और सैनिक/अर्धसैनिक बलों को डिप्लाॅय करके करती हैं। आदिवासी आज भी उस तथाकथित विकास की बयार से अनभिज्ञ है। आदिवासियों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने की कवायद हर तरह की सरकारें करती आ रही हैं। ये मुख्यधारा कौन सी बला है इसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र के आदिवासी आज तक नहीं जान पाए हैं। आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास में सरकारें आए दिन गोला-बारूद की खरीददारी करती हैं और नक्सलियों से मुठभेड़ की खबरें मीडिया के माध्यम से देश के अन्य हिस्सों में प्रसारित होती रहती हैं। नक्सलियों और सैनिकों के बीच मार-काट का अंतहीन खेल विकास के नारों की चकाचैंध में डूबता-उतराता रहता है।
आदिवासियों के अलावा छत्तीसगढ़ में एक बड़ी आबादी ब्राम्हणों, राजपूतों, पिछड़ा वर्ग और सतनामी समाज की भी है। बस्तर का इलाका छोड़ दें तो बाकी छत्तीसगढ़ में एक सुगढ़ सामाजिक ताना-बाना इन जातियों के बीच विद्यमान है। संत रविदास, गुरू घासीदास के अलावा बाबा साहेब अम्बेडकर भी इन गांवों में गहराई से पैठे हुए हैं। इन जाति समूहों में अपने कुलगुरू के प्रति अगाध श्रद्धा है और तदनुसार ये अपने मतों का पालन करते हैं। बड़ी और छोटी जातियों के बीच सामाजिक द्वन्द्व यहां बहुत कम देखा गया है। सभी अपने मतानुसार बात-व्यवहार के लिए स्वतंत्र हैं। अभी भी बड़ी जातियों के संरक्षण में छत्तीसगढ़ की सामाजिक और राजनीतिक दशा-दिशा तय होती है। अजीत जोगी का आदिवासी मुख्यमंत्री वाला कार्ड छत्तीसगढ़ में बेअसर साबित हुआ है। आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच खाई खोदने का काम जो अजीत जोगी ने छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आते के साथ खेलना चाहा था उसकी भू्रण हत्या इस बने-बनाए सामाजिक ताने-बाने ने उसी समय जनादेश के माध्यम से कर दी थी। छत्तीसगढ़ में विगत पंद्रह वर्षों से दक्षिणपंथी सरकार है और एक राजपूत मुख्यमंत्री है।
ग्राम-जीवन की त्रासदी और वहां की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच जीवन जीने की अदम्य लालसा से उत्पन्न जिजीविषा का अद्भुत आख्यान है ‘बिपत’। इस उपन्यास को छत्तीसगढ़ की परती-परिकथा भी कहा जा सकता है। छत्तीसगढ़ जिसे धान का कटोरा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बहुल राज्य है। राष्ट्रीय फलक पर छत्तीसगढ़ याद किया जाता है अपनी विपुल खनिज सम्पदा, घने जंगल और नक्सलाईट समस्या के लिए। उपन्यास ‘बिपत’ छत्तीसगढ़िया मजदूरों के पलायन की त्रासदी को रेखांकित करता है साथ ही सेज के माध्यम से ग्राम-वासियों को जल, जंगल और जमीन से जुदा करने के सरकारी षडयंत्र को बेनकाब करता है।
‘बिपत’ एक महाआख्यान है छत्तीसगढ़ का। इस उपन्यास के माध्यम से कामेश्वर पाण्डेय ने जो काल-खण्ड और परिवेश चुना है वह इन तमाम समस्याओं को आमजन तक लाने का एक विनम्र प्रयास है। गांव की संरचना में अभी भी पंडितों और ठाकुरों का वर्चस्व है और साहूकारों के जाल में फंसी ग्रामीण जनता के दःुख-दर्द कैसे किसी प्रतिरोध या प्रतिकार में बदलता है इसे बखूबी प्रदर्शित किया गया है। छत्तीसगढ़ से श्रमपुत्रों का अन्य प्रान्तों में पलायन एक ऐसी ज़बर्दस्त त्रासदी है जिसके लिए नए राज्य के बनने से भी कोई समाधान के आसार नहीं दीखते हैं। सरकारी तंत्र ने विकास के नारों के साथ ग्रामीण परिवेश के सदियों से बने-बनाए ताने-बाने को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। ऐसा लगता है कि गांव की सभ्यता-संस्कृति को बचाए रखने में सरकारों की कोई रूचि नहीं है। बस छत्तीसगढ़ की धरा में मौजूद खनिज पदार्थों के दोहन के लिए कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम बना हुआ है और उस कार्य को करने के लिए आम ग्रामीण जन की रजामंदी की कोई आवश्यकता नहीं है। ग्रामीणों को किसी भी तरह भूविस्थापित कर उनकी जमीनों पर कल-कारखाने या खदानें खोलना जैसे कार्य बड़ी अदूरदर्शिता के साथ किए जा रहे हैं। इन्हें हम अमानवीय भी कह समते हैं। पर्यावरण की रक्षा के लिए जनसुनवाई जैसे सरकारी आयोजनों की कलई इस उपन्यास में खोली गई है। साथ भी पूंजीपतियों और सरकारों के इस संगठित लूट के लिए ग्रामीणों के बीच से भी दलालों की खेप तैयार हो जाती है और इन दलालों के माध्यम से सारा काम अंजाम दे दिया जाता है। प्राकृतिक आपदाओं की मार से हलाकान छत्तीसगढ़ का किसान जहां पलायन और फिर अंतहीन शोषण का शिकार होता है और जब लुटपिटकर अपने गांव आता है तब वहां भी अपनी जमीनों से हाथ धोने के अलावा उसके पास बचता कुछ नहीं है। ‘बिपत’ का आख्यान, सरकारों और पूंजीपतियों के इस लूट-तंत्र का कच्चा चिट्ठा भी है।
‘बिपत’ प्रथम दृष्टया छत्तीसगढ़ की परती परि-कथा शायद इसीलिए कहा जा सकता है कि मैंने अभी तक छत्तीसगढ़ के इस स्वरूप को इतनी तटस्थता और बेबाकी से किसी उपन्यास में नहीं देखा है। कामेश्वर पाण्डेय ने बेशक छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या को ज़रूर नहीं तवज्जो दी है क्योंकि उनके उपन्यास का परिवेश दण्डकारण्य बस्तर से अछूता है और जो परिवेश उन्होंने चुना है वहां एक नए बस्तर को बनते हम ब-आसानी देख सकते हैं। ये बात तो तय है कि विकास के नारों से लैस होकर चुनी हुई सरकारें ग्रामीणों के संस्कार और आस्था से खिलवाड़ करती हैं और उन्हें उनकी सदियों से सहेजी संस्कृति से बेदखल करने का षडयंत्र करती हैं। इन ग्र्रामीणों का जो जातीय बांडिंग है और जिसके तहत वे सदियों से अपनी संस्कार को बचाए आजीविका से लिए संघर्षरत हैं उसे तोड़ने का कार्य सरकारें कर रही हैं।
‘बिपत’ उपन्यास में कई कहानियां एक साथ जिस अंजाम तक पहुंचना चाहती हैं, वहां आप को आसानी से इन गांव में अपने अधिकार के प्रति जागरूकता और कर्तव्य के प्रति ।
इनमें गांव के बड़े कका जैसे पात्र हैं जो ब्राम्हण हैं और जिनकी सदाशयता के तमाम ग्रामवासी कायल हैं। तो उसी गांव में पांड़े भी है जो अराजक, शोषक और आतताई पैसहा ठाकुरों का दलाल है। बड़े कका मनसा-वाचा-कर्मणा गांव की भलाई के लिए कृत-संकल्पित हैं। एक बहुत उदार पात्र हैं बड़े कका। जो अपनी कथनी और करनी के सामंजस्य से गांव-वासियों के बीच श्रद्धा के पात्र हैं और जिनकी एक आवाज़ पर सब जन एकजुट हो जाते हैं। बड़े कका जमीनी व्यक्ति हैं। कृषक हैं। पुरोहित का कार्य भी करते हैं। लोगों के बीच न्याय की बात करते हैं भले से इसमें उनका नुकसान ही क्यों न होता हो। लेकिन पैसहा और उसकी संतानों की निरंकुशता और अत्याचार पर बड़े कका अंकुश लगाने में विफल हो जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण गांव में निचली और पिछड़ी जातियों का दमन के प्रति प्रतिकारहीनता ही है। बड़े कका अपने प्रवचनों और सद्प्रयासों से इन दबी-कुचली जातियों के लोगों के मन में प्रतिरोध के बीच रोपते हैं। बड़े कका के साथ सकारात्मक सोच के लोगों की एक पूरी टीम काम करती है। बड़े कका गांधीवादी विचारों के हैं और पुरोहिताई के अलावा देश-दुनिया में हो रहे बदलावों पर भी उनकी पैनी नज़र है। बड़े कका की वैचारिक पृष्ठभूमि की झलक उनके भाषणों और उद्गारों में बहुलता से मिलती है। खासकर जब बड़े कका डायमंड कोल वाशरी और खुली खदानों के खोले जाने के पूर्व बुलाई गई जनसुनवाई में माईक पकड़ते हैं तो ऐसा लगता है कि हाड़-मांस का ये व्यक्ति कितनी बड़ी बौद्धिक पूंजी का भी मालिक है।
जब बड़े कका कहते हैं--‘‘यही तो आज की राजनीति की विडंबना है सिउ परसाद।’ बड़े कका ने कहा--‘मुद्दे को छोड़कर ऊल-जलूल बातों की ओर जनता के ध्यान को भटकाना...’ जन सुनवाई के इस नाटक को देखकर उन्हें मन ही मन भारी क्षोभ हो रहा है। बडे़ कका ने कहा---‘हम खदान खुलने के विरोध में हैं। कारण कई हैं। जितने खदान खुलते जाएंगे पर्यावरण की छेद उतनी ही बढ़ती जाएगी। जमीन और जंगल नष्ट हो जाएंगे। गांव-समाज बिला जाएंगे। यहां के आदमी फकत मजदूर और अपने ही इलाके में दोयम दर्जे के नागरिक बन कर रह जाएंगे। जरूर यहां बिजली, पानी, सड़क, स्कूल और अस्पताल सब हो जाएंगे, लेकिन किस कीमत पर और किनके लिए? हम मानते हैं केवल खदान न खुलने से पर्यावरण की रक्षा नहीं हो जाएगी...वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं, दुनिया भर की लालच का पूरा करने के लिए अभी इतना ज्यादा कार्बन जलाना पड़ रहा है कि अगले दस-बीस वर्षों में धरती का पर्यावरण एकदम छलनी हो जाएगा। आधा कार्बन तो हथियारों को बनाए रखने के लिए खर्च हो रहा है।’’
कलेक्टर ने बड़े कका को टोका--‘यहां सिर्फ मुद्दे की बात बोलिए पंडित जी...।’
बड़े कका इन भभकियों से कहां डरने वाले हैं। उन्होंने पुनः अपनी बात आगे बढ़ाई--‘हम मानते हैं आज दुनिया प्रगति और विकास के जिस राह पर चल पड़ी है उसमें से लौटना बड़ा कठिन है और यह काम पूंजी के पिछलग्गू सरकारों के वश में है भी नहीं। आप कहते हैं गांव की समस्याओं के बारे में कहा जाए, लेकिन खदान खुलते रहेंगे तो गांव-बस्ती रह कहां जाएंगे और बच भी जाएंगे तो उनका जीवन नरक हो जाएगा। धरती-आकाश, रूख-राई और आदमी तक सब काले पड़ जाएंगे। मुआवजा कितनों भी मिले, गांव के किसान मजदूर उस मुआवजे को करेंगे क्या? हम किसान लोग खेती किसानी जानते हैं, पैसे को चलाना नहीं जानते। मुआवजे के पैसे से दो-चार लोगों की हैसियत बन पाएगी। बाकी सब बर्बाद हो जाएंगे। हाथ पैसे आएंगे तो फोकट का टीम टाम बढ़ेगा। दारू-मुर्गा, जुआ-चित्ती की लत बढ़ जाएगी। गांव के किसान कंपनी के ठेकेदारों के बंधुआ मजदूर बनकर रह जाएंगे। हम जानते हैं कि कंपनी की पक्ष में पूंजी है, सरकार है और कानून भी है और हमारे बीच के दलाल लोग भी हैं। हमें इसमें घोर आपत्ति है।’
जन-सुनवाई का मंजर कामेश्वर ने बड़े धीरज से बयान किया है। ऐसी शानदार रिपोर्टिंग बिरले ही देखे मिलती है। ‘बिपत’ के केंद्र में बड़े कका की चिन्ताएं हैं। बड़े कका समाज के उस तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें सच कहने की बीमारी होती है। जानते हैं कि उनकी विजय होगी नहीं क्योंकि स्वार्थी तत्व अपने स्वार्थ के लिए सामाजिक ताने-बाने को अहमियत नहीं देते हैं। अपनी आगत् पराजय से भी बड़े कका विचलित नहीं होते हैं। हिन्दी उपन्यासों में और कहें कि सामान्य जीवन में भी बड़े कका जैसा सम्पूर्ण चरित्र अब देखे नहीं मिलते हैं। इस आपाधापी के दौर में लोकतंत्र के चारों खम्भे हिलते दिखलाई देते हैं। एक ग्लोबल आंधी व्यक्ति और संस्थाओं को कबीलाई दौर में ले जाना चाह रही है।
‘बिपत’ की गाथा में कश्मीर और पंजाब गए छत्तीसगढ़िया मजदूरों की मुक्ति के प्रसंग हैं। ये मजदूर किसलिए पलायन करते हैं इसकी खोजबीन भी है। आजादी के इतने सालों बाद ग्रामीण मजदूरों के लिए एक योजना बनी। सौ दिन की रोजगार गारण्टी योजना। इस योजना में इतने घपले हो रहे हैं कि मजदूरों को मजदूरी पाने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। सरकारों की रोजगार गारण्टी योजनाओं के ढोल नगाड़े की पोल खोलता है ग्रामीण मजदूरों का निरंतर पलायन। इस बीच गांव में फैले मजदूरों के दलालों का गिरोह सक्रिय रहता है और मजदूरों को ज्यादा पैसे कमवाने का सपना दिखलाकर बंधुआ मजदूरी के नरक में ठेल देता है। ऐसे पलायन कर गए बंधुआ मजदूरों को छुड़ाकर वापस उनके गांव पहुंचाने का काम करती हैं एनजीओ। बिपत उपन्यास में इन पलायनकर्ता ग्रामीण मजदूरों की व्यथा-कथा इस तरह से समावेशित है कि सहज ही इस समस्या के रहस्यों से पर्दा उठता चला जाता है। कितने मजबूर हैं ये भोले-भाले ग्रामवासी जो अपना श्रम औने-पौने बेचते हैं साथ ही अपना आत्मसम्मान और मान-मर्यादा भी। उनकी बहू-बेटियों का दैहिक शोषण इतना आम है कि वे असमय अन्चाहे गर्भ ढोती फिरती हैं। हर तरह से हताश और निराश ये मजदूर जब अपने घरों को लौटते हैं तो यहां सेज और पूंजीवाद उन्हें अपने गांव-गिरांव से बेदखल कर चुका होता है।
गांव के गौंटिया यानी जमीन्दार पैसहा की बेटी केकती और छोटी जात के कौसल की प्रणय कथा इस उपन्यास की जान है। केकती पिता और भाइयों के विरोध के बावजूद अपने प्रेमी कौसल की घर वापसी का ख्वाब देखा करती है। एक दिन खबर आती है कि कुछ छत्तीसगढ़िया मजदूर आतंकवादियों की गोली का निशाना बन चुके हैं। उन मजदूरों में केकती का कौसल भी है। ये खबर सुनकर प्रेयसी केकती विक्षिप्त हो जाती है। केकती-कौसल का प्रेम बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है। उनका मिलन न हो पाया। बड़े कका ने विक्षिप्तावस्था जब केकती को देखा तो उनका दिल रो पड़ा। कौसल जैसा पान खाता था वैसा ही तम्बाकू वाला पान जब केकती ने मुंह में डाला तो बड़े कका ने ठंडी सांस ली। ‘‘घर दुआर, रूप-गुण और चीज-बस के रहते अभागिन हो गई छोकरी। बाप-भाईयों के शासन के मारे अपने प्रेमी को नहीं पाई और उसकी जान अजाहे चली गई। आतंकियों की गोली का शिकार हो गया बेचारा। और इधर टूरी पगला गई।’’
पैसहा और उसके बेटों का आतंक इस तरह छाया हुआ था कि गांव में उनका विरोध करने वाला कोई नहीं। जिस पर उनकी कुदृष्टि पड़ी नहीं कि उसका दैहिक या भौतिक शोषण हुआ नहीं। लेकिन अब ग्रामीण समाज पहले जैसा नहीं रह गया है। सामाजिक बदलाव के साथ साथ राजनीतिक जागरूकता भी गांव में आ गई है। पिता पैसहा रोग-ग्रस्त हो गया तो जैसे उसके बेटों को अब कोई रोकने-टोकने वाला न रहा। ऐसे ही एक प्रसंग में बेदिन से बलात्कार के प्रयास में बेदिन के पति ने पैसहा के बेटे राजा का खून कर दिया। जब बेदिन का पति खेदू थाना सरेंडर करने जा रहा था तो सारा गांव उसकी जय-जयकार करता उसके पीछे गया। आततायी का बदला लेने वाले उस नायक की जमानत का इंतजाम भी हो जाता है। पैसहा का आतंकी साम्राज्य इस एक घटना से छिन्न-भिन्न हो जाता है।
‘‘थाने में समर्पण करने के लिए जैत-खाम से खेदू का विजय जुलूस निकला।’’
तो ये थी परिवर्तन की बयार जो छत्तीसगढ़ के गांव में अब बहने लगी थी।
एक और प्रणय गाथा उपन्यास में आकार लेती है। वहीं आदिवासी कन्या चुनिया भी है जो बाल्यकाल से बड़े कका के घर पली-बढ़ी और फिर एक दिन उसका विवाह बड़े कका होरी से करा देते हैं। चुनिया होरी को मन ही मन पसंद करती है। उनका मिलन जैसे अंधेरे में चिराग का आभास देता है। होरी बंधुआ मजदूर मुक्ति मोर्चा के लिए काम करता है। वह खुद भी एक बंधुआ मजदूर था। किसी तरह वह बंधुआ मजदूरी से भाग कर मुक्त हुआ था और उसने प्रण किया कि अब बाकी जिन्दगी बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिए होम कर देगा। किशोर भाई जो बंधुआ मुक्ति का एनजीओ चलाते थे, होरी उनके साथ हो लिया। बड़े कका के आव्हान पर होरी ने गांव के काफी मजदूरों को मुक्त कराया तो गांव में बड़े कका ने उन लोगों के साथ मुक्त मजदूरों का भी सम्मान किया और गांव में सम्मिलित भात-भोज हुआ। इस भात-भोज की एक और खासियत ये हुई कि अमीर-गरीब, ऊंच-नीच सभी एक साथ एक पंगत में बैठ कर दाल-भात का आनंद उठाए थे। इस कृत्य का स्वागत भी हुआ और समर्थों द्वारा आलोचना भी हुई लेकिन गांधीवादी ज्ञानी गुणी बड़े कका को किसी की परवाह नहीं थी।
हां, खदान और कोल वाशरी के लिए भू-अधिग्रहण मामले में बिचैलियों के खेल से ज़रूर बड़े कका पार नहीं पा सके। हो भी नहीं सकता था ऐसा क्योंकि जहां सत्ता और पूंजी का गठजोड़ हो वहां न्याय की उम्मीद बेकार है और यही तो सबसे बड़ी बिपत है।
पूरा उपन्यास छोटे-छोटे प्रसंगों से भरा-पूरा है। गांव के असंख्य पात्रों की उपस्थिति और छत्तीसगढ़ लोक-भाषा से सज्जित परिवेश बरबस इस आख्यान को क्लासिकी का दर्जा देता है। कामेश्वर पाण्डेय स्वयं कोयला उद्योग में कार्यरत हैं और छत्तीसगढ़ की माटी, बोली-बानी और रूप-गंध-स्वाद से सुपरिचित हैं। इसीलिए बड़े विश्वसनीय रूप से उपन्यास मंद गति से कथा-उपकथा रचते एक अंजाम तक पहुंचता है। छत्तीसगढ़ी भाषा में उनका उपन्यास ‘तुहर जाय ले गीयां’ और ‘जुराव’ और एक हिन्दी कथा-संग्रह ‘अच्छा तो फिर ठीक है’ प्रकाशित है।
‘बिपत’ यानी विपदा से जूझते पात्रों के आख्यान को पढ़ना एक नई लड़ाई लड़ने की प्रेरणा भी देता है। छत्तीसगढ़ी लोक-रंग और आंचलिक शब्दावली से सज्जित इस उपन्यास का स्वागत है।
बिपत: कामेश्वर पाण्डेय
किताबघर , 24/4855, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
संस्करण: 2016 पृष्ठ: 376 मूल्य: रु 795
- अनवर सुहैल, टाईप 4/3, आॅफीसर्स काॅलोनी, पो बिजुरी, जिला अनूपपुर मप्र 484440 मो. 9907978108
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