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Tuesday, August 15, 2017

गाँव-गिरांव का ठेठ कवि : कुमार वीरेंद्र

जन्मदिन विशेष : कुमार वीरेंद्र 

सुश्री नंदना पंकज की कुमार वीरेंद्र पर एक सार्थक टिप्पणी और कवि की कुछ कविताएँ :

कुमार वीरेंद्र एक ऐसे सरल सहज व्यक्तित्व का नाम है जो बड़ी खामोशी और संजीदगी से सरल किंतु ठोस कविताएँ लिखते हुए जनचेतना का कार्य लगातार कर रहें हैं....अभी तक उनकी जितनी भी कविताएँ पढ़ी है उनमें न भाषाई लाग-लपेट के भारी-भरकम शब्द होतें है न कोरी काल्पनिक ऊँचाईयों के उलझाने वाले बिंब....वे बिल्कुल आम जीवन के सच्ची घटनाओं, पात्रों, बिंबों का बड़ी सजीवता से चित्रण करते हुए कोई गहरी बात कह जाते हैं, कोई महत्वपूर्ण संदेश दे जाते हैं। उनकी कविताओं को समझने के लिए बस गहरी संवेदना की जरूरत पड़ती है। उन कविताओं से जूड़ना अपने जड़ों को सींचना है। उनकी कविताओं में जहाँ 'रेणु' की पारंपरिक आंचलिक आम देहात का प्राकृतिक सौंदर्य अभिभूत कर देता है वही 'बाबा नागार्जुन' की तरह ज्वलंत मुद्दे उठा कर व्यवस्था पर चोट करती है....( इसे मेरी व्यक्तिगत सोच समझी जाये, मैं कोई समीक्षा नहीं कर रही हूँ) उनकी कविताओं का 'आम' होना ही सबसे बड़ी खासियत है....उनकी सादगी उनके ऊँचे विचारों की देन है...उनके व्यक्तित्व में मिट्टी की खरी सुंगध है...उनके सरल स्वभाव और मित्रवत व्यहवार की मैं प्रशंसक हूँ... एक ठेठ और ठोस जनवादी चेतना का परचम उनके गले में लाल गमछा के जैसे लिपटा रहता है...आज उनके जन्मदिन पर मेरी ह्रार्दिक शुभकामनाएँ उनके साथ है..आज उनकी कलम को चुमकर मैं कहना चाहती हूँ कि इस कलम की स्याही की धारा निरंतर बहती रहे और क्रांति की जमीन को ऊर्वर करती रहे....
कुमार विरेंद्र, मित्र हमें आपसे और आप
की कविताओं से बहुत प्रेम है....आप की संवेदनशील, सहज-सरल प्रगतिशील मानवतावादी विचारों को हमारा सलाम ही सलाम!!!  लाल सलाम
चित्र में ये शामिल हो सकता है: रात
० जगने से भी ०
अपने घर का ही नहीं
गाँव का भी कोई बच्चा, रोता क्या, बाबा
कितनी भी नींद में, जग ही जाते, रोता रहा, उठ बैठते, और
चुनौटी से खैनी निकाल मलने लगते, फिर लाठी ठकठकाते
चले ही जाते, उसके दुआर पर, और
उहाँ कोई हो
पूछते, 'काहे रोवत है...सब
ठीक है न...?', न हो, नाम पुकार, आवाज़ लगाते
'ए फलाँ...', और फलाँ हमउम्र, तो बैठ जाते, फिर बतकही का शुरू हुई, सुकवा
एने से होने गया, कि तिनडेड़ियवा लरक गई, कवनो फिकर नहीं, बच्चा चुप हो
सो गया तबहुँ, डाक्टर के पास ले जाया गया तबहुँ, का पता कवन
ओर-छोर पकड़े, दोनों बैठे रहते, और मेरा
क्या, बाबा यही बूझते होंगे
ठाट से सोया होऊँगा
लेकिन ऐसा कम ही होता, जब मैं ऐसी नींद में होता
बाबा के आने-जाने का, पता नहीं होता, हालाँकि जब जान गया, अपने
बाबा तो ऐसे ही, जगा रहा तो महटियाकर, सो जाता, कई बार तो बाबा
बिन नींद नहीं आती, जिसके दुआर बैठे होते, अँजोरिया
हो चाहे अँहरिया, टघरते वहीं
चला जाता
आख़िर का करता
जब भी ग़ुस्सा करता, पूछता,
'केहु रोता है, दुआरे काहे चले जाते हो, भाई...?', 
तब पता नहीं, बाबा एक ही बात, 
हर बार काहे कहते, '...तू जब बाबा बनेगा न
सब समझ जाएगा...और बेटा, ख़ाली सोने
से, बिहान नाहीं होता
जगने से भी होता है...!'

चित्र में ये शामिल हो सकता है: रात
० तय ०
अब तो वे ही
करते हैं तय, जोताई की क़ीमत
बीज की क़ीमत, बोआई की क़ीमत, खाद की क़ीमत
सिंचाई की क़ीमत, कटाई की क़ीमत, चट्ट की क़ीमत
भूसे की क़ीमत, डाँटी की, बोरे की
अनाज की क़ीमत
वे करते हैं तय, कर रहे एक-एक
कर सब, किसी दिन करेंगे तय, पगडंडियों की क़ीमत, राहों की
क़ीमत, मेंड़ों की, करहों की क़ीमत, इस तरह किसी दिन, अलोत कि साक्षात् होंगे सामने
जब कहेंगे---'देखो, खेती अब, तुम्हारे बस की नहीं, बच्चों पर दया करो, मत खेलो इनके
भविष्य से, अपराध है यह, जघन्य अपराध, और करेंगे तय, हर एक खेत
की क़ीमत, और एक दिन तो ऐसा, हम ख़ुद प्रतीक्षा में
होंगे, कि वे करें तय
हमारी भी क़ीमत
लेकिन नहीं करेंगे, कि जब जोताई
बीज, बोआई, खाद, सिंचाई, कटाई, चट्ट, भूसा, डाँटी
बोरा, अनाज, पगडंडियों, राहों, मेंड़ों, करहों, और हर
एक खेत की क़ीमत तक, तय कर चु‍के
तब, हमारी क़ीमत ही
क्या रह गई !
००
कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
० भइया हो ! ०
वह दुआर पर हो
किसी की मजाल नहीं, बिन पुचकारे
गुज़र जाए, दूर तक चहेट लेगा, छउँक, पकड़ ही लेगा
नरेटी, तबहुँ का कहें, कल रात किसी ने, धारदार धातु
से, घात लगा, उस पर, कर ही
दिया वार
दिन-दिन-भर खटनी, खेत-खेत
कटनी, रात नींद में गोते लगा रहा था, तो का, उसे
अँजरी-पँजरी, आना चाहिए था, कुँईं-कुँईं करते, चाहिए था जगाना, मैंने कब
मना किया, जब मन तब, खटिया पर भी बैठता, सोता ही रहा है, पर आया
नहीं, डीह में ही रहा, रात-भर, भोरे आया भीरी, देखते ही
रह गया...'यह कैसी भलाई, भाई, अब
पटक रहे गोड़...?'
'भइया हो, खटनी-कटनी
रटनी हो बहुत, थके-हारे गाढ़ी नींद में, जगाता हो कइसे..'
और उछल-छउँक, कर रहा लाड़, चैती की महाधार हो महाधार खटनी-कटनी, तबहुँ ले
ही आया दवाई, लेकिन घाव धोआने, दवाई लगवाने से, सौ डेग दूर, और उस दिन तो
उसने लाख छकाया, नाहीं ही आया अँजरी-पँजरी, और जब रोज़
उसका यही, खेत-खलिहान, दौड़ा-दौड़ी में
ढिलाता चला गया
यूँ तो रोज़ रात सोचता, रखता
सिरहाने ही दवाई, पर काहे को, सौ डेग दूर ही भाई, बैठता, उठता
सोता, दिखता चाटते घाव, और वहीं से, देख-देख मुझे, करते रहता कुँईं-कुँईं, पटकते गोड़
कोड़ते माटी, कि कटनी-खटनी, रटनी बहुत, पर हद कि जब, कौरा भी दिया जाता, नहीं
आता, निश्चिंत रहता, उसका आहार कोई और, खा नहीं सकता, सौ डेग दूर
है तो का, शायद देखता जब, दुआर पर केहु नाहीं, तब ही
आ, और गँवे खा, चला जाता होगा
फिर तो समझ गया, ई
जो है, धतूर है पगलेट, लेकिन कुछ दिनों बाद
जब अधीरात उठा, देखा बैठा है गोड़तारी, फिर तो हाथ से छुआ क्या, लगा कुँईं-कुँईं
करते, लिपट जाएगा, अँकवारी में भर, गोदी में लेटा, बत्ती बार देखा, घाव मुरझाया
दिखा, तो ओ, बाबू चाट-चाट, कर रहा ठीक, और जब घाव पर
फेरने लगा हाथ, भुटभुटाते आँखें खोलीं, मैं ताक
रहा टुकुर-टुकुर, ऊ भी
ताक रहा भुटुर-भुटुर
कि जब कान ऐंठने लगा, जैसे काँय-काँय करते कहने
लगा, 'भइया हो, सो जा, चैती है, चैती हो चैती, कटनी
महाधार, खेत-खेत खटनी, रटनी
हो बहुत, सो जा...
भइया हो, सो जाता...!'
००
(आज हिंदी में इतनी ठेठ आंचलिक सोच की कविताएँ गायब होती जा रही हैं. प्रयोग-धर्मिता के नाम पर सत्ता और प्रतिष्ठान हिंदी कविताओं को बाजारवाद के अंधे कुंए में डालना चाहते हैं. ऐसे समय में कुमार वीरेंद्र की कविताएँ आश्वस्त करती हैं )




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