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सोमवार, 25 दिसंबर 2017

जेलों का समाज-शास्त्र

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जेलों में बहुत कम मिलेंगे अगड़े
मिलेंगे भरपूर दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े
ये क़ैदी चुपचाप सज़ा काटते
और मुक्ति की चाह से बेपरवाह दीखते
वे जापनते हैं कि बाहर निकलकर
कौन पैर पुजवाना है किसी से
जेल के बाहर भी तो एक है दुनिया
जहां भी तादाद में कम ही हैं अगड़े
लेकिन हर संस्था के
मुख्य द्वार की चाबियां
रहतीं इनके पास
यहां भी दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक
वंचित हैं सुविधाओं से
फिर कहां जाएं ये लोग
जिन्हें कहते हैं कि संविधान की किताब में
सबसे ज्यादा ताकत दी गई है
इस दी गई ताकत से
खुद ब खुद प्राप्त ताकत जीत जाती है
कि ज़िंदगी के इस खेल का निर्णायक
अगड़ा ही होता है
हर तरह की लूट में मुब्तिला है यही अगड़ा।।।

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

हम शर्मिंदा हैं निर्भया

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हम शर्मिंदा हैं निर्भया
कि हम पुरुष हैं
कि हम तलाशते रहते हैं 
किसी भी समय बलात्कार की सम्भावनाएँ
ज़रूरी नहीं कि जिस्म से ही
देखकर, सुनकर, सूंघकर भी
कोशिशें करते रहते हैं बलात्कार की
जरुरी नहीं कि हम जिस्मानी तौर पर
पूर्ण पुरुष हों लेकिन
कहीं भी, यूँ ही, स्खलित होने के
चूकना नहीं चाहते अवसर
हम शर्मिंदा हैं निर्भया
कि हम बड़े शातिर हैं
कभी भाई, कभी बाप, कभी चाचा-मामा
कभी डॉक्टर, तो कभी अध्यापक की आड़ लेकर
खोजते रहते हैं बेबस शिकार
हमने मछली कहा तुम्हें
और चारा डाल कर पकड़ लिया, यूं
कभी चिड़िया कहा
और दाना डाल कर पकड़ लिया, यूं
हिरनी कहा और दौड़ा कर शिकार कर लिया
हम शर्मिंदा हैं निर्भया
कि अपनी बच्चियों की हिफाज़त के लिए
हम रहते हैं बड़े चौकन्ने
कि उन्हें गड़ने न पाए काँटा भी
लेकिन निर्भया,
केवल अपनी बच्चियों के लिए ही
रहते हैं सतर्क और लेना नहीं चाहते
तनिक भी रिस्क...
क्योंकि हमें मालूम हैं
हम नहीं तो कोई और पुरुष
घूमता रहता है हर समय
एक कोमल शिकार के लिए.....

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

लेकिन दिल नहीं बहला

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पहले बहल जाता था दिल
मरहम के इक फाहे से भी
आज जाने क्या हुआ
लोग आए, सभी ने की दुवाएं भी
लेकिन दिल नहीं बहला 
हरारत भी रही आई
कि घबराहट अब भी वैसी है
मुझे मालूम है ओ चारागर तुम भी
इधर कुछ खोए रहते हो
तुम्हारे इल्मो-हुनर पर भी
किसी ने कर दिया है कुछ
दवाएं बेअसर हैं अब।
ज़रा सोचो, ज़रा समझो
कोई तो राह निकलेगी
चलो फिर कोई नुस्खा
करें ईजाद कुछ ऐसा
कि जिससे इस जहां में फिर
भरोसा हो जाए खुद पर।।।।।

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

खोखली सांत्वना...

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आ रहे ढाढ़स बंधाने लोग
ऐसा नहीं कि निभा रहे हों रस्म
वे दिल से दुखी हैं
उतने ही डरे हुए भी
जितना कि हम हैं खौफ़जदा
आए हैं वे सभी लोग सांत्वना देने
जो धार्मिक हैं लेकिन धर्मांध नहीं
उनमें कई नास्तिक भी हैं
ये सभी दुखी हैं और डरे हुए भी
लेकिन हम समझें अगर
तो ये सभी शर्मिन्दा भी हैं
शर्मिन्दा इसलिए भी कि अब लगता है
बेशर्मी ही जीता करेगी हमेशा
हां, यह अलग बात है
कि अपनी ही आवाज़ उन्हें
बेजान सी लगती है
सांत्वना देने वाले भी
जैसे जानते हैं कितने
खोखले होते हैं शब्द

रविवार, 10 दिसंबर 2017

मैं इसे उम्मीद कहता हूँ..

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कोई चीज़ है ऎसी
जो बार-बार तोड़े जाने की 
ज़बरदस्त कोशिशों के बाद भी
टूटने नहीं दे रही
खंडित होने के लिए विवश वजूद को
दानिश्वर इसे जो कहें
मैं इसे उम्मीद कहता हूँ
बस, इसी उम्मीद के सहारे
कट जायेंगी काँटों भरी राहें
चाँदनी-बिना पथरीली पगडंडियाँ
तुम देखते रहना
चुपचाप...
मन की हारे हार है
मन है कि हारना नहीं चाहता
बेयारो-मददगार बचाए रखना अपना वजूद
मौत के कुंए में चक्कर लगाने वाले
मोटर-साइकिल चालक जैसा अभ्यस्त हो चुके हैं हम
बिना किसी निर्धारित पाठ्यक्रम के
बहुत लम्बे समय से ली जा रही है धैर्य की परीक्षा
और परीक्षा परिणाम घोषणा के पहले
एक नया प्रश्न-पत्र रख दिया जाता है सामने
अकबकाओ या भुनभुनाओ
उन नित नए अनगिनत सवालों के जवाब लिखते-लिखते
कई पीढियां गुज़र गई हैं भाई
न परीक्षा ख़त्म होती है
न सवालों की फेहरिस्त
समझदार लोग जानते हैं
सुहानुभूति भी रखते हैं
कुछ सहृदय दोस्त, परीक्षा-भवन तो छोड़ भी आते हैं
लेकिन इन परीक्षाओं से
इन अनगिनत सवालों से
कोई तो निजात दिलाओ
आओ भाई, आगे आओ
हमें बचाओ.....
कि ना-उम्मीदी अभी भी हमसे
एक बिलांग दूरी बनाये हुए है
बस, एक बिलांग...
🌸

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

अपमान की बरसी



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हम इंतज़ार नहीं करते
फिर भी, हर बरस आती है
हमारे लिए अवसाद, हताशा, अपमान की बरसी
उद्दंडता, निर्लज्जता, बेहयाई की बरसी
हम याद नहीं करते
फिर भी, हर बरस आकर
अहसास करा जाती है
कि कैसे टूटते हैं दिल
कैसे होती है विश्वास का कत्ल
जिसे बड़ी मुद्दत से संजोकर
बारीकी से एक धागे में पिरोकर
हजारों साल के लिए संरक्षित किया गया था
हम भूलना चाहते हैं
एक नये कल की आस में
मिटाना चाहते हैं अतीत के निशाँ
फिर भी हर बरस सुनाई जाती है
उन अनकिये गुनाहों की फेहरिस्त
जिनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं
हमारा वजूद बना दिया गया कितना गैर-ज़रूरी
हम बार-बार
बताना चाहते हैं कि हमारी मौजूदगी
कोई ऐतिहासिक मजाक नहीं है भाई
हम सच में इस बगिया का हिस्सा हैं
मिटटी, हवा, पानी और धूप पर
उतना ही हक़ है हमारा
जितना कि तुम्हारा है......