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Saturday, February 10, 2018

अपने हक़ की बात

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हम कब कह पायेंगे
अपने हक़ की बात
उसके सामने और सबके सामने
कब जुटा पायेंगे हिम्मत
कब कह पायेंगे
बिना नशा किये अपने मन की बात
कब कह पायेंगे
बिना गिड़गिड़ाये
बिना हकलाये
बिना सकुचाये
अपने मन की बात
कि आज तक सीखा है हमने
सलीके से बात करने का हुनर
कि आज तक सिखाया गया है
आवाज़ नीची रखना
कि आज तक नजरें झुकाए
थोड़ा थरथराये से
कहते हैं इस तरह बात
कि मिल जाए डांट
दुत्कार
तिरस्कार
तुम्हें मालूम है न
कोई बात कहने के लिए
हम कितनी बार करते हैं रिहर्सल
भाषा बदल-बदल कर
भंगिमा बदल-बदल कर
खुद ही खुद से करते हैं इल्तिजा
खुद ही एक नये पैंतरे के साथ
गढ़ते हैं इस तरह वाक्य
कि बात भी बन जाए
और तिरस्कार भी न हो

जाने कब होगा ऐसा
कि बिना सम्पादन किये
कह सकेंगे हम अपने हक़ की बात
एक दम डायरेक्ट...

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