शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

पराश्रित












पराश्रित
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कभी करने लगता हूँ
खूब विश्वास कि लोग
कहने लगते 'अन्धविश्वासी'

कभी करने लगता हूँ
इतना शक कि लोग
समझते झक्की-शक्की...

मेरी अपनी राय
मेरी अपनी पसंद
मेरे अपने विचार
दम तोड़ते दिमाग के
मकड़िया जाल में
और मैं अकबकाया सा
दूसरों के विचारों पर
देता रहता हूँ दाद..
जैसे हो वह मेरी आवाज़....!


पैसे से मिल जाती सुविधा
मन-चाही चीज़ें मिल जातीं
मिल जाती हैं ढेरों खुशियाँ
बोलो तुमको पाऊं कैसे
जेब में पैसा खूब है लेकिन
दिल में डर है, प्यार नही है...

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

बिलौटी कहानी पर कृष्ण बलदेव वैद की टिप्पणी

अनवर सुहैल की 'बिलौटी' पढ़कर अरमान हुआ, काश यह कहानी मैंने लिखी होती. इस कहानी में कई खूबियाँ हैं. भाषा के लिहाज से यह कहीं ढीली नही. लेखक की निगाह बारीकियों को पकड़ने में अचूक है. हर दृश्य साफ़-शफ्फाफ है. अति-भावुकता का दाग कहीं नही है. कहीं भी किसी अतिरेक से काम नही लिया गया है, न किसी गलत संकोच से.
दो बड़े चरित्र पगलिया और उसकी बेटी बिलौटी तो अविस्मरनीय हैं ही, छोटे-छोटे अनेक चरित्रों में भी लेखक ने अपनी दक्षता से जान डाल दी है. बिलौटी का इनिशियेशन और फिर उसका खिल-खुलकर एक दबंग, आत्मनिर्भर औरत और माँ बन जाना, यह सब कलात्मक कौशल से दिखाया गया है.
घर-परिवार की सुरक्षा से वंचित पगली माँ और उसकी अदम्य बेटी की यह कहानी यथार्थवादी और प्रगतिवादी अदाओं और आग्रहों से पाक है. सूक्ष्म संकेतों और खुरदुरी तफसीलों के सहारे यह कहानी कड़ी है. हमें न रुलाने की कोशिश करती है और न उपदेश देने की. इसीलिए मुझे रस भी देती है और रास भी आती है.....
-------------------कृष्ण बलदेव वैद (वैचारिकी संकलन, जुलाई १९९७ से साभार)
कहानी 'बिलौटी' पढने के लिए क्लिक करें....


http://www.swargvibha.in/forums/viewtopic.php?f=6&t=590 कृष्ण बलदेव वैद की बिलौटी पर टिप्पणी

गुरुवार, 6 मार्च 2014

महा-ग्रन्थ
















मूल तत्व से 
ज्यादा थीं व्याख्याएं 
व्याख्यायों से 
ज्यादा थीं पाद-टिप्पणियाँ 
ग्रन्थ के आधे से ज्यादा पृष्ठ 
भरे थे सन्दर्भ ग्रथ-सूचि से 
महा-ग्रन्थ का मूल्य था 
एक सामान्य मजदूर की 
दिहाड़ी पचास गुना....

इस ग्रन्थ को
सबसे पहले पढ़ा लेखक ने
फिर कोम्पोजीटर ने
फिर प्रूफ-रीडर ने
ग्रन्थ के विमोचन-कर्ता
विद्वान लेखक ने फिर पढ़ा ग्रन्थ

उसके बाद पुस्तकालयों में
एक सन्दर्भ संख्या के साथ
सुशोभित रहा महा-ग्रन्थ
इस उम्मीद से
कि शायद किसी महा-विनाश के बाद
बचा रह जायेगा ग्रन्थ
तो फिर उसे बांचेंगे पुरातत्व-वेत्ता...
और कयास लगायेंगे
कि गुज़री हुई पीढ़ी
थी कितने समृद्ध सोच वाली.....

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

संघ का हिन्दुस्तान

यह एक ऐसी पीड़ा है जिससे हिन्दुस्तान का आम मुसलमान आये दिन दो-चार होता है. अल्पसंख्यक होने की पीड़ा...
वो समझ नही पाता और भेष बदल-बदल कर कई संगठन उसकी अस्मिता, उसकी सोच, उसकी उपस्थिति को प्रश्नांकित करते रहते हैं. वो समझ नही पाता और जिस तरह स्त्री को सतीत्व का प्रमाण जुटाना पड़ता है उसी तरह अल्पसंख्यक को देश-प्रेम की शहादतें आये दिन देनी पड़ती हैं.
जाहिद खान की किताब 'संघ का हिन्दुस्तान' बड़ी बेबाकी से ऐसे संगठनों को बेनकाब करती है. बेशक ऐसे में पहचान लिए जाने के खतरे हैं...लेकिन 'अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे...!' यही सोच कर जाहिद खान ने संघ के पुराने क्रियाकलापों और विचारधारा पर बात न करते हुए ऐसे राज्य जहाँ संघ की प्रयोगशाला से निकली पार्टी भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं उनके संघ-प्रेरित एजेण्डे के साकार होने का कच्चा चिट्ठा खोलती है.
बड़े संयत और सहज शब्दों में जाहिद खान ने हिटलर के नए अवतारों की पोल खोली है. आजकल ये विकास की बात करते हुए युवा मतदाताओं में पैठ बना रहे हैं. जबकि इनके आर्थिक कार्यक्रम डॉ. मनमोहन सिंह के अर्थ-तंत्र पर आधारित हैं. फिर काहे का नयापन...
भाजपा शाषित राज्यों में सरस्वती शिशु मंदिर की ऐसे ज़बरदस्त नेट्वर्किंग इन डेढ़ दशक में हुई है कि उस विचार-धारा से प्रेरित लाखों युवा तैयार हैं...एक आक्रामक हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के साथ.
बकौल अजेय कुमार---"नरेंद्र मोदी का uday आज की भाजपा की पहचान को प्रतिबिम्बित करता है. या पहचान है, शुद्ध साम्प्रदायिक एजेंडा की, जिसका योग कारपोरेट और बड़ी पूँजी के स्वार्थों की पैरकारी के साथ कायम किया गया है. इस तरह मोदी हिंदुत्व और बड़ी पूँजी के स्वार्थों के योग का प्रतिनिधित्व करता है."
किताब में जाहिद खान ने लगातार इन मुद्दों पर विचार व्यक्त किये हैं. यह किताब संघ-परिवार और हिंदुत्व सम्बन्धी उनके उन तमाम महत्वपूर्ण लेखों का संकलन है, जिसकी आज बेहद ज़रूरत है.
जाहिद खान ने इस किताब में संघ परिवार की सियासत, संघी मानसिकता के पहलु, हिंदुत्व का आलाप विषय पर आँख खोलने वाले लेख लिखे हैं.
मालेगाव, समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद ब्लास्ट की इन्क्वारी से उभरे संघ के आतंकी चेहरे को बेनकाब किया है. जाहिद खान सिमी की भर्त्सना करते हैं तो चाहते हैं कि शष्त्र-संचालन करते संघ के वास्तविक रूप से युवा रु-ब-रु हों...
किताब में है हिंदुत्व की शाखाओं, मोदी के गुजरात कर्नाटक के काले दाग, 'भयमुक्त मध्यप्रदेश की हकीकतों पर कई आलेख..
इस किताब से पूर्व जाहिद खान की एक और किताब आई थी 'आज़ाद हिन्दुस्तान में मुसलमान'
अपने लेखन और सोच में प्रगतिशील जाहिद खान पाठकों के समक्ष प्रामाणिक जानकारियों के साथ तथ्यात्मक विचार रखते हैं जिससे पाठक का नीर-क्षीर विवेक जागृत हो.
मौजूदा दौर की उथल-पुथल और मीडिया के पूर्वाग्रहों से पाठकों को आगाह और जागरूक करने वाली एक ज़रूरी किताब है--'संघ का हिन्दुस्तान'.
हम जाहिद खान के आभारी हैं जिन्होंने इतनी मेहनत और लगन से इस पुस्तक को तैयार किया है साथ ही उद्भावना प्रकाशन के भी सुकरगुज़ार हैं कि पेपर-बेक में किताब छाप कर विद्यार्थियों और जागरूक पाठकों को अद्भुत सौगात दी है.

संघ का हिन्दुस्तान : जाहिद खान
उद्भावना, एच-५५, सेक्टर २३ राजनगर
गाज़ियाबाद उ.प्र.
पृष्ठ : १२८  मूल्य : पचास रुपये 

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

उत्तर खोजो श्रीमन जी...

एकदम से ये नए प्रश्न हैं
जिज्ञासा हममें है इतनी
बिन पूछे न रह सकते हैं
बिन जाने न सो सकते हैं
इसीलिए टालो न हमको
उत्तर खोजो श्रीमान जी....

ऐसे क्यों घूरा करते हो
हमने प्रश्न ही तो पूछा है
पास तुम्हारे पोथी-पतरा
और ढेर सारे बिदवान
उत्तर खोजो ओ श्रीमान...

माना ऐसे प्रश्न कभी भी
पूछे नही जाते यकीनन  
लेकिन ये हैं ऐसी पीढ़ी
जो न माने बात पुरानी
खुद में भी करती है शंका
फिर तुमको काहे छोड़ेगी
उत्तर तुमको देना होगा..
मौन तोडिये श्रीमान जी.....
               ----------------अ न व र सु है ल ---------

रविवार, 19 जनवरी 2014

रचना संसार : तुम क्या जानो....

रचना संसार : तुम क्या जानो....:
तुम क्या जानो जी तुमको हम  कितना 'मिस' करते हैं...
 तुम्हे भुलाना खुद को भूल जाना है  
 सुन तो लो, ये नही एक बहाना है  ...

तुम क्या जानो....




तुम क्या जानो जी तुमको हम 
कितना 'मिस' करते हैं...

तुम्हे भुलाना खुद को भूल जाना है 
सुन तो लो, ये नही एक बहाना है 
ख़ट-पद करके पास तुम्हारे आना है 
इसके सिवा कहाँ कोई ठिकाना है...

इक छोटी सी 'लेकिन' है जो बिना बताये 
घुस-बैठी, गुपचुप से, जबरन बीच हमारे 
बहुत सताया इस 'लेकिन' ने तुम क्या जानो 
लगता नही कि इस डायन से पीछा छूटे...

चलो मान भी जाओ, आओ, समझो पीड़ा मेरी 
अपने दुःख-दर्दों के मिलजुल गीत बनाएं 
सुख-दुःख के मलहम का ऐसा लेप लगाएं 
कि उस 'लेकिन' की पीड़ा से मुक्ति पायें...




----------------अ न व र सु है ल -----------

सोमवार, 13 जनवरी 2014

माल्थस का भूत

कितनी दूर से बुलाये गये 
नाचने वाले सितारे 
कितनी दूर से मंगाए गए 
एक से एक गाने वाले 
और तुम अलापने लगे राग-गरीबी 
और तुम दिखलाते रहे भुखमरी 
राज-धर्म के इतिहास लेखन में 
का नही कराना हमे उल्लेख 
कला-संस्कृति के बारे में...

का कहा, हम नाच-गाना न सुनते
तो इत्ते लोग नही मरते...
अरे बुडबक...
सर्दी से नही मरते लोग तो
रोड एक्सीडेंट से मर जाते
बाढ़ से मर जाते
सूखे से मर जाते
मलेरिया-डेंगू से मर जाते
कुपोषण से मर जाते
अरे भाई...माल्थस का भूत मरा थोडई है..
हम भी पढ़े-लिखे हैं
जाओ पहले माल्थस को पढ़ आओ...

अरे भाई कित्ता लगता है
एक जान के पीछे पांच लाख न...
विपक्ष भी सत्ता में होता तो
इतना ही न ढीलता...
हम भी तो दे रहे हैं
फिर काहे पीछे पड़े हो हमारे...

अपने गाँव-गिरांव के आम जन को
हम दिखा रहे नाच, सुना रहे गाने
मिटा रहे साथ-साथ, राज-काज की थकावटे
राज-काज आसान काम नही है बचवा...
न समझ आया हो तो जाओ
जो करते बने कर लो....
------------------------अ न व र सु है ल --------------

शनिवार, 4 जनवरी 2014

खुश हो जाते हैं वे ...






















खुश हो जाते हैं वे 
पाकर इत्ती सी खिचड़ी 
तीन-चार घंटे भले ही 
इसके लिए खडा रहना पड़े पंक्तिबद्ध ...

खुश हो जाते हैं वे
पाकर एक कमीज़ नई
जिसे पहनने का मौका उन्हें
मिलता कभी-कभी ही है

खुश हो जाते हैं वे
पाकर प्लास्टिक की चप्पलें
जिसे कीचड या नाला पार करते समय
बड़े जतन से उतारकर रखते बाजू में दबा...

ऐसे ही
एक बण्डल बीडी
खैनी-चून की पुडिया
या कि साहेब की इत्ती सी शाबाशी पाकर
फूले नही समाते वे...

इस उत्तर-आधुनिक समय में
ऐसे लोग अब भी
पाए जाते हैं हमारे आस-पास
और हम
अपनी सुविधाओं में कटौती से
हैं कितने उदास..........
-----------अ न व र सु है ल ----------

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

किधर जाएँ...

के रविन्द्र की पेंटिंग 
और कितना दर्द दोगे 

और कितनी चोट खाएं 


और कब तक


सहनी पड़ेंगी 


अनवरत ये यातनाएं..



अब तो जी घबरा रहा,


सुनकर तुम्हारी


मरहमी सी घोषणाएं....



हर तरफ से घिर चुके अब, 


ये बता दो


भाग कर 


हम किधर जाएँ ....

-----अ न व र सु है ल -----

कई चाँद थे सरे आसमां : अनुरोध शर्मा

कुमार मुकुल की वाल से एक ज़रूरी पोस्ट : अनुरोध शर्मा पहले पांच पन्ने पढ़ते हैं तो लगता है क्या ही खूब किताब है... बेहद शानदार। उपन्यास की मुख्...