जैसे टूटता तटबंध
और डूबने लगते बसेरे
बन आती जान पर
बह जाता, जतन से धरा सब कुछ
कुछ ऐसा ही होता है
जब गिरती आस्था की दीवार
जब टूटती विश्वास की डोर
ज़ख़्मी हो जाता दिल
छितरा जाते जिस्म के पुर्जे
ख़त्म हो जाती उम्मीदें
हमारी आस्था के स्तम्भ
ओ बेदर्द निष्ठुर छलिया !
कभी सोचा तुमने
कि अब स्वप्न देखने से भी
डरने लगा इंसान
और स्वप्न ही तो हैं
इंसान के ज़िंदा रहने की अलामत....
स्वप्न बिना कैसा जीवन?
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