रविवार, 29 सितंबर 2013

हमारे ज़माने में माँ

मैं कैसे बताऊँ बिटिया 
हमारे ज़माने में माँ कैसी होती थी 

तब अब्बू किसी तानाशाह के ओहदे पर बैठते थे 
तब अब्बू के नाम से कांपते थे बच्चे 
और माएं बारहा अब्बू की मार-डांट से हमें बचाती थीं 
हमारी छोटी-मोटी गलतियां अब्बू से छिपा लेती थीं 
हमारे बचपन की सबसे सुरक्षित दोस्त हुआ करती थीं माँ 

हमारी राजदार हुआ करती थीं वो 
इधर-उधर से बचाकर रखती थीं पैसे 
और गुपचुप देती थी पैसे सिनेमा, सर्कस के लिए 

अब्बू से हम सीधे कोई फरमाइश नही कर सकते थे 
माँ हुआ करती थीं मध्यस्थ हमारी 
जो हमारी ज़रूरतों के लिए दरख्वास्त लगाती थीं 

अपनी थाली में बची सब्जियां और रोटी लेकर 
जब वो खाने बैठती तो हम भरपेटे बच्चे 
एक निवाले की आस लिए टपक पड़ते 
इसी एक निवाले ने हमें सिखाया 
हर सब्जी के स्वाद का मज़ा...

तुम लोगों की तरह हम कभी कह नही सकते थे 
कि हमे भिन्डी नही पसंद है 
कि बैगन कोई खाने की चीज़ है 

हमारे ज़माने की माएं 
सबके सोने के बाद सोती थीं 
सबके उठने से पहले उठ जाती थीं 
और सबकी पसंद-नापसंद का रखती थीं ख्याल 
कि तब परिवार बहुत बड़े हुआ करते थे 
कि तब माएं किसी मशीन की तरह काम में जुटी रहती थीं 
कि तब माएं सिर्फ बच्चों की माएं हुआ करती थीं..........

मैं कैसे समझाऊं बिटिया 
हमारे ज़माने में माएं कैसी होती थीं....

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