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Tuesday, December 4, 2012

chalo achcha hua













चलो अच्छा हुआ


तुमने खुद कर लिया किनारा



तुमने खुद छुडा लिया दामन
तुमने खुद बचा लिया खुद को

..................................मुझसे

मेरी परछाई भी अब

नही पड़ेगी तुम पर

तुम निश्चिन्त रहो

कागज़ के उन पन्नों से क्यों डरते हो

वे तो मैं नष्ट कर दूँगा

उन तस्वीरों से क्यों डरते हो

उन्हें मैं जला दूँगा

हाँ, यादें मेरी अपनी जागीर हैं

यादें मेरे साथ दफ़न होंगी

Saturday, November 17, 2012

पिता / FATHER


K RAVINDRA'S PAINTINGS

तुम बुड्ढे हो गए पिता


अब तुम्हें मान लेना चाहिए

आने वाला है ‘द एण्ड’



तुम बुड्ढे हो गए पिता

कि तुम्हारा इस रंगमंच में

बचा बहुत थोड़ा-सा रोल

ज़रूरी नहीं कि फिल्म पूरी होने तक

तुम्हारे हिस्से की रील जोड़ी ही जाए



इसलिए क्यों इतनी तेज़ी दिखाते हो

चलो बैठो एक तरफ

बच्चों को करने दो काम-धाम...



तुम बुड्ढे हो गए पिता

अब कहाँ चलेगी तुम्हारी

खामखाँ हुक्म देते फिरते हो

जबकि तुम्हारे पास कोई

फटकता भी नहीं चाहता



तुम बुड्ढे हो गए पिता

रिटायर हो चुके नौकरी से

अब तुम्हें ले लेना चाहिए रिटायरमेंट

सक्रिय जीवन से भी...

तुम्हें अब करना चाहिए

सत्संग, भजन-पूजन

गली-मुहल्ले के बुड्ढों के संग

निकालते रहना चाहिए बुढ़भस



तुम बुड्ढे हो गए पिता

भूल जाओ वे दिन

जब तुम्हारी मौजूदगी में

कांपते थे बच्चे और अम्मा

डरते थे

जाने किस बात नाराज़ हो जाएं देवता

जाने कब बरस पड़े

तुम्हारी दहशत के बादल...



तुम बुड्ढे हो गए पिता

अब क्यों खोजते हो

साफ धुले कपड़े

कपड़ों पर क्रीज़

कौन करेगा ये सब तुम्हारे लिए

किसके पास है फालतू समय इतना

कि तुमसे गप्प करे

सुने तुम्हारी लनतरानियां

तुम इतना जो सोचो-फ़िक्र करते हो

इसीलिए तो बढ़ा रहता है

तुम्हारा ब्लड-प्रेशर...

अस्थमा का बढ़ता असर

सायटिका का दर्द

सुन्न होते हाथ-पैर

मोतियाबिंद आँखें लेकर

अब तुमसे कुछ नहीं हो सकता पिता

तुम्हें अब आराम करना चाहिए

सिर्फ आरा....म!

You're old man father
Now you should assume

It's going to 'The End'


You're old man father

At this stage your

Save very little - little roll



Not until after the movie

The reel is added to your share

So why do so quickly show

Let sit aside

Let the children work - Dham ...



You're old man father

Now where will your

Giving orders to carry bye the way
While you have any

Do not come to you

 
You're old man father

Retired from service

Now you must take retirement

From active life ...


You should do now

Satsang, Bhajan - worship

Street - the neighborhood with the old-ones

Must remove 'budh-bhas'
You're old man father



Forget the days

When your presence

Were trembling child and mother

Were afraid

What is going to be angry god

When the tilted

Your panic cloud ...



You're old man father

Now why do you search

Clean laundry

Creases on clothes

 

Who will do it all for you

Who's got so much spare time

To gossip with you!

Listen to your Lntranian

So who do you think - do not worry

Therefore the extended stays


Your blood - pressure ...

Increases the impact of asthma

Ischialgia pain

Are numb extremities

Cataracts from eyes


Now you can not be certain Father

You must rest no

I just saw ....!

Thursday, November 1, 2012

खलिहान

फिर कम आने लगे मज़दूर
फिर रुकने लगा खदान का विकास
फिर खिलखिलाने लगे खलिहान
फिर वयस्त हुए किसान...

ये फसल कटाई का उत्सव है दोस्तों
ये सपने पूरे होने की अलामतें हैं
ये आशा और विश्वास वाले दिन हैं
ये एक साल और जी लेने की ख्वाहिशें हैं...

देखो तो कितने खुश हैं किसान
कितनी प्रफुल्लित हैं स्त्रियां
कितने मगन हैं बच्चे
खलिहान की सफाई कर रहा समारू
फडुआ चला रहा मंगल
और झाडू बुहार रही सुखिया...

समारू की बेवा बहिन लीप रही खलिहान
मंगल बाड लगा पशुओं से बचाना चाहता कटी फसल
सुखिया करीने से रख रही कटी फसल
आसमान नीला दिखता रहे यही प्रार्थना करते हैं सब
काले-भूरे बेइमान बादल कुछ दिन न दिखें तो
सब काम ही निपट जाए...

फसल की खेत से खलिहान तक की यात्रा
फिर खलिहान से मकान तक की यात्रा
हो जाए निर्विध्न...
इत्ती छोटी दुआ बस तो मांगता किसान है
उसके बाद इस फसल के कई हिस्सेदार भी तो हैं
घर-परिवार की ज़रूरतें

सेठ-महाजन की किश्तें
और... और...
अंतहीन मुसीबतें....
इनसे बचे तो अगले साल के बीज के लिए
बचा रखना भी है धान...

Wednesday, October 24, 2012

saboot / सबूत

सबूत कर रहा हूं इकट्ठा
वो सारे सबूत
वो सारे आंकडे
जो सरासर झूटे हैं
और
जिसे बडी खूबसूरती से
तुमने सच का जामा पहनाया है
कितना बडा छलावा है
मेरे भोले-भाले मासूम जन
ब-आसानी आ जाते हैं झांसे में

ओ जादूगरों
ओ हाथ की सफाई के माहिर लोगों
तुम्हारा तिलस्म है ऎसा
कि सम्मोहित से लोग
कर लेते यकीन
अपने मौजूदा हालात के लिए
खुद को मान लेते कुसूरवार
खुद को भाग्यहीन......

Tuesday, October 23, 2012

JUNOON : K Ravindra ke liye

जुनून
(चित्रकार के रवीन्द्र के लिए)
होना चाहिए जुनून
तभी मिल सकता है सुकून
वरना किसे फुर्सत है
किसी का नाम ले
तुम्हारा जुनून ही
तुम्हारी पहचान है
जो देती है तुम्हें
नित नई ऊंचाईयां
नित नई उडान.....

Sunday, October 21, 2012

आम्-आदमी

उसके बारे में प्रचलित है कि वह थकता नहीं वह हंसता नहीं वह रोता नहीं वह सोता नहीं उसके बारे में प्रचलित है कि डांटने-गरियाने का उस पर असर नहीं होता बडा ही ढीठ होता है चरित्र इनका पिन चुभोने से या कोडा मारने से उसे दर्द नहीं होता उसे लगती नहीं ठंड गरमी और बरसात कहते हैं कि उसकी चमडी मर चुकी है या मर चुकी है हमारी सम्वेदना.. कहा नहीं जा सकता.. तय नहीं उसके लिये काम के घंटे तय नहीं उसका वेतन तय नहीं उसकी छुटिटयों के दिन तय नहीं उसकी सुविधाएं और पर्क्स! कहते हैं वह है पंक्ति का आखिरी आदमी कहते हैं बना उसकी लिये संविधान कहते हैं मानवाधिकार और श्रम कानून उसकी हिफ़ाज़त के लिये हैं बनाए गए संसद, अदालतें और अफसरों का जमघट कहते हैं उसी की सलामती के लिए हैं हां, एक बात अच्छी तरह मालूम है उसे कि चुनाव के पहले बढ जाती है उसकी कीमत बदल जाता है लोगों का नज़रिया उसके प्रति और मतदान के बाद फिर हो जाता वो घूरे का घूरा... आधा-अधूरा....

Sunday, September 30, 2012

औरत

औरत ने अपने लिए
रच लिए हैं नए ग्रन्थ
औरत ने अपने लिए
तराश लिए हैं नए खुदा
औरत ने अपने लिए
बना ली हैं नै राहें ...
खोज लिए हैं नए पद -चिन्ह ..
अब औरत सिराज रही है
एक नई पृथ्वी
एक नया सूरज
एक नया आसमान
ढूंढ लिया है अपने लिए
एक नया साथी ...
एक नया हमसफ़र ...

Wednesday, September 19, 2012

कुछ अपनी

जूनून ....

(के रविन्द्र के लिए )
होना चाहिए जूनून
तभी मिल सकता है सुकून
वरना किसे फुर्सत है
किसी का नाम ले
तुम्हारा जूनून ही
है तुम्हारी पहचान
जो देती है तुम्हे
नित नई ऊंचाइयां
नित नई उड़ान.....

Monday, September 3, 2012

वजूद इस बारिश में


आज फिर बारिश बेजोड़ है
आज फिर काम पर नही जा पाएंगे हम
आज फिर खोजा जाएगा अनाज चूहे के बिलों से
आज फिर फाक़े के आसार हैं...
बेशक होगी बारिश तुम्हारे लिए ख़ुशी की बात
हमारा वजूद इस बारिश में घुल जाएगा, मिट तो नही जाएगा....

Sunday, September 2, 2012

कितनी बार लोगे परीक्षा


कितनी बार लोगे परीक्षा मेरी
कब तक करोगे परेशान
कब तक देना होगा मुझे
अपनी वफादारी का इम्तिहान

इतने सारे तुहमत मुझपर
इतने हैं आरोप कि मुझसे
और नही अब ढोया जाता
अपनी बदकिस्मती का बोझा

हमने भी मिटटी सानी है
हमने भी गारा ढोया है
हमने भी ईंटें जोड़ी हैं
तभी बना ये घर हम सबका...

कितने कम दिन होते हैं
धरती पर मानव-जीवन के
चैन से हमको रहने दे दो
छोटे-मोटे दुःख सहने दो...

Friday, August 31, 2012

कोयला


बहुत काला है ये कोयला
कालापन इसकी खूबसूरती है
कोयला यदि गोरा हो जाए तो
पाए न एक भी खरीदार
कोयला जब तक काला है
तभी तक है उसकी कीमत
और जलकर देखो कैसा सुर्ख लाल हो जाता है
इतना लाल! कि आँखें फ़ैल जाएँ
इतना लाल! कि आंच से रगों में खून और तेज़ी से दौड़ने लगे
इतना लाल! कि जगमगा जाए सारी सृष्टि
मुझे फख्र है कि मैं धरती के गर्भ से
तमाम खतरे उठा कर, निकालता हूँ कोयला
मुझे फख्र है कि मेरी मेहनत से
भागता है अंधियारा संसार का
मुझे फख्र है कि मेरे पसीने कि बूँदें
परावर्तित करती हैं सहस्रों प्रकाश पुंज
खदान से निकला हूँ
चेहरा देख हंसो मत मुझ-पर
ये कालिख नही पुती है भाई
ये तो हमारा तिलक है...श्रम-तिलक
कोयला खनिकों का श्रम-तिलक!!!

Wednesday, August 29, 2012

झख मार रहा हूँ


कैसे बताऊँ क्या कर रहा हूँ
कह दूँ कि झख मार रहा हूँ
हमेशा तो होते नही बड़े काम
हमेशा तो मिलते नही धांसू आइडियाज़
बैठा हो जब अपने अन्दर एक आलोचक, एक समीक्षक
ऐसे में मुश्किल होता है करना कोई कच्चा काम
पक्के काम कि तलाश में कच्चा छूट जाता है
बदले में माथे पर चिंता कि रेखाएं बढ़ जाती हैं...

Thursday, August 16, 2012

क्रान्ति या भ्रान्ति


क्रान्ति या भ्रान्ति मजमा जुटाना
बहुत आसान है
क्योंकि मजमे का
कोई मज़हब नही होता
कोई जात नही होती
कोई विचारधारा नही होती
मजमा तो जूता लेता है मदारी
बजाकर डुग-डुगी, डमरू
नचाकर बन्दर-भालू
दिखाकर बाजीगिरी
मजमा होता है सिर्फ bheed
मजमा पैदा नही करता क्रान्ति
मजमे से बढ़ती है भ्रान्ति
मजमा अकारण खुश होकर हंसने लगता है
मजमा तालियाँ पीटने का अभ्यस्त होता है
मजमे के पास नही होता दिल-दिमाग
मजमे का अपना कोई होता नही चरित्र
मजमे को देख किसी क्रान्ति का आंकलन मत कर लेना दोस्त
मजमा बड़ी आसानी से बिखर जाता है
मजमे में नही होती प्रतिरोध की क्षमता
मजमे में नही होती हिम्मत
नही होती मजमे में
एक मुट्ठी में तब्दील होने की ख्वाहिश
एक नारे में बदलने की आकांक्षा
एक निजाम बदलने की ताक़त....

Friday, August 3, 2012

हर दिन हर पल

हर दिन हर पल
कुछ न कर पाने के
बहाने खोजना
हर दिन हर पल
कुछ न कुछ हाथ से
छूट जाने का गम मनाना
हर दिन हर पल
कल से सब कुछ
ठीक कर लिए जाने के
खुद से वादे करना
यही तो हो रहा है मेरे साथ
क्या आप भी इसी बीमारी से ग्रस्त हैं...?
वो आ रहे हैं
लश्कर फौज लेकर
वो आ रहे हैं
बख्तरबंद गाड़ियों की आड़ लेकर
वो आ रहे हैं
लड़ाकू विमानों में छुपकर
वो आ रहे हैं
संबिधान और कानून का सहारा लेकर
इतनी तैयारिओं के बाद भी
अपनी भूखी नंगी बेबस प्रजा के गुस्से से
वो कितने भयभीत हैं ......

gumshuda-chehre


'gumshuda-chehre' mera pehla kavita-sangrah hai jise maine apni hand-writing aur self illustration se chhapwaya tha. ab mere paas ek hi prati bachi hai...

Friday, July 27, 2012

बेटियाँ


बेटियाँ
निडर होकर कर रही मार्च पास्ट
बेटियाँ
जीतने चली हैं जंग
बेटियाँ
करेंगी घोषणा
जीत लिए मैदान हमने
पिता की चिंता अब नही हैं बेटियाँ
माँ की परेशानी नही हैं बेटियाँ
भाई के रक्षा-बंधन की मोहताज
अब नही हैं बेटियाँ
पति की दुत्कार अब
नही सहेंगी बेटियाँ
बेटियों ने अपनी किस्मत
खुद लिख लेने का कर दिया ऐलान हैं
बेटियों ने तलाश लिए अपने लिए नए खुदा ....

Sunday, June 17, 2012

JEEVAN SANGHARSH


जीवन संघर्श अब्बा रेल्वे स्कूल में षिक्षक थे, जो अब अवकाष प्राप्त कर चुके हैं। वह एक अनुषासन प्रिय, अध्यव्यवसायी, गम्भीर एवं धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। उन्हें किसी से कोर्इ षिकायत नहीं रहती। वह अपने जीवन से इतने संतुश्ट रहते हैं कि उन्हीं से प्रेरणा पाकर मेरे अंदर अनुषासनप्रियता और संतोश का भाव गहराया है। अब्बा कहते हैं कि ‘साहेब से सब होत है, बंदे से कुछ नाहिं’। अब्बा का एक और ध्येय-सूत्र है कि आराम करने के लिए क़ब्र ही बेहतर जगह है। यह जीवन लगातार कुछ नया रचने के लिए है। मैं भी भूमिगत कोयला खदान में काम करने के बावजूद नया रचने या नया पढ़ने की ललक का मारा रहता हूं। बाबा कबीर की उक्ति अक्सर बच्चों को सुनाया करता हूं-’’सुखिया सब संसार खावै अरू सोवै / दुखिया दास कबीर जागे अरू रोवै।’’ जो चेतनासम्पन्न होगा यानी कि बाबा कबीर के “ाब्दों में जो ‘जागा’ होगा वह सांसारिक दु:ख देख कर चिंतित रहेगा। जो तबका स्वार्थ, लिप्सा और भोगविलास में डूबा रहता है उसे कबीर दास सुखिया कहते हैं। मेरे विचार से तमाम “ाायर, लेखक बिरादरी कबीर दास की दुखिया कैटगरी में आती है। मेरी अम्मी उर्दू, फ़ारसी और अरबी की जानकार थीं। वह इतने ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ लिखती थीं कि ऐसा लगता जैसे कहीं कोर्इ छपी हुर्इ स्क्रिप्ट हो। हम बच्चों को हिन्दी लिखते-पढ़ते देख उन्होंने भी हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था। उनकी संदूक में चंद किताबें ज़रूर रहा करती थीं। जैसे, हफ़ीज़ जालन्धरी की ‘षाहनामा ए इस्लाम’ चार भाग, अल्लामा इक़बाल की किताब ‘बांगे दरा’, स्मिथ की ‘दि स्पिरिट ऑफ इस्लाम’, कृष्न चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’। उर्दू माहनामा ‘बीसवीं सदी’ के सैकड़ों अंक उनके कलेक्षन में थे। वह इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया भी ज़रूर पढ़ा करती थीं। मुझे उर्दू पढ़ने की ललक इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया पढ़ने से जागी। अम्मी एक चलता-फिरता “ाब्दकोष हुआ करती थीं। “ोरो-षायरी, से उनकी गहरी वाबस्तगी थी। वह कठिन से कठिन अष्आर कहतीं और फिर उनकी तफ़सील बताया करती थीं। अक्सर वह एक “ोर कहती थीं-’’सामां है सौ बरस का, पल की ख़बर नहीं।’’ मेरे विचार से मेरे अंदर कवि या लेखक बनने का ज़ज़्बा अम्मी के कारण पैदा हुआ क्योंकि अम्मी अक्सर अकेले में मौका पाकर कॉपी के पिछले पन्ने पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी। मुझे अफ़सोस है कि उन पन्नों को मैं सम्भाल कर रख न पाया वरना तत्कालीन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति स्वरूप वे तहरीरें आज मेरे कितने काम आतीं। मेरे मुहल्ले में गिरीष भइया रहते थे। वह पुराने उपन्यासों के उदात्त नायकों की तरह मुझे नज़र आया करते थे। वह व्यंग्य लिखा करते थे। उस समय उत्तर प्रदेष से एक हास्य व्यंग्य की पाक्षिक पत्रिका ‘ठलुआ’ निकला करती थी। गिरीष भइया उसके नियमित लेखक थे। मैं उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित था कि उनसे मिलने उनके घर गया। उन्होंने ठलुआ का पुराना अंक देकर मुझे कहा कि इसके लिए मैं भी कुछ लिखूं। तब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था। मैंने सम्पादक के नाम पत्र लिखा। वह पत्र प्रकाषित हुआ और लेखकीय प्रति के रूप में ठलुआ का अंक जब मेरे नाम से पोस्टमैन घर दे गया तो अचानक मुझे महसूस हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक बन गया हूं। “ााम के समय राम मंदिर के प्रांगण में गिरीष भइया, आर एस एस की “ााखा में अवष्य उपस्थित हुआ करते। मैं तब बालक ही था। राजनीति की कोर्इ समझ तो थी नहीं। “ााखा में झण्डा-वन्दन, प्रार्थना के बाद सभी लोग खेल खेला करते थे। मुझे वहां अच्छा लगता। इसलिए भी अच्छा लगता कि मेरे समय का एक लेखक गिरीष भइया भी वहां खूब आनन्द लेते थे। ठलुआ में मैंने नगर की सड़कों की दुर्दषा पर, एकमात्र छविगृह पर, पगार की पहली तारीख पर व्यंग्य लिखे। मैं जो भी लिखता थोड़े-बहुत संषोधन के साथ वह ठलुआ में छप जाया करता था। गिरीष भइया अर्थात गिरीष पंकज बाद में एक बड़े लेखक बने। वर्तमान में वह साहित्य अकादमी के सदस्य हैं। गिरीष पंकज ने सद्भावना दर्पण के नाम से एक त्रैमासिक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं। विद्यालय में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन होने वाले काय्रक्रमों में मैं भाग लिया करता था। देषभक्ति से प्रेरित कविताएं तुकबंदी के साथ लिखा करता था। कविता पाठ करने पर बच्चे तालियां बजाते और षिक्षकों उत्साह वर्धन करती निगाहें मुझे अन्य बच्चों से हटके बना दिया करती थीं। हिन्दी के अध्यापक श्री अमर लाल सोनी ‘अमर’ मेरी कवितार्इ देखकर मुझे ‘बूढ़ा बालक’ कहा करते थे। वह हमारे घर के सामने रहा करते थे। अक्सर मुझे अपने पास बुलाते और अपनी ताज़ा कविताएं सुनाया करते। उनकी कविताएं अतुकांत होतीं साथ ही उनमें आदर्ष होता। वह षिक्षक के नज़रिए से संसार को देखा करते थे और हर खराब को अच्छा बनाने की ज़िद पाले बैठे थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगतीं लेकिन मेरे मित्र उनका मज़ाक उड़ाया करते थे। वास्तव में उस समय का समाज भी लेखक या कवि को अनुत्पादक काम में लिप्त मानता था। लेकिन मेरे मन में तो जयषंकर प्रसाद, प्रेमचंद या रवीन्द्र नाथ टैगोर बनने की ललक थी। मैं खूब कविताएं लिखा करता था। अम्मी के सम्पर्क में रहने के कारण मेरी कविताओं में उर्दू के “ाब्दों की अधिकता होती थी। अम्मी मेरी कविताओं की सराहना किया करतीं। वह मुझे इस्लाह भी किया करती थीं। नगर में किराए से किताब मिलने की एक दुकान थी। मैं वहां से दस पैसे रोज पर एक किताब लाया करता था। वहां नंदन, पराग, चंदामामा और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। मुझे बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ अत्यंत प्रिय थी। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना उसके सम्पादक हुआ करते थे। खूबसूरत सजी-धजी पत्रिका थी ‘पराग’। उस समय के तमाम मषहूर लेखकों की बाल रचनाएं ‘पराग’ में प्रकाषित हुआ करती थीं। आज हिन्दी में ऐसी बाल-पत्रिका का नितान्त अभाव है। जाने क्यों ‘पराग’ पढ़ते-पढ़ते एक दिन मैंने सोचा कि अपने मन से मैं भी तो कहानी बना कर लिख सकता हूं। छोटी बहिन “ामॉं को रात के वक्त कहानी सुनने की आदत थी। मैं तब दसवीं का छात्र था। मैंने उस दिन सुनी-सुनार्इ कहानी न सुना कर उसे एक कहानी गढ़ कर सुनार्इ। वह कहानी बहन को बहुत पसंद आर्इ। मैंने रजिस्टर के पन्ने फाड़े और उस पर कहानी को दर्ज किया। नाम दिया ‘नन्हा “ोर’। कहानी भेज दी ‘पराग’ के पते पर। ‘पराग’ जिसके अंकों का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। ‘पराग’ जिसके नए अंक मेरे सपने में आते तो ज़रूर थे लेकिन इतने अस्पश्ट होते कि मैं मुखपृश्ठ भी देख न पाता और नींद खुल जाती। ‘पराग’ जिसके दिल्ली स्थित सम्पादकीय कार्यालय में मैं न जाने कितनी बार सपने में गया था, जहां चारों तरफ ‘पराग’ के पुराने अंकों के बंडल पड़े दिखते थे लेकिन वह अंक न दिखता था जो अभी छपा न था। ‘पराग’ में कहानी भेजने के एक सप्ताह के बाद प्रतिदिन पोस्टआफिस जाने लगा कि कहानी स्वीकृत हुर्इ या नहीं। एक दिन मेरे आनंद का ठिकाना न रहा, जब डाकिए ने एक प्रिंटेड पोस्टकार्ड मुझे पकड़ाया जिसमें छपा हुआ था कि आपकी कहानी ‘नन्हा “ोर’ स्वीकृत कर ली गर्इ है जिसे यथासमय ‘पराग’ में प्रकाषित किया जाएगा। मैंने वह पत्र माननीय गिरीष भइया को दिखलाया। वह भी खुष हुए। अम्मी ने अल्लाह का “ाुक्रिया अदा करते हुए फातिहा पढ़ी। इस तरह से मैं एक लेखक बन गया। नगर में एक साहित्यिक संस्था थी ‘संबोधन साहित्य एवम् कला परिशद’ जिसके अध्यक्ष थे श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव ‘विºवल’। वह समय अपने नाम के साथ उपनाम लगाने का था। जैसे अमर लाल सोनी ‘अमर’, कासिम इलाहाबादी, जगदीष पाठक ने तो अपना नाम ही बदल लिया था - भतीजा मनेंद्रगढ़ी। जब मैंने संबोधन की सदस्यता ली तो उनकी तर्ज पर मैंने अपना मैंने अपना नाम रखा अनवर सुहैल ‘अनवर’। मैंने इस नाम की एक सील भी बनवार्इ। मैं अब संस्था की परम्परानुसार कविता और ग़ज़लें कहनी “ाुरू कर दी। कविताएं और ग़ज़लें ऐसी कि हर लार्इन पर लोग ‘वाह-वाह’ कहें। मैं तब तुकों की खोज में रहा करता था। एक बार मैंने ‘हो गया है’ की तुक को पकड़ कर ग़ज़ल लिखी और उसके लिए मैंने ‘खो गया है’ ‘सो गया है’ ‘बो गया है’ ‘धो गया है’ आदि तुकों पर काम करते हुए ग़ज़ल बनार्इ थी जिसपर संस्था की गोश्ठी में बहुत दाद मिली थी। मेरे लिए तुक तलाषना और गीत-कविता गढना एक आसान काम बन गया। मैंने कर्इ गीत लिखे जिनमें एक गीत मैं गोश्ठियों में सस्वर पढ़ा करता था-’’घूम आर्इ अंखियां नगर घर देस आया न कहीं से प्यार का संदेस’। मंचीय कविता मंच में तो खूब दाद दिलवा देती थीं लेकिन जिन्हें सम्पादक खेद सहित वापस कर देते थे। सम्बोधन संस्था में एक नर्इ बात ये थी कि वहां पहल, सम्बोधन जैसी लघुपत्रिकाएं आया करती थीं। मैंने पहलेपहल ‘पहल’ वीरेंद्र श्रीवास्तव के घर देखी थी। मुझे उसकी कविता और कहानियां बहुत पसंद आर्इ थीं। अब मेरा मन भी ऐसी ही कविताएं लिखने को करने लगा। नगर में बैंक है, स्कूल है, कॉलेज है सो इनमें स्थानान्तरित होकर नए लोग भी आते। जो साहित्यिक मिजाज़ के होते उन्हें सम्बोधन संस्था से जोड़ लिया जाता था। इसी तारतम्य में कर्इ ऐसे कवि भी देखने सुनने में आए जिनकी कविताएं सिर के उपर से निकल जाया करतीं लेकिन जिन्हें सुनकर लगता कि इनमें वह बात है जो कि गीत-ग़ज़लों में हो नहीं सकती। जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, विजय गुप्त, अनिरूद्ध नीरव, माताचरण मिश्र, एम एल कुरील की कविताएं मन को बेचैन कर दिया करती थीं। संबोधन से एक लघुपत्रिका ‘षुरूआत’ निकला करती थी। वह एक साइक्लोस्टार्इल पत्रिका थी। उसमें मेरी कविता और लघुकथा प्रकाषित हुर्इ। धीरे-धीरे मैं अपने को स्थापित लेखक समझने लगा। बेरोजगारी के दिनों में मैंने सम्बोधन संस्था द्वारा संचालित वाचनालय और पुस्तकालय का कार्यभार सम्भाला। केयर-टेकर के अभाव में वह पुस्तकालय अक्सर बंद रहता और सम्बोधन की गोश्ठियों, सभाओं के काम आता था। वीरेंद्र श्रीवास्तव ने सहर्श मेरी बात मानकर पुस्तकालय का जिम्मा मुझे सौंप दिया। मैं और मेरा मित्र राजीव सोनी उस पुस्तकालय को नियमित खोलने लगे। “ााम को छ: से नौ बजे तक हम पुस्तकालय खोलकर बैठा करते। वहां की सारी किताबें हमने चाट डालीं। तब धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान निकला करती थीं। हमने पुराने अंक पलट डाले। राजीव सोनी की इस बीच “ाादी हो गर्इ। वह अमृता प्रीतम की लेखनी का मुरीद था। इस चक्कर में हमने अमृता प्रीतम का समग्र साहित्य खोज-खोज कर पढ़ डाला। इमरोज़ और अमृता के सम्बंध हमें एक रूमानी दुनिया की सैर कराया करते। मैं तो इतना ज्यादा उनके जीवन से प्रभावित हुआ कि अपने एक भांजे का नाम ही रख दिया ‘इमरोज़’। मुझसे किसी मित्र ने अपनी बिटिया के लिए नाम पूछा तो तत्काल मेरे मुंह से निकलता ‘अमृता’। अमृता प्रीतम के अलावा मुझे निर्मल वर्मा, रमेष बक्षी, “ौलेश मटियानी, मण्टो, इस्मत चुग़तार्इ, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, फैज़, सामरसेट माम, चेखव, उग्र, मोहन राकेष, अज्ञेय, रेणु और मुक्तिबोध की लेखनी ने अत्यधिक प्रभावित किया। जाने क्यों टॉलस्टाय की अन्ना-केरेनिना के आठ भाग खरीद लेने के बावजूद मैं उसे पढ़ नहीं पाया। बेस्ट-सेलर होने के बावजूद मैंने धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ पसंद नहीं की। जबकि राजेंद्र यादव की ‘सारा आकाष’ ने ज़रूर उद्वेलित किया था। ठीक इसी तरह मुंषी प्रेमचंद की गबन और मानसरोवर की कहानियों के अलावा अन्य कोर्इ उपन्यास पूरा पढ़ नहीं पाया। हां, अमृतलाल नागर की लेखकीय प्रतिभा का ज़रूर मैं मुरीद रहा। पात्रानुकूल भाशा का सृजन करने में उन्हें महारत थी। मुझे यथार्थ की ज़मीन से उपजे पात्र और उनके मनोविज्ञान पर आधारित कथानक प्रभावित करते हैं।

Saturday, April 14, 2012

manager pandey : anwar suhail ki kavita

मेरे यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि आज के जो भी जन आंदोलन हैं उनसे जुड़ी कविताएं एकदम नहीं लिखी जा रही हैं। ऐसी कविताएं लिखी जा रही हैं, पर वे कविताएं और कवि, हिन्दी कवि
की मुख्यधरा से अलग हाशिये पर हैं और हाशिये की जिन्दगी की कविता लिखते हैं।
अभी हाल में लीलाध्र मंडलोर्इ के सम्पादन में 25 कवियों की कविताओं का एक संग्रह आया है, जिसका नाम है कविता का समय। उस संग्रह में अनेक कवि ऐसे हैं जो जीवन की वास्तविक समस्याओं और
वास्तविकता की मार्मिक कविताएं लिखते हैं और वे प्रयत्नपूर्वक हिन्दी कविता की मुख्यधरा से अपनी अलग पहचान रखते हैं।
उस संग्रह में शामिल एक कवि हैं अनवर सुहैल। उन्होंने एक कविता खान मजदूरों पर लिखी है। उस कविता में वे एक जगह कहते हैं-
‘‘मेरी कविताओं में नहीं है
कोमलकांत पदावली,
रस-छंद, अलंकार मुक्तभाषा
क्योंकि मैं एक खनिक हूं
खदान में खटते-पड़ते,
खो गया सौन्दर्य-शास्त्र‘‘
इस संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए कोर्इ भी व्यक्ति यह महसूस करेगा कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। जहां भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता अपनी उपस्थिति से उस संकट का सामना करने में मनुष्य की मदद करती है। इन कविताओं के बारे में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अ​िध्कांश कविताएं पाठकों से सीधे संवाद करती हैं। उनमें से किसी कविता को किसी दुभाषिए की जरूरत नहीं है। यह कविता का लोकतन्त्र है, जो कविता के अनुभवों और मुद्दों में ही नहीं, भाषा में भी मौजूद है।
युवा सम्वाद जनवरी 2011 अंक में मैनेजर पाण्डेय से लिए गए साक्षात्कार का एक अंष

Thursday, April 5, 2012

कहानी : बिलौटी


बिलौटी ठेकेदारिन साइकिल से उतरी। साइकिल स्टैंड पर लगा, सीधे परसाद पान गुमटी पर आर्इ। परसाद का गतिषील हाथ क्षण भर का ठिठका। गुमटी के सामने खड़े अन्य लोगों का ध्यान बंटा।
रामभरोसे हिंदू होटल, धरम ढाबा, ममदू नार्इ की गुमटी और बस-स्टैंड के आस-पास बिखरे लोग सजग हुए। परसाद ने पान का बीड़ा बिलौटी की तरफ बढ़ाया। बिलौटी पान लेकर बड़ी नफ़ासत से उसे एक गाल के सुपुर्द किया और खुली हथेली परसाद की तरफ बढ़ा दी। परसाद ने अख़बार के टुकड़े पर सादी पत्ती, तीन सौ चौंसठ, चमन बहार और सुपारी के चंद क़तरे रखकर बिलौटी की तरफ पेष किया। पान की एक टूटी डंडी में चूना चिपका कर आगे बढ़ाया। बिलौटी ने बड़े इत्मीनान से तंबाकू-ज़र्दा फांक कर चूना चाटते हुए एक रूपए का सिक्का गुमटी में बिछे लाल कपड़े पर उछाला। फिर सधे क़दमों से साइकिल की तरफ़ बढ़ गर्इ।
बिलौटी के पैरों में जूता-मोजा था। सलीके से बंधी लाल-गुलाबी साड़ी में उसकी गेंहुआ रंगत खिल रही थी। साड़ी और ब्लाउज़ के बीच से झांकता उसका पेट और पीठ का हिस्से पर लोगों की आंखें चिपक गर्इ थीं। साइकिल के कैरियर में एक रजिस्टर और एक डायरी फंसी थी। उसकी भूरी आंखों के जादू और मर्द-मार अदाओं से बस-स्टैंड का वातावरण प्रतिदिन इसी तरह मंत्र-बिद्ध होता है।
महाप्रबंधकर कार्यालय की तरफ जाने वाली मुख्य सड़क पर जब वह साइकिल का पैडल मारती सर्र से चली गर्इ, तो तमाषबीन बिलौटी के सम्मोहनी प्रभाव से आज़ाद हुए। सहज हुए लोग, सहज हुए दुकानदार, सहज हुए खरीददार, सहज हुए यात्रीगण और सहज हुए बिलौटी के भूत, भविष्य और वर्तमान जानने का दावा ठोंकने वाले जानकार!
यहां तक कि उसके व्यक्तित्व से अंजान लोगों के दिलो-दिमाग में काफी देर तक सनसनाती रही बिलौटी...
कितना भी बखान किया जाए, बिलौटी के विलक्षण व्यक्तित्व का समग्र वर्णन किसी एक की जु़बान से होना असम्भव है। हर बार कुछ नया जुड़ जाता, कुछ पुराना छूट जाता। नए लोग, पुरानों से खोदा-खादी करते-’’कौन है रे बप्पा, कौन है र्इ आफ़त!’’
पुराने टुकड़ों में बताते बिलौटी-पुराण....
कर्इ टुकड़ों-चीथड़ों को इकट्ठा कर गुदड़ी बनाने का सब्र इस दौर के श्रोताओं में अब कहां दिखता है? वह भी ऐसे समय में, जब टीवी, सिनेमा वाले किस्सा-कहानियों को नज़रअंदाज़ कर मनोरंजन परोस रहे हैं। नतीजतन बिलौटी एक अबूझ पहेली बनी रहती। जब भी वह मर्दों के संसार में प्रवेष करती, अनगिनत प्रष्नों, जिज्ञासाओं, दंतकथाओं के बीज छींट कर फुर्र हो जाती।
कौन जानता था कि पगलिया ससुरी की बउड़ही बिटिया बिलौटी बड़ी होकर इतनी तेज-तर्रार निकल जाएगी। कोयले की झौड़ी (टोकरी) सिर पर ढोते-ढोते इतनी तरक्की कर जाएगी कि एक दिन ‘लेबर-सप्लायर’ बन जाएगी।
‘ठीकेदारिन कहते हैं उसे मज़दूर-रेज़ा, नेता-परेता।
ठाठ तो देखिए....ठाड़े-ठाड़े गरियाती है लेबरों, अफसरों और मउगे नेताओं को।
नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच उठती-बैठती और क्या जाने दारू-मुर्गा भी खींचती है।
ओंठकटवा तिवारी राज़दाराना अंदाज़ में बताता-’’रे बप्पा, खटिया में खुद ‘मरद’ बन जावै है छिनाल! अच्छे-अच्छे पहलवानों की हवा निकाल देवे है। एही कारन तुलसी बाबा आगाह कर दिए हैं कि ढोर, गंवार, सूद्र, पसु-नारी, र्इ सब ताड़न के अधिकारी। इन सबसे बच सकौ तो बच के रहौ। लेकिन ओही मूड़ै मां चढ़ाए हैं ससुरे ठीकेदार, मुंषी और कोलियरी के अधिकारी। तब काहे न छानी पे चढ़के मूते र्इ बिलौटिया....जानत हौ भइया, एक गो बिटिया है ओखर, का जाने ‘सुरसत्त्ती’ कि का नाम रखिस है। ‘सुरसत्ती’ ससुरी अंगरेजी स्कूल में पढ़े जावै है।’’


लोग तो बस याद करते हैं पगलिया को। बिलौटी की मां पगलिया।
पगलिया की बेषुमार गालियां बस-स्टेंड पर अनवर गूंजा करतीं। वह हवा में गालियां बका करती। स्टैंड के पास बने पोस्ट-आफिस के लाल-डब्बे में लोग चिट्ठियां डालने आते तो उसकी गालियों का षिकार बन जाते। पगलिया को भरम रहता कि चिट््ठी डालने के बहाने लोग उसको और उसकी बिटिया बिलौटी को ताकते हैं। इसीलिए वह अंधा-धुंध गालिया बकती। लोग हंसते। बिलौटी ठीकेदारिन, “ाक्तिनगर-वाराणसी हार्इवे के किनारे बस-स्टेंड के ‘टिन-षेड’ पर साधिकार कब्ज़ा जमाकर गुजर-बसर करने वाली पगलिया की कोख-जार्इ थी। गरीबी, अभाव, बदकिस्मती और ज़माने की बेरहम ठोकरें खा-खाकर पगलिया का जिस्म जर्जर हो गया था। उसकी रंगत झुलस चुकी थी। कहते हैं कि पगलिया जब आर्इ थी ठीक-ठाक दिखार्इ देती थी। ओंठकटवा तिवारी ठीकै कहता-’’अरे भइया, जवानी में तो गदहिया भी सुंदर दिखार्इ देवै है।’’
यह तो अच्छा ही हुआ कि पगलिया को बिलौटी के बाद और बच्चे न हुए। बिलौटी का जन्म भी साधारण परिस्थितियों में नहीं हुआ था। तब पगलिया का डेरा बस-स्टेंड का टिन-षेड नहीं हुआ करता था।
चौदह-पंद्रह बरस पहले यहां पर कहां कुछ था।
उत्तर-प्रदेष के मिजऱ्ापुर ज़िले का आखिरी कोना। जहां कोयले की खदान खुलने वाली थी। वाराण्सी से रेनूसागर बिजली कारखाने तक काम-चलाऊ सड़क बन रही थी। तब “ाक्तिनगर आने के लिए सिंगरौली से रास्ता था या फिर औडी मोड़ से पहाड़ी की की जड़ पकड़ कर पैदल चलने से परासी, बीना, खड़िया, कोटा पहुंचा जाता था।
कहते हैं वाराणसी से रेनूसागर तक पगलिया बस से आर्इ थी। बस-स्टैंड पर बस खाली हो जाती।
उस दिन सब सवारियां उतर गर्इं और पगलिया न उतरी तो कंडक्टर उसके पास गया।
कंडक्टर को उस पर पहले से ही “ाक था। किराया न अदा की होती तो वह उसे लाता भी नहीं। पगलिया पिछली सीट पर सिकुड़ी-सिमटी बैठी हुर्इ थी। गठरी थी एक उसके पास, जिसे बड़े जतन से गोद में रखे हुए थी। कंडक्टर कर्इ तरह की नैतिक-अनैतिक सम्भावनाओं की कल्पना करता उसकी बगल में जा बैठा। बस में और कोर्इ न था। चालक अपना झोला-सामान लेकर जा चुका था। रात के ग्यारह बज रहे थे। सवारियां अपने गंतव्य तक पहुंचने की हड़बड़ी में थीं। बस-स्टैंड के पष्चिम में एक ढाबा था। ढाबे का मालिक जीवन इस बस का इंतज़ार करके दुकान बढ़ाता था। ठंड अपना असर जमा चुकी थी। जीवन भट्टी की आग ताप रहा था। कंडक्टर और जीवन का पुराना याराना था। कंडक्टर अक्सर बनारस से अद्धा-पउवा ले आया करता और गर्मागर्म पराठे, आमलेट और बैगन-आलू के भरते के साथ दोनों साथ-साथ खाना खाते। जीवन सोच रहा था कि कंडक्टर “ाायद दिसा-मैदान गया होगा।
लेकिन कंडक्टर के सामने तो एक दूसरी थाली परोसी हुर्इ थी। माले-मुफ्त, दिले-बेरहम... वह अकेले ही उस भोजन का स्वाद चखना चाहता था।
पगलिया की देह से अजीब दुर्गंध फूट रही थी।
बस की नौकरी, अधजले र्इंधन की गंध, सिगरेट-बीड़ी-अगरबत्ती की मिली-जुली गंध और दिन भर की थकान से वह परेषान था किन्तु पगलिया की बीस-बार्इस साल की युवा देह की दुर्गंध में एक और आदिम गंध “ाामिल थी।
कंडक्टर तड़प उठा। पूछा तो पगली मुस्कुरार्इ। कुछ न बोली। नाम-गांव, रेनूसागर में किसी सगे-सम्बंधी या अन्य कोर्इ भी जानकारी न देकर वह बस इत्ती सी मुस्कुरा देती। कंडक्टर उसका हाथ पकड़कर उतारने का उपक्रम करने लगा। दुर्गंधयुक्त देह की मादक गर्माहट से वह बौखला सा गया। उसकी बगल में बैठ चुपचाप उसे बांहों में घेर लेना चाहा। पगलिया आंखें झपका कर कुनमुनार्इ। उसमें इंकार की आहट थी न इकरार की।
बस के अंदर चांदनी रात के चांदीनुमा टुकड़े, खिड़की के रास्ते बिखरे पड़े थे। ऐसा ही एक मद्धम-दमकता सा टुकड़ा पगली के चेहरे पर कुदरती गहने के रूप में आ सजा था। पगली की देह-गंध या तो गायब हो गर्इ थी, या फिर कंडक्टर के कोषिषों को वह सहजता स्वीकार कर रही थी। कंडक्टर इस अद्भुत यथार्थ को र्इष्वर का दिया वरदान समझकर प्रसाद स्वरूप ग्रहण करना चाह रहा था। कंडक्टर अधीर होकर उसकी देह का रसपान करने लगा। अचानक उसे लगा कि पगलिया कुछ बोली है। कंडक्टर चैतन्य हुआ। वह भूखी थी। कंडक्टर ने सोचा भगवान का प्रसाद है, बांट कर खाया जाए तो और अच्छा।
कंडक्टर अलग हटा तो पगली खुष दिखार्इ दी। कंडक्टर की जांघ में चिकोटी काट कर हंसी। कंडक्टर पगली के इस खुषी ज़ाहिर करने के तरीके पर सौ जान कु़रबान हुआ। उसकी छातियां नापता वह नीचे उतर गया।
जीवन, ढाबे का मालिक, बिहार के सिवान जिले का निवासी था और इस बियाबान में बिना परिवार के रहता था। उसने जब कंडक्टर की बात सुनी तो वह काफी खुष हुआ। तय हुआ कि पगलिया के संग बस के अंदर ही ‘जुगाड-फिट’ किया जाए। उधर पता नहीं पगली को क्या सूझी कि दबे पांव, पोटली कांख में दबाए बस से उतरी और बस के पीछे अंधियारे का लाभ उठाकर उस सड़क पर चल दी, जिसके बारे में वह नितांत अनभिज्ञ थी। उसे नहीं मालूम था कि सड़क कहां जाती है? सड़क वैसे भी कहीं आती-जाती नहीं, जाते तो मुसाफिर ही हैं, किन्तु उसे यह भी तो मालूम न था कि स्वयं उसे कहां जाना है।
आधी रात!
वह भी जाड़े के “ाुरूआती दौर की रात!
औड़ी मोड़ का यह इलाका अन्य जगहों से कुछ ज्यादा ही ठंडाता है।
पगली अकबकार्इ सी रेनूसागर की रोषनियों के विपरीत दिषा में चल दी। सामने भी रोषनियों के टुकड़े छितराए थे। महुआ, पलाष और आम के वृक्षों के बीच से छन कर आने वाली चांदनी की फुहारें रास्ता दिखातीं। पगली के लिए उजाला भी तो उतना ही निरर्थक था जितना कि अंधेरा।
चांद अपना सफर तय करता रहा और रेनूसागर से दक्षिण दिखा की तरफ पगलिया का सफ़र भी ज़ारी रहा। कोयला खदानें अभी नर्इ-नर्इ खुली थीं उनके कामगारों के लिए स्थार्इ-अस्थार्इ निवास बने हुए थे। वह एक ऐसी बस्ती में जा पहुंची जिसे खदानी लोग ‘कालोनी’ कहते थे। महुआ का एक बड़ा सा पेड़ देख वह उसके तने से टिक कर बैठ गर्इ।
महुआ के पेड़ के ठीक सामने सिन्हा बाबू का क्वाटर हुआ करता था। नर्इ कालोनी अभी व्यस्थित नहीं हुर्इ थी। ‘ले-आउट’ के अनुसार ठेकेदार धड़ाधड़ ‘फिनिषिंग-टच’ देने का प्रयास कर रहे थे। माचिस की डिबियानुमा क्वाटरों में कर्मचारी अपना संसार गढ़ने में व्यस्त थे। पगली महुआ के पेड़ की पुष्त पर टिकी थी। वह भूख के एहसास को थकावट से पराजित करने का प्रयत्न करती सोने का उपक्रम करने लगी। ठंड अब बढ़ गर्इ थी।


रात-बिरात बेचैन आत्माओं की तरह मंडराने वाला जीव रमाकांत, नषे में धुत उधर से गुज़रा। चांदनी के धुंधलके-उजियारे में महुआ के तले, एक गठरीनुमा आकृति देख कर वह ठिठका। दबे पांव पगली तक पहुंचा।
पगली “ाराब की भभक और रमाकांत के पैरों की आहट सुन सचेत हुर्इ। रमाकांत पैर से गठरीनुमा चीज़ को टोहने लगा। पगलिया हड़बड़ा कर उठ बैठी। रमाकांत का नषा भाग गया। उसने अपने होंठ पर ऊंगली रख उसे चुप रहने का इषारा किया और जेब टटोलने लगा। जेब से तुड़ा-मुड़ा दो रूपए का नोट निकला। रूपया पगलिया की तरफ बढ़ाया उसने। पगलिया हंस दी। रूपया लेकर चांदनी में उसे देखने लगी। रमाकांत ने उसका चेहरा गौर से देखा। वैसे भी वह औरतों का नाम और चेहरा जानने वाला जीव न था। जिस तरह “ाराब की ब्राण्ड पर बहस किए बगैर उसे पूरी श्रद्धा से वह ग्रहण किया करता था, उसी तरह स्त्री-देह की उपलब्धता ही उसके लिए प्रमुख हुआ करती। नाम, काम-धाम, जात-पात के झमेले सब बेमानी थे।
पगलिया जाड़े से ठिठुर रही थी। रमाकांत कुछ सोचकर पगलिया को सिन्हा बाबू के क्वाटर में दुतल्ला में चढ़ने के लिए बनी सीढ़ी के नीचे की खाली जगह पर ले गया। यहां पगलिया को कुछ राहत मिली। ठंड से बची तो भूख के एहसास ने हमला कर दिया। उसने रमाकांत से कुछ खाने को मांगा। रमाकांत उसे गरियाने लगा। जब इस समय कहां कुछ मिलता। गरियाने के बाद “ाांत हुआ तो पगलिया के संग मौज करने का इरादा छोड़ना पड़ गया। वह भूखी-प्यासी है। कैसे हो उसकी भूख बुझाने का इंतज़ाम?
रमाकांत को अपने क्वाटर में रखी दाल-भात की पतीली याद हो आर्इ, जिसे रात में खाकर वह सोता। कुछ सोचकर उसने पगलिया के कंधे थपथपाए और पीछे लार्इन के क्वाटरों में गुम हो गया।
पगलिया भूख-प्यास से बेहाल थी। गठरी में दो-तीन डबलरोटी थी। याद आया तो गठरी खोल कर बैठ गर्इ। डबलरोटी में इतनी गंध थी कि उसके देह से उठती दुर्गंध फीकी पड़ गर्इ। डबलरोटी भुसभुसा भी गर्इ थी। एक-दो टुकड़ा मुंह में डालकर चुभला रही थी कि रमाकांत एक पोलीथीन में दाल-भात लिए आ गया। एक दारू की बोतल में पानी का जुगाड़ भी साथ था। पगलिया दाल-भात पर टूट पड़ी। दारू की बोतल का पानी एक सांस में गटक गर्इं। रमाकांत उस दृष्य को देख कर स्तब्ध रह गया। पगलिया के सर्वांग दर्षन का अवसर मिला। सफर की गर्द और थकान के बावजूद उसके जवान चेहरे पर चमक बरकरार थी।
लेकिन ये क्या...जैसे ही पगलिया के पेट में भोजन गया, वह रमाकांत को धन्यवाद देने के स्थान पर उसे आन-तान गालियां बकने लगी। रमाकांत का नषा हिरन हो गया। नेकी का उसे ये क्या बदला मिला। वह गालियों की परवाह किए बगैर उस पर चढ़ार्इ कर बैठा। उसके गाली उच्चारते मुंह को अपने मुंह से बंद कर दिया। उसके हाथों को अपने दोनों पंजों से सख्ती से दबोचे रखा। उसकी टांगों को अपने भारी पैरों तले दबा लिया। आ...ऊं....र्इ... करती पगलिया जल्द ही षिथिल पड़ गर्इ। रमाकांत को इस नए चैलेंज में अनोखा रस मिला।



सिन्हा बाबू की धर्मपरायण पत्नी आदतन प्रात:-भ्रमण के लिए निकलीं। सीढ़ियों के पास से आती खर्राटे की आवाज़ सुनकर चौंकी। निगाह गर्इ तो अवाक् रह गर्इं। अस्त-व्यस्त कपड़े में अपनी देह खोले-छितराए पड़ी युवती इधर कहां से आ गर्इ? उन्हें उस युवती पर दया आ गर्इ। उन्हें उसकी दषा पर दया हो आर्इ। पास पहुंची तो दुर्गंध से उनका माथा फटने लगा। नाक बंद कर उस युवती तक पहुंचीं। ठंड से ठिठुरी काया, आहट पाकर भी न जागी। उसकी गहरी नींद भंग न हुर्इ तो वे अपने क्वाटर चली गर्इं। लौटी तो उनके हाथों में एक पुरानी दरी थी। दरी से पगलिया की देह ढांक कर वह पैदजल घूमने-टहलने चली गर्इं। रास्ते भर उस युवती की स्थिति पर वह विचार करती रहीं। बेषक, युवती के जिस्म से रात में ज़रूर खिलवाड़ किया गया था। उन्होंने ठीक ही किया कि उसके बेपर्दा जिस्म को ढांक दिया।
टहलने के बाद जब वह लौटीं तो रिहन्द जल-सागर पर छाए पूरबी आसमान के प्रभाती सूरज का लाल-मोहक बिम्ब आंखों में बसा हुआ था। वे बेहद उदार हो गर्इ थीं। रिहन्द के अंतहीन जल-विस्तार की तरह उदार या कि प्रभाती सूर्य की सिंदूरी आभा को धरती पर परावर्तित करने वाले आकाष सी उदार...
कोहरोल की पहाड़ी से रिहन्द बांध का पानी समंदर का भ्रम पैदा करता। एक समंदर सोती हुर्इ लहरों वाला। ज्वार-भाटा की अनिवार्यताओं से मुक्त, जिसका एक सिरा पूरबी आसमान की ढलान से सट सा जाता। जहां से दो सूरज एक साथ उगते। एक आसमान की गोद पर और दूजा रिहन्द के कटोरे पर...
इस दृष्य को देख एक नर्इ स्फूर्ति सी वह महसूस किया करतीं।
घर के सामने कुत्तों के लड़ने की आवाज़ से उनकी तंद्रा भंग हुर्इ। उन्हें युवती याद हो आर्इ। सीढ़ी की तरफ निगाह गर्इ तो देखा कि युवती को स्कूली बच्चे घेर कर खड़े हैं और दो कुत्ते डबलरोटी के टुकड़े के लिए लड़ रहे हैं। पगलिया किचड़ियार्इ निंदासी आंखों से कुतूहलवष ये नया दृष्य आत्मसात कर रही थी। उसे अपनी यात्रा का ये नया पड़ाव सुखद लगा रहा था। वह अपने में मगन थी। उसने गठरी खोल कर एक टूटा आर्इना निकाला और अपना चेहरा देखने लगी।
सिन्हा बाबू की पत्नी ने पहले बच्चों को डांट कर भगाया, फिर कुत्तों को और उसके बाद पगलिया से पूछना चाहा कि वह कौन है? कहां से आर्इ है? कहां जाना है? क्या यहां उसका कोर्इ परिचित है? तमाम प्रष्न, तरह-तरह के प्रष्न, हर प्रष्न उस पगलिया की बौरार्इ-निंदासी आंखों में गुम जाता। तब भन्नाकर उन्होंने कहा--’’चल भाग यहां से!’’
पगलिया को बुरा लगा।
वह अचानक गालियां बकने लगी।
फिर उसने अपनी गठरी में बिखरी चीज़ों को समेटा। दरी को छोड़ वह उठी।
चलने लगी तो सिन्हा बाबू की पत्नी ने उससे दरी साथ ले जाने को भी कहा। पगली पहले तो दरी को भावहीन निगाहों से ताका और फिर दरी को कंधे पर डाल कर चल दी।
सीढ़ियों के बाहर आकर उसने दाएं-बाएं देखा। ऊपर-नीचे ताका। कुछ समझ न आया। हो सकता है वह कालोनी की एक ही डिज़ाइन और एक ही रंग से रंगी इमारतों को देख विस्मित हुर्इ हो। हो सकता है निर्माणाधीन सड़क के ऊबड़-खाबड़ स्वरूप, यत्र-तत्र बिखरी हुर्इ भवन-निर्माण सामग्री आदि देख कर उसे असुविधा महसूस हुर्इ हो। बहरहाल, उसने जो भी सोचा-समझा हो, उसके क़दम उठे। महुआ के पेड़ की छाया तले वह रूकी। कंधे की डाली दरी को ज़मीन पर पटका और वहीं ज़मीन पर पसर गर्इ। पल भर बाद उसके खर्राटे गूंज उठे। सिन्हा बाबू की पत्नी ने माथा पीट लिया। जाने कौन बला उनके क्वाटर के आगे आ पड़ी थी।
तब तक “ोख़ बाबू की पत्नी आ निकलीं। सिन्हा बाबू की पत्नी ने सुबह की घटना बतार्इ, “ोखार्इन द्रवित हुर्इं।
पगलिया सोर्इ तो उठी दिन के बारह बजे। जागती नहीं, लेकिन कुत्तों की लड़ार्इ से उसकी नींद टूटी। पोटली उधेड़कर कुत्ते डबलरोटी के टुकड़े हज़म कर चुके थे। दूसरे टुकड़े के लिए कुत्तों ने जब पोटली पर धावा बोला तो पगलिया जाग गर्इ। लेटे-लेटे ही चुनिंदा मर्दाना गालियां वह बकने लगी। उसके लिए आसान था कि पत्थर से या हाथ-पैर से कुत्तों को दुत्कारती-भगाती, लेकिन इतना विवेक होता तो भला वह पागल कहां से कहलाती।
कहा जाता है कि इस क्षेत्र में उसके होठों से पहले-पहल उच्चारित यही गालियां थीं। ये उसकी गालियों का पहला सार्वजनिक प्रदर्षन था। गालियों के अलावा उसे और किसी तरह के वाक्य बनाना नहीं आता था।
“ोखार्इन ने पगलिया के लिए अपनी उतारन साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट ला दिया। आस-पास के अन्य लोगों ने उसे घर का बचा-खुचा खाना दिया। पगली के चेहरे पर निष्चिंतता के भाव दिखने लगे। वह इत्मीनान से खाना खाने लगी।
कहते हैं कि यदि सिन्हा बाबू की पत्नी और “ोखार्इन ने उसे आश्रय न दिया होता तो उन ठंड के दिनों में, एक अपरिचित-अन्जान जगह में उसका क्या हश्र होता। उसकी स्त्री-देह को भेड़िए झटक लेते या बाघ खा जाता। वह बचती भी या नहीं। किन्तु क्या वह वाकर्इ बच पार्इ? यह तो कर्इ महीने बाद पता चला कि पगलिया गर्भवती है। सिन्हा बाबू की पत्नी को “ाक तो पहले से हो गया था, जब उसकी उबकार्इ और उल्टियों ने रात का सन्नाटा तोड़ा था।
पगलिया गर्भवती क्यों न होती?
पगलिया कोर्इ ‘पवित्र कुंआरी मरियम’ तो थी नहीं, न ही वह कोर्इ राजकन्या कुन्ती ही थी। न दुनिया के ज्योतिषियों, खगोल-षास्त्रियों ने इधर किसी नए नक्षत्र के उदय होने का संकेत ही दिया था। यह तो एक सामान्य सी घटना थी। जिस तरह धरती की कोख फाड़कर, चुपचाप पौधा आ निकलता है, जिस तरह आसमान को चीरकर अलस्सुबह सूरज की किरणें फूटती हैं...
पगलिया पेट से थी। यह एक ध्रुव सत्य था। वह कौन था जिसका बीज उसकी कोख की धरती पर रोपित था, हर कोर्इ जानता था, किन्तु सभी खामोष थे। रमाकात भी चुप मारे रहता। वही रमाकांत, पियक्कड़, दरूआ रमाकांत, जो एक बार सरेआम महुआ तले, पगलिया की झोंपड़ी से बरामद हुआ था।
रमाकां पकड़ा नहीं जाता, किन्तु उसकी घरवाली को उस पर संदेह था। पीता था तो ठीक था। दारू पीना कोर्इ ऐसी बुरी बात नहीं। कोलियरी-खदान वाले इलाके में वैसे भी दारू की खपत ज्यादा रहती है।
‘‘गौरमिंट खुदै बेचती है तो फिर जनता काहे नहीं पिए!’’
इसी तर्क को वह मानती थी। रमाकांत का पीकर इधर-उधर मुंह मारना उसे बर्दाष्त न हुआ।
पूरी कालोनी जानती थी कि रमाकांत और पगलिया के बीच रागात्मक सम्बंध है। उसके मित्र ‘आंख मारकर’ रमाकांत से उसकी ‘फेमिलि’ का समाचार लिया करते थे। रमाकांत भी ढीठ किस्म और मज़बूत चेसिस का खचड़ा था, ठीक अपनी सन् पचहत्तर मॉडल गोल टंकी वाली काली राजदूत मोटरसाइकिल की तरह। अपनी आवाज़ के कारण सही मायनों में ‘फटफटी’ थी वह! राजदूत फटफटिया की कान फाड़ू आवाज़ से पगलिया जान जाती और रमाकांत की घरवाली भी कि ‘भयल चुड़ियन के भाग, बलम सिंगलौली से लउटे!’’
एक रात की बात है, तबरीबन ग्यारह बजे, अंधियारी पाख में, रमाकांत की घरवाली ने कालोनी के कुछ लोगों को इकट्ठा किया। फिर पगलिया के महुआ तले बनी झोंपड़ी के बाहर सब को ले आर्इ। झोंपड़ी के पीछे तरफ राजदूत मोटर-साइकिल की झलक मिल रही थी। हो-हल्ला सुनकर झोंपड़ी के अंदर जल रही ढिबरी बुझा दी गर्इ। पगलिया टाट का परदा हटा कर, मां-बहिन की गाली बकती बाहर निकल आर्इ। बड़बड़ाती तो वह हमेंषा थी, लेकिन इतना ग़लाज़त भरा होगा उसमें, कोर्इ न जानता था।
वह कालोनी की तमाम स्त्रियों को कुल्टा और चरित्रहीन साबित कर रही थी और उस परिमाण में अपने कृत्य को क्षम्य बता रही थी।
उसकी गालियों की परवाह किए बगै़र दो-तीन लोग आगे बढ़े। पुलिस बुलाने की धमकी असरदायक साबित हुर्इ। एक गोल-मटोल मर्दाना साया झोंपड़ी से निकला और बड़ी रफ़्तार से पीछे नाले की तरफ भाग गया। अंधेरा काफ़ी था, फिर भी टार्च की रोषनी में देखा सभी ने, वह रमाकांत ही था....


बिलौटी ये किस्सा जान न पाती, लेकिन इधर-उधर से जन्म पूर्व का किस्सा भी उसे पता चल ही गया। बिलौटी के जन्म के बाद पगलिया ने ने बस-स्टैंड के ‘टिन-षेड’ पर क़ब्ज़ा जमा लिया। इधर कालोनी वालों ने विरोध किया। पगलिया की उपस्थिति को भला सभ्य समाज कैसे बर्दाष्त कर पाता। बात कॉलरी-प्रषासन तक गर्इ। सिक्यूरिटी वाले उसे भगाने आए। देखा, कोयले की आंच में पगलिया अपनी दोनों टांगे फैलाकर उसमें नवजात बच्चे को लिटाए उसकी सिंकार्इ कर रही है। बेखयाली में उसका आंचल ढलका हुआ है। उसकी दूध भरी छातियां कोयले की लाल-लाल आंच में दमक रही हैं। किसी चर्च के बाहर लगी ‘पवित्र मां मरियम’ की निर्दोष छातियों की तरह ममता से भरपूर! सिक्यूरिटी वालों ने उस समय उसे छेड़ना उचित नहीं समझा। पगलिया, इन सबसे अनभिज्ञ, अपनी बोली-भाषा में कोर्इ लोरी गुनगुना रही थी।
तब से, एक तरह से बस-स्टेंड का वह टिन-षेड पगलिया का स्थार्इ निवास बन गया। टिन-षेड के बगल में पोस्ट-ऑफिस है। पोस्ट-ऑफिस और पुलिस-चौकी के बीच एक सड़क है, जो अंदर कालोनी की तरफ जाती है।
इस नवनिर्मित कालोनी में मानव-समुदाय की सभ्यता, संस्कृति और जीवन की प्राथमिक आवष्यकताओं की पूर्ति करने वाली व्यवस्थाएं स्वत: बन गर्इ हैं। जैसे बीस बिस्तरों वाला अस्पताल, हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम के कर्इ स्कूल, बैंक, थाना, रेल्व-स्टेषन, “ाापिंग-सेंटर, कैंटीन, मनोरंजनालय, खेल का मैदान, दमकल विभाग के अलावा छोटी-छोटी गुमटियों में बसे दर्जी, नार्इ, पनवाड़ी, धुनिया, भड़भूंजे, झटका और हलाल दोनों तरह के कसार्इ, फोटो-स्टूडियो, सुनार, मोची, धोबी, झोला छाप डॉक्टर, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा, “मषान-घाट, कब्रिस्तान आदि तमाम सुविघाओं से लैस नगर-व्यस्ािा।
कहते हैं पुलिस-चौकी के पास आ बसने से पगलिया और ज्यादा बर्बाद होने से बच गर्इ। पहले तो जिसका सुर समाता, दो-चार रूपए दिखाकर पगलिया से सट जाता था। अब तो रमाकांत भी इधर का रूख न करता। हां, पगलिया स्वयं दिलजले पुलिसवालों के लिए ज़रूर ‘माले-मुफ्त’ थी। बिलौटी के आ जाने से पगलिया अब उतना भटकती-घूमती न थी। कालोनी के लोग यथासम्भव उसकी मदद करते। बिल्ली जैसी भूरी आंखों वाली बिलौटी हर दिन एक बरस की गति से बढ़ने लगी।
टिन-षेड के पीछे बड़ी नाली थी, जिस पर टाट-बोरा, पोलीथीन और गत्ता-कागज आदि से चौतरफा आड़ बनाकर निस्तारनुमा जगह बना ली गर्इ थी। पगली इसी घेरी गर्इ जगह में नहाती धोती और संडास का काम भी लेती। दिन की रोषनी में पर्दे वाले काम करने में झिझक होती थी, इस लिए जब बिलौटी कुछ समझदार हुर्इ तो बड़ी नाली पर आकर गिरती छोटी नाली पर, जिसके दोनों तरफ क्वाटर के पिछले दरवाजे और चारदीवारी से सटाकर बनार्इ गर्इ कचरा-पेटी बनार्इ गर्इ थी। उसी कचरा पेटी की आड़ में बिलौटी अपनी हाजत से फारिग हुआ करती।
छह-सात साल की उम्र में ही उसे काफी अक्ल आ गर्इ थी। पगलिया मां को वह उल्टा-सीधा पढ़ाने लगी थी। सामने चौराहे पर अंडा बेचने वाली बुढ़िया की पोती सनीचरी से उसकी अच्छी दोस्ती हो गर्इ थी।
ऐसे ही एक दिन, कचरा पेटी के पीछे फ्राक उठाए मगन वह बैठी निपट रही थी कि खटका हुआ। उसकी निगाह आवाज़ की तरफ गर्इ। उसने देखा कि एक आदमी जिसके खुले बदन पर सिर्फ एक तौलिया लिपटा था, उसकी तरफ देख रहा है। बिलौटी लजा कर उठ खड़ी हुर्इ। फ्राक का घेरा घुटनों तक ढांक लिया। उसने सोचा कि आदमी जल्द ही हट जाएगा किन्तु वह आदमी बड़ा बेषर्म निकला। उसने खड़े-खड़े तौलिया सामने की तरफ से पूरा खोल दिया। अंदर वह कुछ भी पहने न था। बिलौटी घबरा गर्इ। उसने भागना चाहा। उसके कदम थरथराने लगे। तालू सूखने लगा। आदमी वहीं खड़ा, इत्मीनान से मूतने लगा। बिलौटी आधा मल-त्याग कर पार्इ थी कि सरपट भाग गर्इ और अपनी अनियंत्रित सांसों पर काबू पाया।
कुछ देर बाद जब वह स्थिर हुर्इ तो सोचा कि सनीचरी को बता आए। उसके बाल-मस्तिष्क में उस घटना ने अजीबो-गरीब परिवर्तन कर दिए थे। सनीचरी ने जब वह घटना सुनी तो बेतहाषा हंसने लगी।
बिलौटी के लिए आदमी की नग्न देह कोर्इ नर्इ चीज़ न थी। पगली मां के पास रात-बिरात आने वाले मर्दों को वह जानवर बनते देख चुकी थी। इस तरह दिन के उजाले में, किसी समझदार आदमी की हरकत उसमें कुतूहल जगा गर्इ। बिलौटी ने उस घटना पर कर्इ कोण से विचार किया। ये तो तय था कि वह आदमी अपने कार्य से अनजान न था। वह भली-भांति जानता था कि बिलौटी उसे देख रही है। उसने भी बिलौटी को अच्छी तरह देखकर वह हरकत की थी। फिर उसने ऐसा क्यों किया?
अगली सुबह बिलौटी कुछ देर से उठी। पगली मां ने उसका झोंटा पकड़कर खींचा। दिन काफी निकल आया था। पगली मां बासी डबलरोटी को पानी के साथ अपने मुंह में ठूंस रही थी। बिलौटी को भी भूख लग आर्इ। पहले दिषा-मैदान से फारिग होना आवष्यक था। इसलिए वह रद-बद कचरा पेटी के पीछे भागी। अभी वह फ्राक उठाकर बैठी ही थी कि तौलिया कमर पर बांधने का प्रयास करता वह आदमी पुन: प्रकट हो गया। आज भी वह बिलौटी को देख रहा था। बिलौटी उसी तरह बैठी रही। फ्राक का घेरा खींच कर उसने सामना ढंक लिया। सामने खड़ा आदमी बीस-पच्चीस हाथ की दूरी पर खड़े बाएं-दांए देख रहा था। सुनसान पाकर उसने तौलिया सामने की तरफ से उठा लिया और पेषाब करने की मुद्रा में उसके सामने खड़ा हो गया। वह पेषाब नहीं कर रहा था। उसका चेहरा, जिसमें घनी मूंछें और घुंघराले बाल थे, बेहद उत्तेजित और घृणास्पद दिख रहा था। उसकी रोमहीन छाती खुली थी। बिलौटी जाने क्या सोच कर उठी नहीं, बैठी-बैठी उस व्यक्ति की विवेकहीन दषा का अवलोकन करने लगी। उसका दिमाग सांय-सांय कर रहा था। तभी एक दूसरे क्वाटर का पिछला दरवाज़ा खटका। एक मोटी महिला कचरा फेंकने बाहर आर्इ। वह आदमी तीर की तरह अपने क्वाटर में भाग गया। बिलौटी को इस खेल में मज़ा आया। यह क्रम कर्इ दिन चला।
गर्मियों की उमस भरी दुपहर थी। पोस्ट-आफिस के लेटर बॉक्स के समीप वह आदमी खड़ा था। बिलौटी ने देखा, पगली मां सो रही है। आदमी उसे मुसलसल घूरे जा रहा था। फिर वह अपने क्वाटर की तरफ चला गया। सड़क किनारे लगे गुलमोहर और पीपल के पत्ते झड़े रहे थे। बेहद गर्म दुपहर, बिलौटी का कंठ सूखने लगा था। मिट्टी का घड़ा, जिसका मुंह टूटा था, पानी ठंडा कर पाने में असमर्थ था। ““ाायद उसके असंख्य छिद्र बंद हो चुके थे। पानी पी कर उसे कुछ सुकून मिला। उस आदमी का प्रकट होना और फिर ग़ायब हो जाना, रहस्यात्मक था। पगली मां भीख मांग कर आज कुछ देर से आर्इ थी और खा-पीकर बेसुध पड़ी थी। बिलौटी उठकर पीछे नाली की तरफ चल दी। कचरा पेटी के पास पहुंची ही थी कि वह आदमी पेंट-षर्ट पहने पिछला दरवाजा खोल, अचानक नमूदार हुआ। वह इषारे से उसे बुला रहा था। बिलौअी के होषो-हवास गुम हुए। स्वाभाविक चाल चलता वह उसके पास आ पहुंचा। बिलौटी उसके साथ पिछले दरवाजे से उसके घर चली गर्इ। अब वह उसके आंगन में थी। आंगन में अमरूद का पेड़ था, जिसके पीले, सूखे पत्ते झड़े हुए थे।
वह आदमी अब बरामदे में खड़ा उसे घर के अंदर दाखिल होने का इषारा कर रहा था। उसके पीछे-पीछे बरामदे से होते हुए वह उस कमरे में आ गर्इ, जहां प्लास्टिक की चार कुर्सियां, एक चाय की टेबिल, एक चौकी और कोने में एक रंगीन टीवी रखा था। रंगीन टीवी पर गाने आ रहे थे। बिलौटी को ‘घरनुमा’ माहौल की पहली अनुभूति सुखद लगी। कमरा ठंडा था। बाहर की खिड़की पर लगा ‘कूलर’ ठंडी हवा फेंक रहा था। कूलर की तेज़ आवाज़ के कारण गाने की आवाज़ कम सुनार्इ दे रही थी।
वह ज़मीन पर बैठने लगी। आदमी उसे चौकी पर बैठने को कह अंदर दूसरे कमरे में चला गया। चौकी पर नरम-मुलायम गद्दा बिछा था, जिस पर बड़े-बड़े पीले फूलों के छाप वाली चादर डली थी। गद्दे पर वह झिझकते हुए बैठी। सिकुड़ी-सिमटी सी ताकि चादर मैली न हो जाए। उसे अपनी फटी-पुरानी फ्राक पर “ार्म आने लगी। जाने किसकी उतरन पगली मां ले आती है, फिर थिगड़ी-सिलार्इ के बाद बिलौटी को पहनाती। इसके पहले अपने कपड़ों से इस तरह नफ़रत उसे और कभी न हुर्इ थी।
आदमी लौट आया। उसके एक हाथ में क्रीम वानी बिस्किट थी। आदमी भी चौकी पर उसकी बगल में बैठ गया और बिलौटी की तरफ बिस्किट बढ़ाया। संकोच के साथ बिलौटी ने बिस्किट लिया और कोने से कुतरने लगी। ये क्या....इतना कुरकुरा, मुंह के अंदर इतना घुलनषील, इतना सुगंधित मीठा बिस्किट। पहली बार मिले इस स्वाद से उसका बाल मन तृप्त हुआ। उसने आदमी को कृतज्ञ नज़रों से देखा। आदमी फिर से अंदर चला गया। अब जो लौटा तो उसके हाथ में प्लास्टिक की बोतल थी। बोतल का पानी गिलास में उड़ेंल कर उसे दिया। बिलौटी गिलास छूते ही चकरा गर्इ। एकदम ठंडा पानी। गिलास के बाहर की सतह पर ओस सी जम गर्इ थी। गटगटा कर वह पानी एक सांस में पी गर्इ। उसने महसूस किया कि ठंडा पानी किस तरह, किन-किन रास्तों से उसके पेट में पहुंच रहा है। उसे बहुत मज़ा आया। एक गिलास पानी और मांग कर पी गर्इ वह। आदमी उसकी बगल में इत्मीनान से बैठ गया और उसका नाम पूछा। उसने दुबारा नाम पूछे जाने पर अपना नाम बताया-’’बिलौटी..’’
आदमी नाम सुनकर, उसके चेहरे पर बिल्ली सी भूरी आंखों को गहरे से देखते हुए कहा-’’आते रहना, मौका देखकर।’’
वह चुप रही।
आदमी ने उसके रूखे बालों को सहलाते हुए उसे अपने ऊपर खींचा। आदमी का स्नेहिल स्पर्ष उसे सुखद लगा। वह खिंची चली गर्इ। अब वह उसकी गोद में थी। पगली मां का उसे रत्ती भर भी ध्यान न था। सामने टीवी पर गाने के दौरान हीरोर्इन ठीक उसी तरह हीरो की गोद में बैठी थी। हीरो उसे दुलार रहा था। आदमी ने उसे बाहों में भर लिया। बिलौटी का दम घुटने लगा। उस आदमी के चेहरे पर तनाव के लक्षण नज़र आए। गाल तनतना कर लाल हुए जा रहे थे। उसकी सांसें ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर अनियंत्रित भागने लगीं। बिलौटी की हालत भी कोर्इ अच्छी न थी। अनजानी आषंकाओं से वह भयभीत हो उठी और रोने लगी। आदमी उसे चुप कराने लगा। इसी दरमियान उसने बिलौटी का मुंह चूम लिया। बिलौटी को अच्छा लगा। अचानक आदमी कांपने लगा। बड़ी ज़ोर से उसने बिलौटी को भींचा। लगा कि उसका दम अब निकला कि तब। फिर वह गद्दे पर लुढ़क गया। उसकी सांस ऐसी भाग रही थी ज्यों कोसों दूर से दौड़ता चला आया हो। फिर उसकी बांहों में भींचे-भींचे वह “ाांत हो गया।
उसकी पकड़ ढीली हुर्इ तो बिलौटी छिटक कर अलग हो गर्इ। आदमी लेटे-लेटे ही जेब से पांच रूपए को एक नोट निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। वह चकित थी। किस बात के पांच रूपए वह दे रहा था, वह समझ न पार्इ। फिर भी रूपए लेकर वह भाग गर्इ।
पांच रूपए उसके लिए काफी मार्इने रखते थे। उसे चुपचाप खपाना उस अकेले के बस की बात नहीं थी। उसके सामने यह एक नर्इ समस्या आ गर्इ थी। पगली मां जान जाएगी तो बिलौटी उससे क्या बहाना बताएगी?
ऐसे कठिन समय मे अंडे वाली बुढ़िया की पोती सनीचरी ही बिलौटी का एकमात्र सहारा थी।
सनीचरी थी एक नम्बर की चटोरी-खर्चीली। उसने बिलौटी से ज्यादा जिरह न की, बस दोनों चुपचाप अनपरा बाजार तक दौड़ती-कूदती पहुंच गर्इं।
वहां दोनों ने चाट-पकौड़ी खार्इ, क़ीपती बिस्किट खरीदा। वह बिस्किट इतना लजीज़, मीठा, घुलनषील और कुरकुरा तो न था, लेकिन फिर भी बिलौटी उस स्वाद से इस स्वाद की तुलना कर बैठी।
एक टेलीविज़न की दुकान के सामने घंटा भर दोनों खड़ी रहीं।
वहां आठ-दस रंगीन टीवी पर किसी विदेषी चैनल का एक ही दृष्य दिखलाया जा रहा था। समुद्र के किनारे विदेषी औरतें बिकनी पहने धूप की सेंक का आनंद उठा रही हैं। कहीं औरतें और मर्द बिंदास आलिंगनबद्ध हैं। समुद्र की आती-जाती लहरों पर कर्इ मर्द-औरतें अठखेलियां खेल रहे हैं। सनीचरी ने जब देखा कि टीवी दुकान का छोकरा उन्हें बड़ी देर से घूर रहा है तब उसने बिलौटी का हाथ दबाया और दोनों ने सोचा कि अब घर लौटा जाए वरना बड़ी कुटार्इ होगी।
स्नीचरी, बिलौटी से दो-तीन साल बड़ी थी। नाटे क़द की दुबली-पतली लड़की। झबरे-लटियाए बाल। सनीचरी की फ्राक के सीने के हिस्से पर मैल जमा होकर उभार का आकार लेने लगा था।
लौटते समय दोनों नाले के किनारे आमने-सामने बैठ कर फारिग होने लगीं।
सूरज डूबने वाला था।
उन्हें लौटना भी था।
नाले के पानी से “ाौचते समय सनीचरी का पैर फिसला और वह गिर पड़ी। उसकी फ्राक गीली हो गर्इ।
सनीचरी फ्राक उतारकर निचोड़ने लगी।
बिलौटी उसकी छाती के नन्हे उभारों को देख हंसने लगी।
तब सनीचरी ने बताया कि उसके भी तो उगेंगे।
फिर हाथों से कटोरेनुमा आकार बनाकर बताया-’’ये इत्ते बड्डे-बड्डे होंगे स्साली!’’
लौटकर दोनों चिड़िया जब अपने घोंसलों में पहुंची, तब रात घिर आर्इ थी। लोग दिया-बत्ती जला चुके थे। पगली मां बिलौटी को देख सनक गर्इ और मोटी-मोटी गालियों से उसका स्वागत किया
फिर वह बिलौटी को पीटने लगी।
बिलौटी का अनपरा बाजार का सारा खाया-पिया बराबर हो गया। सारी मस्ती निकल गर्इ। हां, मार खाकर बिलौटी ने सोचा कि चलो हिसाब-किताब बराबर हुआ। अब पगली मां बैठकर घण्टों रोएगी। मां मारती ज़रूर है, लेकिन कमज़ोर जगहों पर कतर्इ नहीं कि बिलौटी मारे दर्द के बिलबिला जाए। बस, झोंटा पकड़कर खींचते हुए पीठ पर दनादन मुक्के बरसाती है मां। कभी बहुत ज्यादा नाराज़ होने पर छड़ी उठाकर पीठ पर मारती है मां। इतने से बिलौटी पर क्या असर पड़ता।
मार का असर कम हुआ तो बिलौटी उठी।
अंगीठी पर कोयला बीन कर डाला और फिर पगली मां की बगल में आकर लेट गर्इ। थकी-मांदी तो थी ही, झट गहरी नींद की आगोष में चली गर्इ।



बिलौटी के दिन मज़े में बीत रहे थे।
उसे इस नए खेल में मज़ा आ रहा था।
हर दूजे-तीजे दिन, सुनसान का फ़ायदा उठाकर पिछले दरवाज़े से बिलौटी उस आदमी के क्वार्टर में चली जाती और पांच-दस रूपए का जुगाड़ बना लेती।
पिछला दरवाज़ा तभी खुला मिलता जब आदमी घर में अकेला होता, अन्यथा दरवाज़ा बंद ही रहता।
मज़े की बात यह थी कि बिलौटी के साथ ऊपरी छेड़छाड़ के अलावा वह अन्य कोर्इ बलात् हरक़त नहीं करता था। बिस्किट खिलाता, मिठार्इ, िफ्ऱज़ का ठंडा पानी या “ारबत पिलाता, गोद में बिठाता, प्यार-दुलार करता। कभी सीने से लगाकर ज़ोर से भींचता, कभी गाल को थूक से भर देता। ऐसे समय बिलौटी को उस आदमी के खूंटी उगे गाल और दाढ़ी की चुभन सुखद लगती। कभी-कभी वह बहुत हड़बड़ाया हुआ होता और बिलौटी को अपनी टांगों के बीच कस लेता। ऐऐ समय वह इस तरह हांफता जैसे मीलों दौड़कर आया हो। वह हांफते-हांफते निढाल हो जाता। उसकी सांसें नियंत्रण से बाहर हो जातीं। आंखें मुंद जातीं। फिर वह थक जाता और बिलौटी उसके चेहरे पर थकान की इबारत साफ़-साफ़ पढ़ लिया करती।
बिलौटी जानती थी कि अब जब उसकी चेतना लौटेगी तब वह बहुत बेचैन होकर उसे घर से बाहर निकालने की जुगत करेगा।
पता नहीं क्यों थकान के बाद उस आदमी के मन पैदा हुर्इ विरक्ति से बिलौटी को चिढ़ हुआ करती।
ऐसे हालात में बिलौटी को जवान होने के लिए साल या माह की ज़रूरत न थी। वह दिन-प्रतिदिन उम्र का एक-एक बरस लांघ-कूद रही थी। उसके चेहरे पर नमक दिखने लगा था। कूल्हे आकार लेना चाहते थे। सपाट सीने पर नुकीले उभार कषमकष कर बाहर आना चाहने लगे तो पगली मां का दिमाग ठनका।
पगली मां ने देखा कि सनीचरी और बिलौटी के बीच फुसफुसाहटें बढ़ती जा रही हैं। वे गुप-चुप बात कर अनायास हंसने लगती हैं। फिर पगली मां को देख हठात चुप भी हो जाती हैं।
बिलौटी की सयानी होती देह के कारण पगली मां गुस्साकर उसे खूब गरियाती-लतियाती, लेकिन क्या इससे बिलौटी की देह की बढ़त पर लगाम लगता?
पगली मां न चाहती कि बिलौटी उसकी नज़र के सामने से तनिक देर भी ग़ायब रहे। लेकिन बिलौटी मां की आंखों में धूल झोंककर उस आदमी के क्वार्टर चली ही जाती।
वह जो भी चाहता, बिलौटी आंख मूंदकर मान जाती।
वह आदमी उसका एक दोस्त सा बन गया था।
उसने ही चर्चा के दौरान बिलौटी को बताया था कि पगली मां के पास कभी-कभी आने वाले रमाकांत की भूरी-बिल्ली आंख और बिलौटी की बिल्ली जैसी भूरी आंख में समानता क्यों है? उसे पगली मां से घृणा होती। जबकि उसका अपना जीवन खुद पथरीली राह का मुसाफ़िर था!
वह देखती कि कालोनी की उसकी हमउम्र लड़कियां कितनी चहकती रहती हैं। स्कूल बस में वे गाती-गुनगुनाती स्कूल जाती हैं। स्टेंड छोड़ने आए अपने मम्मी-पापा से कितना ज़िद करती हैं, इठलाती हैं ऐसे कि जैसे उनकी नाक से दूध जा रहा हो! जबकि उन लड़कियों की उम्र सनीचरी से भी ज्यादा होगी।
तीज-त्योहारों पर ये लड़कियां स्वप्न-लोक की परियों सी उड़ती, फुदकती रहती हैं।
एक सुबह जब बिलौटी सोकर उठी तो उसका सारा जिस्म दर्द से ऐंठ रहा था। उसने अपना माथा छूकर देखा तो लगा बुखार हो उसे। पेट के निचले हिस्से में भी मीठा-मीठा सा दर्द कोंचे जा रहा था।
उसने फ्राक उठाकर अपना पेट सहलाया और जब उसकी अंगुलियां चढ़ आर्इ चड्डी ठीक करने लगीं तो उसे कुछ गीलापन महसूस हुआ। हाथ बाहर किया तो वह अवाक रह गर्इ। अंगुलियां खून से सन गर्इ थीं। वह डर कर रोने लगी। उस आदमी के संसर्ग से वह इतना तो जान गर्इ थी कि औरत की देह में एक मार्ग ऐसा भी होता है, जिस पर चलने के लायक अभी वह हुर्इ नहीं है। किन्तु क्या रात अनजाने में उसने ऐसा कोर्इ ऐसा सफ़र तय तो नहीं कर लिया, जिस पर अभी उसे नहीं चलना था।
बिलौटी सिसक-सिसक कर रोने लगी।
उसे अपनी मां के पागलपन के कारण भी रोना आ रहा था।
पगली मां सुबह-सुबह उसका रोना सुनकर घबरा गर्इ और एक मोटी सी गाली देकर बिलौटी से रोने का कारण पूछा।
बिलौटी को पहली बार अपने जिस्म से नफ़रत हुर्इ और अपनी दषा पर “ार्म भी आर्इ।
उसने पगली मां के सामने अपनी फ्राक उठार्इ।
पगली मां ने जब खून से भीगी उसके अंतर्वस्त्र देखे तो वह हंसने लगी।
उसने बिलौटी को राज़ की कुछ बातें बतार्इं।
सनीचरी आर्इ तो बिलौटी उससे लजाने लगी।
पगली मां ने बिलौटी की नादानी का किस्सा उसे बताया। सनीचरी भी खूब हंसी फिर उसने बिलौटी को बताया कि इस उम्र से ‘अइसर्इ’ होना “ाुरू हो जाता है, इससे ‘काएको’ घबराना रे!
बिलौटी तो समझ गर्इ उसकी बात और एक बात अच्छी तरह जान गर्इ कि अब बचपन अचानक उसके पास से जुदा हो गया है।
अब वह सयानी हो गर्इ है।
अब यदि नादानी हुर्इ तो उसके गम्भीर परिणाम उसे भुगतने पड़ सकते हैं।
पगली मां ने बिलौटी के उठने-बैठने पर अघोषित प्रतिबंध लगाने लगी। उसे समाज और संसार की ऊंच-नीच के बारे में अपने अर्जित ज्ञान से दीक्षित करने का प्रयास करने लगी। उचित “ाब्दावली के अभाव में पगली मां जब कोर्इ बात को समझा न पाती तब फिर गालियां और लात-जूते की भाषा का सहारा लेती।
सनीचरी ने बिलौटी को पुराने कपड़े की ‘पेड’ बनाकर उपयोग करना सिखा दिया, ताकि महीने के उन चंद दिनों में उसे परेषानी न हो।
हां, पगली मां ने एक फटी-पुरानी राजस्थानी साड़ी का आंचल फाड़कर बिलौटी को दिया कि अब इस दुपट्टे से वह अपना सीना ढांककर रखा करे।
बिलौटी उम्र के जिस पड़ाव पर थी वहां ऊंच-नीच, पाप-पुण्यत्र लाभ-हानि, जात-बिरादरी, आदि “ाब्द निरर्थक और बेकार थे।
किषोरावस्था तो सपने देखने की उम्र होती है।
यह उम्र रीति-रिवाज़ों की धारा बदल देने की क्षमता रखती है।
इस उम्र में इंसान के अंदर अद्भुत उर्जा होती है।
इस उम्र में इंसान खुद रास्ता तलाषना और फिर उस पर निडर चलना चाहता है। वह नहीं चाहता कि कोर्इ उसे बच्चा समझे और क़दम-क़दम पर उसे ‘गार्इड’ करे। वह खुद अपना भाग्य-विधाता बनना चाहता है।
एक दिन सनीचरी ने बिलौटी से उसकी जाति जाननी चाही।
तब बिलौटी मौन रह गर्इ।
उसने आज तक इतने सवालों का सामना किया था, लेकिन जाति वाली बात तो आज तक किसी ने न की और न ही उसे इसकी ज़रूरत पड़ी थी।
तब सनीचरी ने स्वयं बताया कि बिलौटी ‘चमार’ है।
बिलौटी ने हंस कर मान लिया।
उसे क्या फ़र्क पड़ता यदि वह राजपूत होती या फिर ‘बामन’ होती।
और फिर ‘चमार’ होना या बन जाने के लिए किसी प्रमाण की आवष्यकता नहीं पड़ती और न किसी गौरवषाली वंष-वृक्ष की ही। चमार कहलाए जाने पर ऐसा भी नहीं है कि चमार लोग विरोध करें। हां, यदि उसे खुद को बाभन, राजपूत, कुर्मी, भुमिहार, अहीर आदि बड़ी जातियों से जोड़ेने की ज़रूरत पड़ जाए तो बेषक सम्बंधित जातियों के लोग उसका विरोध कर सकते हैं।
बिलौटी ने पगली मां से अपनी जाति के बारे में जानना चाहा तो वह मौन बैठी रही।
दुबारा-तिबारा पूछे जाने पर तमाम ज्ञात-अज्ञात जातियों को मां-बहिन की गालियां बकने लगी। बिलौटी की वही अध्यापक थी, वही स्कूल, वही कोर्स की किताबें, वही परीक्षक भी। वैसे भी बड़े-बड़े स्कूलों से पढ़े आलिम-फाजिल बिना नौकरी बेकार घूमते हैं, पगली मां की पाठषाला से गालियों का पाठ सीखकर यदि बिलौटी भी बेकार थी तो इसमें क्या आष्चर्य...
बिलौटी का जीवन पुन: पुराने ढर्रे पर चलने लगा।
पगली मां उसके लिए कहीं से मांग कर साड़ी-लहंगा और ब्लाउज़ ले आर्इ।
जब वह साड़ी-ब्लाउज़ पहनी तो मारे हंसी के सनीचरी लोटपोट हो गर्इ।
ब्लाउज़ बहुत बड़ा झोलंगा सा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ठूंठ पर कपड़ा डाल दिया गया हो। जैसे कि बिजूका!
सनीचरी के पास ब्लाउज़ की सार्इज़ कम करने का आर्इडिया था।
वह घर से सुर्इ-धागा ले आर्इ।
आस्तीन और सार्इड को मोड़कर सुर्इ-धागे से सी दिया कि ब्लाउज़ की ‘फ़िटिंग-टार्इट’ हो गर्इ। अब ब्लाउज़ बिलौटी के बदन पर फिट बैठा। इसी तरह लहंगे को भी नीचे से मोड़कर छोटा कर दिया गया था। साड़ी-ब्लाउज़ पहनकर बिलौटी ऐसी दिखने लगी, जैसे वह कोर्इ लड़की न हो बल्कि औरत हो। पगली मां को बिलौटी के इस रूप से प्यार हुआ। पगली मां, आंगन में फेंकी गर्इ टुटही कंघी लेकर बिलौटी के बाल बड़े प्यार से संवारने बैठ गर्इ। बिलौटी अपनी मां के इस आदत में बदलाव से बड़ी अचरज में थी।




यही उसी दिन की बात है।
जब “ााम के ढलने पर आदतन घूम-फिर कर पगली मां लौटी तो काफी खुष थी।
बिलौटी ने मां का चेहरा इतना प्रसन्न कभी न देखा था। सूखे छुहारे से निस्तेज चेहरे पर मुस्कुराहट की लकीरें उसके चेहरे को अजनबी सा बना दे रही थीं। उसने मां की खुषी का कारण जानना चाहा।
पगली मां ने बताया कि यादव पुलिसवाले के छोटे भार्इ भूनेसर यादव को कॉलोनी मे कचरा-सफार्इ का ठेका मिला है। रमाकांत और भूनेसर पक्के दोस्त हैं। संग दारू पीते हैं और छिनरर्इ भी साथ ही करते हैं। रमाकांत की सिफ़ारिष पर भूनेसर यादव ने पगलिया और उसकी बेटी बिलौटी पचास क्वाटरों के क्षेत्र की सफार्इ की जिम्मेदारी सौंपी है। पगली मां को अपने दम काम न मिल रहा था, इसलिए रमाकांत के कहने पर पगली मां बिलौटी को भी साथ लाने को तैयार हुर्इ।
बिलौटी रमाकांत को जानती थी कि वह उसका बाप है, लेकिन भूनेसर यादव उसे फूटी आंख यन भाता था। रमाकांत के साथ कभी-कभी भूनेसर यादव जब पगली मां के पास आता तो वह उसे घूर-घूर कर देखा करता था।
बिलौटी ने सोचा कि कहीं उसे अपने चंगुल में फांसने के लिए तो भूनेसर यादव ने पगली मां को काम पर रखा है? खै़र, वजह चाहे जो हो, हां, खाली पड़े-पड़े जीवन गुजारते बिलौटी ऊब रही थी। इसलिए उसने मां को हामी भर दी।
फिर वह सनीचरी के साथ दोपहर के समय कॉलोनी भी चली गर्इ, ताकि काम का जायज़ा ले ले। सनीचरी ने उससे भी काम दिलवाने की सिफ़ारिष की, लेकिन बिलौटी ये कहकर टाल गर्इ कि पहले देखते हैं कि काम किस तरह का है और ‘‘र्इ ठीकेदार ससुरा पर्इसा-वर्इसा मारता तो नहीं।’’
कोयले की खुली-खदान के कर्मचारियों को अच्छा वेतन मिलता था और पदानुसार उन्हें सरकारी आवास भी आबंटित होता था।
पचास क्वार्टरों का जो क्षेत्र बिलौटी और पगली मां की टीम को सफार्इ के लिए मिला था, उस कॉलोनी का नाम सेक्टर-सी था। तीन-तल्ला मकान का एक ब्लाक, जिसमें छ: क्वार्टर थे। हर ब्लाक के चारों तरफ बाउण्डरी थी।
बिलौटी लोगों का दायित्व था कि हर ब्लाक की साझा सीढ़ी के कचरे और बाउण्डरी-वाल के बाहर फेंके गए कचरे की सफार्र्इ प्रतिदिन की जाए।
सप्ताह में एक बार ट्रेक्टर आएगा, जिसकी ट्रॉली पर कचड़ा भरने का जिम्मा भी उन्हीं लोगों की टीम का होगा।
अगली सुबह जब पगली मां और बिलौटी भूनेसर यादव के ठीहे पर गए तो देखा कि वहां उनके जैसे कर्इ मज़दूर और रेजाएं काम बंटने की प्रतीक्षा में हैं।
अभी ठीकेदार भूनेसर यादव अपने डेरे से बाहर नहीं निकले हैं।
सुबह की धूप अब तीखी हुआ चाहती है। कहीं छांह का नामो-निषान नहीं।
सभी मज़दूर इधर-उधर गुट बनाए बैठे या फिर खड़े गपिया रहे हैं
पगली मां और बिलौटी जब वहां पहुंची तो देखा कि वहां मज़दूर लोग उन्हें देखते ही चुपा गए। एक सन्नाटा सा छा गया।
सभी बिलौटी और पगली मां की इस कामगार जोड़ी को देख अचंभित थे।
वैसे भी पगली का इस क्षेत्र में आना, फिर उसका गर्भवती होना और बिलौटी का उत्पन्न होना एक बतकही का मसाला तो था ही। सब जानते थे कि पगली अपने जवानी के दिनों में कर्इ ‘समरथ’ लोगों का एक खिलौना थी। मनबहलाव का साधन।
इसी से उसकी रोजी-रोटी चल रही थी।
रमाकांत और पगली प्रसंग कोर्इ ज्यादा पुरानी घटना तो थी नहीं।
किषोरवय बिलौटी उन मज़दूरों के आकर्षण का केंद्र बन गर्इ।
वाकर्इ वह साड़ी-ब्लाउज़ में खूब जंच रही थी।
मज़दूर औरतें सोच रही थीं कि अब ठीकेदार जब तक इस लड़की को खराब न कर लेंगे तब तक चैन से न बैठेंगे। हां, तब तक उन लोगों की जान बची रहेगी।
बिलौटी ने उनकी तरफ ध्यान न दिया और भूनेसर यादव की प्रतीक्षा करने लगी।
नौ बजे के करीब भूनेसर यादव अपने मुंषी के साथ डेरे से बाहर आया और मुंषी लोगों को काम और जुगाड़ बांटने लगा।
पगली मां भूनेसर यादव के पास गर्इ और ठेकेदार ने मुंषी को उन्हें एक बेलचा, झाड़ू और एक तसला देने का आदेष दिया।
बेलचा, झाड़ू और तसला पाकर बिलौटी खुष हुर्इ।
बीस रूपए डेली की हाजिरी और सप्ताह में एक दिन छुट्टी।
यानी चालीस रूपए रोज़ की आमदनी होगी।
इस तरह पच्चीस दिन के एक हज़ार रूपए...
बिलौटी की आंखें फैल गर्इं।
एक हज्ज्ज्ज्ाार रूपिया....महीना....
मां-बेटी ने मिलकर अपने ब्लाक की अच्छे से सफार्इ की।
हां, सफार्इ के दौरान एक पतली-दुबली छोकरी सी औरत ने क्वार्टर से निकल कर उन्हें खाने के लिए डबल-रोटी दी और मुस्कुरार्इ भी।
ऐसी ही एक और दयालु महिला थी वहां, जो कि इसार्इ नर्स थी।
दुपहर में वह काम से लौटी तो पगली मां और बिलौटी को बाउण्डरी-वाल के साए में सुस्ताए हुए पाया।
सफेद-झक कपड़े पहने उस नर्स ने बिलौटी से पूछा-’’क्या रे, इदर क्या करता तुम लोग?’’
तब बिलौटी ने बताया कि उन लोगों को आज से इस ब्लाक की सफार्इ का काम मिला है।
नर्स सुनते हुए तीन-तल्ला में जा समार्इ।
फिर दूसरे माले की बालकोनी पर नर्स नज़र आर्इ।
उसके हाथ में एक पोलीथीन का पैकट था।
उसने ज़ोर से आवाज़ लगार्इ-’’एर्इ...लड़की!’’
बिलौटी दौड़कर बालकोनी के नीचे जा खड़ी हुर्इ।
तब नर्स ने ऊपर से वह पोलीथीन का पैकट नीचे गिरा दिया जिसे बिलौटी ने लपक लिया।
उस पोलीथीन में केक के टुकड़े थे।
सच, बिलौटी पिछवाड़े वाले उस आदमी की संगत में खाद्य-पदार्थों की कर्इ वेराइटी से परिचित हो चुकी थी।
केक उसे वाकर्इ बहुत पसंद था।
मां-बेटी भुखमरों की तरह केक पर टूूट पड़ीं।
खा-पीकर एक बार पुन: दोनों सफार्इ के काम में जुट गर्इं।
तीन-तल्ला की सीिढ़़यों की सफार्इ तो आधा घण्टा का काम था।
बाउण्डरी-वाल के पीछे पड़े कचरे को बीन कर कचरा-पेटी में भरने में ज़रूर समय लगा, लेकिन “ााम चार बजे तक दोनों फुर्सत पा गर्इं।





उस रात बिलौटी और पगली मां को बहुत गहरी नींद आर्इ।
बिलौटी की नींद मर्दाना खुसुर-पुसुर की आवाज़ से खुली।
पता नहीं रात के कितने बजे होंगे।
हां, लगा कि रमाकांत और ठीकेदार भूनेसर यादव आए हुए हैं।
दोनों पिए हुए हैं।
बिलौटी का कलेजा धुकधुकाने लगा।
उसने अधखुली आंखों से माहौल का जाएज़ा लेना चाहा।
ऐसा लग रहा था कि वे दोनों पगली मां को किसी बात पर राज़ी करना चाह रहे हैं।
पगली मां बड़ी तन्मयता से उनकी बातें सुन रही थी।
मेन रोड पर बनारस जाने वाली रात्रि-सेवा बस का हार्न गूंजा।
भूनेसर यादव और रमाकांत उठ खड़े हुए।
उनकी फटफटिया स्टार्ट हुर्इ और उनके जाते-जाते पगली मां की गालियां उन पर बरसने लगीं-’’दहिजरवा के नाती, हर्रामी आपन बिटिया के संग सोवे का चाहत है...!’’
इन गालियों के आगे फटफटी कहां रूकती।
बिलौटी को माज़रा समझ में आ गया।
रात भर पगली मां नींद में बड़बड़ाती रही।





पगली मां और बिलौटी को कचरा-सफार्इ के काम पर लगा देख लोगों को हैरत हुर्इ।
चौराहे की पान गुमटी पर “ार्तिया भविष्यवक्ताओं के मुंह लटक गए।
‘र्इ पगलिया की बिटिया, किसी डरार्इबर या खलासी के संग भग जाएगी!’’
लोगों का क़यास ग़लत साबित हुआ।
उनकी अटकल-बाजियों से बेपरवाह पगली मां बड़ी तन्मयता से झाड़ू बुहारती और फिर बेलचा की मदद से कचरा तसले पर डाल देती। उस तसले को सिर पर उठाकर बिलौटी बाउण्डरी के बाहर बने कचरा-पेटी में पलट आती।
इस नव-जीवन का आनंद मां-बेटी ने खूब लिया।
पहली बार उन दोनों ने श्रम की महत्ता को जाना।
दिन-भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद रात में उन्हें ज़बरदस्त नींद आती।
कचरा कभी खत्म न होता और न उन्हें इधर-उधर सोचने की फुर्सत मिलती।
पगली मां भी मेहनत के कारण थकी-थकी रहती और अब वह लोगों को अकारण गालियां भी न बकती थी।
इधर एक बात बिलौटी ग़ौर कर रही थी कि ठीकेदार भूनेसर यादव उस पर अतिरिक्त रूचि ले रहा है। बिलौटी जिस पाठषाला की छात्रा थी, उसका कोर्इ प्रिंसीपल, हेडमास्टर या फिर टीचर नहीं हुआ करता। वहां का पाठ्यक्रम किसी राज्य-सरकार या केंद्र सरकार द्वारा संचालित नहीं होता। बिलौटी की पाठषाला के पाठ्यक्रम में व्यवहारिक-ज्ञान के अध्याय हुआ करते थे। ऐसा ही एक विषय दूसरों की निगाह की भाषा पढ़ने-समझने का था। बिलौटी उसमें पारंगत थी।
बिलौटी ने भूनेसर यादव ठेकेदार की निगाहों की भाषा का अनुवाद भी कर लिया था।
भूनेसर यादव अब अक्सर सेक्टर-सी की सार्इट पर काम के निरीक्षण के बहाने से आता तो पगली मां के पास आठ-दस मिनट समय देता और घूरे पर जहां बिलौटी कचरा डालने जाती कुछ ज्यादा समया दिया करता।
वह बड़े मनोयोग से बिलौटी को कचरा का तसला उठाए आते-जाते देखा करता।
बिलौटी जब घूरे के अंदर कचरा फेंकने के लिए जब तसले को दोनों हाथों से ऊपर उठाती, तो ब्लाउज़ के अंदर आकार ग्रहण करते उभारों की झलक मिलती। भूनेसर यादव ऐसे कोण से उसे निहारता, जिससे कचरा उलटती बिलौटी के जिस्म को सार्इड से और पाष्र्व-भाग का वह सूक्ष्म निरीक्षण कर सके।
बिलौटी भूनेसर यादव की निगाहों की मार से अन्जान न थी।
उसे अपने जिस्म के तमाम ढंके-छिपे हिस्सों पर भूनेसर यादव की निगाहों की चुभन बहुत देर तक महसूस हुआ करती थी। उसे ये सब अटपटा भी लगता था और अच्छा भी।



भूनेसर यादव यूपी का अहीर था।
खाया-पिया पट्ठा जवान।
आर्थिक आधार मज़बूत था, सो उसके व्यक्तित्व में आत्मविष्वास के कारण दबंगर्इ की झलक भी मिल जाती थी। वह सुदर्षन था, पैंतीस-छत्तीस साल का खेला-खाया युवक, तराषी हुर्इ मूंछें, संकरे माथे पर ढेर सारे बाल, कुर्ता-पैजामा और काली जैकेट उसकी विषिष्टता थी। संभवत: रात बिस्तर पर भी वह ‘ऐसर्इ’ सोता होगा।
उसके पास एक मोटर-सार्इकिल थी, जिस पर सवार होकर वह दौड़-धूप किया करता।
जब से पगली मां और बिलौटी को काम मिला था, उन लोगों ने भीख मांगना बंद कर दिया था। घर में पैसे आने से खान-पान और कपड़े-लत्ते की व्यवस्था ठीक हो गर्इ थी।
भूनेसर यादव माह भर बाद पगली मां के पास एक प्रस्ताव लेकर आया।
वह चाहता था कि पगली अपनी किषोरी बेटी के साथ आजाद-नगर स्थित उसके आवास के आसपास बस जाए।
जीटी रोड और रेलवे लार्इन के बीच की सरकारी जगह पर मजदूर और ठेकेदारों ने क़ब्ज़ा कर लिया था। वे वहां झोपड़ियां और मकान बनाकर गुजर-बसर करते। कोयला-खदान का अधिकतर काम ठेकेदारी श्रमिकों पर निर्भर था, लेकिन उनके लिए स्थार्इ-निवास का कोर्इ प्रावधान न था। इसलिए ऐसे ठेकेदार और श्रमिक इस नर्इ बस्ती में जीवन-यापन करते।
कोयले की खुली खदान में कोयले के साथ पत्थर-मिट्टी भी बाहर यार्ड में आ जाया करता था। बेचने से पूर्व उस कोयले से मिट्टी-पत्थर की अषुद्धि को छांट-बीन कर निकाल फेंकने का काम ठेकेदारी-श्रमिकों के ज़रिए किया जाता था। इस काम में सैकड़ों मज़दूर लगते। साथ ही कॉलोनी, सड़क, पुल, टंकियां और रेलवे-लार्इन आदि निर्माण कार्य में हज़ारों की तादाद में इस इलाके में मज़दूरों की खपत है।
ये मज़दूर देष के लगभग सभी प्रांतों से यहां आते हैं।
उन लोगों ने अपनी बस्ती को एक नया नाम भी दे दिया था-’’आज़ाद नगर’’
आजाद-नगर यानी भारतीय संविधान की तमाम धाराओं, उपधाराओं, अनुच्छेदों, नियम-कानूनों से आजाद नगरी।
यहां अधिकार की भावना का बोध तो था लेकिन कर्तव्य के प्रति उदासीनता देखी जाती थी।
हां, प्रषासन, व्यवस्था और सरकार के लिए यहां सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और धर-पकड़ की गुजार्इष थी। भूख, बीमारी, बेकारी, गरीबी, मृत्यु की भरपूर आजादी का नाम था बस्ती आजाद-नगर। आजाद नगर में दारू भट्टी थी, कसार्इ-घर था, चांदसी दवाखाना था, गांजा-अफ़ीम के अड्डे थे, सट्टा-मटका के दलाल थे, रंडियां थीं और इर्ंधन के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयला था।
आजाद नगर में पेयजल की व्यवस्था न थी।
नहाने-धोने के लिए नकटा-नाला का पानी उनकी ज़्ारूरतों पूरी किया करता।
पीने के पानी के लिए कोयला-खदान की कालोनियों के लिए आजाद नगर से गुज़री पार्इप-लार्इन के लीकेज वाले पानी का इस्तेमाल तमाम आजाद नगर-वासी करते।
चूंकि आजाद नगर बस्ती कोयला खदान से सटी हुर्इ थी, इसलिए कोयले में विस्फोट से या फिर डम्परों के आवागमन से उड़ती धूल हवा के बहाव के साथ आजाद नगर के वायुमण्डल पर हमेषा छार्इ रहती।
“ााम के समय, काम से लौटे मज़दूर अपनी-अपनी झोंपड़ियोंं में कोयले के चूल्हे या भट्टियां सुलगाया करते। इससे आजाद-नगर सुलगते-कोयले के सफेद धुंए से ढंक जाया करता। आजाद नगर के पष्चिमी कोने मे कोयला-माफिया सुरिन्दर बाबू की दया से एक भव्य ‘षिव-मंदिर’ बना है। कहते हैं कि सुरिन्दर बाबू जब इस इलाके में आए थे तो एकदम्मे गरीब थे। जिस जगह षिव-मंदिर बना है, वहीं उनकी झोंपड़ी हुआ करती थी। वह कोयला के ढेर से मिट्टी-पत्थर छांटने वाले मज़दूर से तरक्की करते-करते, मेट-मुंषी हुए, फिर धीरे-धीरे स्वयं ठीका लेने लगे। जोड़-तोड़ का भाग्य चमका, क्योंकि तभी जो प्रोजेक्ट-ऑफीसर आया वह सुरिन्दर बाबू की बिरादरी का निकल गया और जिला-जवारी भी था। वैसे सुरिन्दर बाबू इस समीकरण को नहीं मानते, वह अपनी तरक्की का दारोमदार पूरी तरह भोलेनाथ भण्डारी पर डाल देते और बोल-बम का नारा बुलंद किया करते।
षिव-मंदिर तक कोयला खदान वालों ने पेयजल की पार्इप-लार्इन बिछवा दी थी।
षिव-मंदिर के आस-पास ज्यादातर ठेकेदार और मुंषियों के आवास थे। इसलिए ये लोग पेयजल की पूर्ति षिव-मंदिर से किया करते।
महाषिवरात्रि के अवसर पर सुरिन्दर बाबू इस षिव-मंदिर पर जल स्वयं चढ़ाया करते, इस मौके पर बनारस से उनका परिवार भी आया करता। वैसे सुरिन्दर बाबू अपने बंगले में अकेले ही रहा करते थे।
आजाद-नगर में भूनेसर यादव ने भी लगभग दो एकड़ के क्षेत्र में क़ब्ज़्ाा किया हुआ था। सीमेंट र्इंट की बाउण्डरी धिरा था भूनेसर यादव का आवास।
पगली मां का घूमा-फिरा इलाका था आजाद-नगर का।
रमाकांत की ऐयाषियों का पुराना इतिहास आजाद-नगर के चप्पे-चप्पे में दर्ज था।
कभी-कभी तो पी-खाकर यारी-दोस्ती मे वह कर्इ रातें आजाद-नगर में पड़ा रह जाता था।
पगली मां ने भूनेसर यादव के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसमे उसने कहा था कि वे लोग बस-स्टेंड के इस खुले माहौल से हट कर आजाद-नगर चले आएं। वहां भूनेसर यादव अपने आवास के आसपास उनके रहने की व्यवस्था कर देगा।
सयानी होती बेटी बिलौटी की सुरक्षा के लिए ये प्रस्ताव मान लेना ही हितकर था।
वैसे एक तरफ कुंआ, दूसरी तरफ खार्इ वाली बात थी।
कचरा फेंकने वाले ट्रेक्टर में मां-बेटी ने सारा सामान लादा।
सामान क्या था, कचरे का एक और ढेर ही तो था, जिसे सभ्य-समाज अमूमन फेंक दिया करता है। यही कचरा उन मां-बेटी की पूंजी थी, यही उनका सरमाया...






आजाद नगर पगली मां के सेहत का दुष्मन साबित हुआ।
बस-स्टेंड के टिन-षेड में वह पंद्रह-सोलह साल बिता चुकी थी। टिन-षेड मे ंजहां दीवारों की ज़रूरत न थी। पोलीथीन-बोरियों से घिरे उसके उस आवास में एक दरवाज़ा भी था, जिसकी सिटकनी लगने पर भी आधा फुट का फांक बचा रह जाता था। वह एक खुला-खुला प्रजातांत्रिक देष की तरह अहसास कराती व्यवस्था थी।
भूनेसर यादव ने उन लोगों को अपने आवास के पिछवाड़े की एक झोंपड़ी ही दे दी थी।
बिलौटी और पगली मां के लिए किसी बंद कमरे सांस लेने का ये पहला अवसर था। उन्हें ऐसा लगा कि उनका दम घुट जाएगा।
भूनेसर यादव की इस मेहरबानी से पगली मां बहुत विनम्र हो गर्इ थी। अव वह गालियां कम बकती। बिलौटी को पहले दिन तो वहां अटपटा लगा किन्तु सुख-सुविधाएं देख कर उसे लगा कि जैसे अभी तक वे लोग नरक-वास कर रहे थे।
मिट्टी की दीवारें जगह-जगह कबड़ गर्इ थीं, लेकिन उन्हें थोड़ा प्यार से सहला देने मात्र से वे दीवारें अवष्य चिकना जाएंगी।
छप्पर खपरैल की थी।
हां,मकान में पानी चूने के लक्षण दिखलार्इ नहीं पड़ रहे थे। इसका मतलब है कि ठीकेदार भूनेसर यादव झोंपड़ी की छानी के खपरैल हर सीजन में ‘फिरवा’ देता है। हो सकता है कि भूनेसर यादव की वह ऐषगाह हो!
झोंपड़ी के बाहर अमरूद का एक पेड़ है। उसके आसपास की मिट्टी अच्छी चिकनी है। पगली मां ने फावड़ा लेकर मिट्टी खोद डाली और उस मिट्टी को पानी से गीला करके उसने झोपड़ी की दीवार को चिकनाने लगी।
बिलौटी कोलियरी के बाज़ार जाकर छूही मिट्टी ले आर्इ।
छूही मिट्टी से उसने झोपड़ी की दीवारों को लीप दिया।
पास के गांव से काली-मिट्टी ले आर्इ बिलौटी और उससे झोपड़ी के फर्ष को लीप दिया। बार्डर के तौर पर छूही मिट्टी की सफेदी कर दी गर्इ।
अब उनकी झोपड़ी सज गर्इ थी।
झोपड़ी के अंदर दो कमरे थे।
पहले कमरे के कोने में एक चूल्हा बना हुआ था।
इस कमरे को उन लोगों ने रसोर्इ घर बना लिया।
अंदर कमरे में गुदड़ी-कथरी बिछाकर सोने की व्यवस्था कर ली गर्इ।
दीवार पर एक रस्सी बांध दी गर्इ, जो कपड़ा टांगने के काम आर्इ।
झोपड़ी के बाहर एक कोने में पत्थर की एक सिल लाकर रखा गया और उसे तीन तरफ से बोरा-टाट से घेर कर स्नान-घर का रूप दे दिया गया।
अन्य निस्तार के लिए उन्हें नकटा-नाला जाना पड़ता।
वहां हमेषा मज़दूर औरत-मर्दों की भीड़ हुआ करती।
हंसी-मज़ाक का अच्छा माहौल बना रहता।
एक कपड़े में नहाना और फिर कपड़े बदलने की कला तो पगली और उसकी बिटिया बिलौटी को आती ही थी। यह एक ‘एक्सरसार्इज़’ की तरह होता है। मां-बेटी दोनों इस कला में अभ्यस्त थीं। मर्दों का क्या, चौबीस घण्टे औरत की देह पर गिद्ध-दृष्टि गड़ाए रखना उनका धर्म होता है।
मज़दूर औरतें जानती थीं कि ‘इस देखा-दाखी से उनकी देह खियाती थोड़े ही है।’
बड़ा उन्मुक्त वातावरण था नकटे-नाले का।
बिलौटी को ये सब नहीं भाता था, खासकर नाले का काला पानी।
कोयला-खदान से बहकर आया नकटे नाले का पानी काला हो चुका है। उसे लगता कि इस काले पानी से नियमित उपयोग से कहीं उसका बदन काला न हो जाए।
इसीलिए षिव-मंदिर से बिलौटी पानी ले आती थी।
वह झोपड़ी के बाहर बने अपने स्नान-गृह में ही उस पानी से नहाया करती।




इस अफरा-तफरी में पगली मां बीमार पड़ गर्इ।
उसे जाड़ा देकर बुखार आया था।
बुखार था कि उतरने का नाम ही न लेता था। पगली मां की कमज़ोर देह बुखार से लड़ नहीं पा रही थी। हां, पहले वह जो गालियां बका करती थी, अब बुखार की हालत में वह गाली न बकती बल्कि समझदारी की बातें किया करती।
बिलौटी, अंदर कमरे में पगली मां के बिस्तर के पास एक पुराने तसले में लकड़ी जला दिया करती। उसकी आंच ताप कर पगली को कुछ राहत मिलती।
पता नहीं कहां से आसमान पर बादल आए और टिपिर-टुपुर बारिष की ऐसी झड़ी लगी कि लगा कि जाने कब मौसम की मनहूसियत दूर होगी।
मां की बीमारी के कारण बिलौटी काम पर जा नहीं पा रही थी।
तीसरे दिन भी जब बुखार कम न हुआ तो बिलौटी ने सोचा कि अब ठीकेदार भूनेसर यादव से मदद लेना चाहिए।
भागी-भागी वह भूनेसर यादव के पास गर्इ।
भूनेसर ने अपने मुंषी-मेट को भेज आजाद-नगर के बाहर डेरा जमाए बंगाली-डॅाक्टर को बुलवा लिया।
बंगाली-डॉक्टर ने पगली मों का मुआयना किया और फिर उसे कर्इ इंजेक्षन लगाए।
वह अपनी डिस्पेंसरी में ही दवाएं भी रखा करता था।
उसने बिलौटी से कहा कि वह उसके साथ डिस्पेंसरी चली चले।
बिलौटी बंगाली-डॉक्टर से दवाएं लेती आर्इ।
इलाज का सारा खर्च भूनेसर यादव ने उठाया था।
पगली मां की हालत में कुछ सुधार आया, तो बिलौटी ने सोचा कि अब ठीकेदार का ज्यादा अहसान लेना ठीक नहीं।
वह काम पर गर्इं।
पगली मां की जगह उसके साथ एक नर्इ मज़दूर भेजी गर्इ।
वह बिलसपुरहिन थी।
लम्बी-छरहरी अधेड़ स्त्री।
बहुत मज़ाकिया थी बिलसपुरहिन। बात-बेबात खूब हंसा करती। उसके दांत बाहर को निकले हुए थे।
बिलसपुरहिन ने विष्वास न किया कि ठीकेदारी में काम करने के बावजूद बिलौटी अभी कुंवारी है। इस रास्ते में कुंवारी लड़की मिलना संसार का आठवां आष्चर्य होता है।
भूनेसर यादव की पुरानी मुंहलगी थी बिलसपुरहिन।
उसने बिलौटी को बताया भी था कि ‘‘ठीकेदार भूखा सेर है भूखा सेर, जिस दिन मौका पा जाएगा, खरबोट डालेगा, समझे!’’
ये भी कहती बिलसपुरहिन-’’अइसर्इ नहीं अपनी झोपड़ी में बसाया है ठीकेदार ने। हां, एक बात है कि जबरर्इ कुछ नहीं करेगा बो। उसके पास धीरज बहुत है। लहा-पटिया लेगा तुझे टूरी।’’
बिलौटी कहां ऐसी बातों से डरने वाली थी।
अब तक तो वह चार-दीवारी और एक छत का मूल्य सोच ही चुकी थी।
भूनेसर यादव की निगाह में प्रीत-प्यार की परछार्इं डोलती वह देख चुकी थी।
ल्ेकिन इतनी कम कीमत पर वह अपने कौमार्य का सौदा नहीं करना चाहती थी। उसे कुछ ज्यादा भी मिल सकता था यदि उसने चतुरार्इ से काम लिया तौ!
देह का दाम जब तय ही होना है तो वह खरीददार की मर्जी के मुताबिक न होकर माल बेचने वाले की इच्छानुसार होना चाहिए।
बिलसपुरहिन के संग-साथ में वह काफी चतुर हो गर्इ थी। पैंतरेबाजी की कला वह सीख रही थी।
हां, भूनेसर यादव का सामना होने पर वह लजाने का ज़ोरदार अभिनय करती।
वह जानती थी कि भूनेसर यादव के अंदर आग सुलग रही है।
पगली मां अब को ये नया आषियाना रास न आया।
दवा-दारू के बाद भी मां की तबीयत ठीक न हुर्इ।
ठीकेदार भूनेसर बिलौटी को उसकी रोजी के अतिरिक्त भी रूपिया दिया करता।
बिलौटी सब जानती-समझती, लेकिन उसके लिए वह उसका “ाुक्रिया अदा न करती।
बस, भूनेसर को अपनी बड़ी-बड़ी भूरी आंखें तिरछी करके निहार देती कि भूनेसर निहाल हो जाता।
बिलौटी की भूरी आंखों का षिकार हो चुका था भूनेसर यादव।
बिलौटी की हरक़तों से भूनेसर को ये तो पता चलता था कि वह उसमें रूचि लेती है, लेकिन उसके जीवन में आर्इ अन्य मज़दूरिनों की तरह नहीं है बिलौटी, ये भूनेसर ने अच्छी तरह तजवीज कर लिया था।
आज तक जाने कितनी स्त्रियां सरलता से उसकी आगोष में भागी-दौड़ी चली आर्इ है। बिलौटी किसी दूसरी मिट्टी की बनी लगती है।
भूनेसर गरमागर्म खाना खाने का “ाौकीन न था।
वह फूंक-फूंक कर क़दम रख रहा था।





एक दिन मौका पाकर भूनेसर बिलौटी का हाथ थाम बैठा।
वह दोपहर का समय था।
पगली मां की सेवा करके, खाना-दाना खाकर, बिलौटी बाजार जाने के लिए झोपड़ी से निकली थी। उसने सोचा था कि आज सनीचरी से मुलाकात करेगी और बन पड़ा तो अनपरा के सिनेमा हाल में जाकर पिक्चर भी देख लेगी। सुना है कि वहां ‘हम आपके हैं कौन’ लगी है। बड़ी अच्छी पिक्चर है। पैसे तो उसके पास थे ही। और कोर्इ समस्या सामने न थी। पगली मां खाना खाकर दवा खा चुकी है। अब वह सोएगी तो “ााम छह-सात बजे तक उसकी नींद खुलेगी। रात भर तो खांस-खांस कर परेषान हो गर्इ थी पगली मां।
हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहने थी बिलौटी, जिसपर उसका कुंवारा रूप दमक रहा था।
भूनेसर यादव के हाथ को उसने झटकना चाहा।
उसकी पकड़ बड़ी सख़्त थी।
अपनी कलार्इ उसे टूटती सी लगी।
बिलौटी ने तब सवालिया निगाहों से भूनेसर यादव को देखा, जैसे पूछ रही हो-’’का कर रहे हो आप?’’
भूनेसर यादव की नषे में धुत्त आंखों में उसके सवाल का सिर्फ एक ही जवाब दिखलार्इ दे रहा था-’’ये तो होना ही था।’’
बिलौटी ने आस-पास का जायज़ा लिया।
वहां कोर्इ न था, सिर्फ अमरूद का पेड़ उन्हें इस हालत में देख रहा था।
भूनेसर यादव अपने डेरे के पीछे पेषाब करने आया था, कि बिलौटी उसी समय जलवागर हुर्इ थी।
भूनेसर ने उसे अपने डेरे की तरफ चलने का इषारा किया।
बिलौटी ने अब अपनी कलार्इ उसके हाथ से छुड़ाने का प्रयास करना बंद कर दिया और सोचने लगी कि “ाायद भूनेसर यादव ने अब तक जो भी मदद की है, उसका दाम वसूलना चाहता है। लेकिन बस-स्टेंड के पिछवाड़े क्वार्टर वाला आदमी ऐसा न था। वह तो बड़ा मासूम सा खिलाड़ी था, जो बिलौटी के रूप का पुजारी हुआ करता था। वह अगर चाहता तो अब तक जोर-जबरदस्ती कर चुका होता। बिलौटी तब नादान थी, आसानी से उसकी हवस का षिकार हो चुकी होती। लेकिन वह एक कोमल स्वभाव का इंसान था और बिलौटी से इस तरह व्यवहार करता जैसे वह कोर्इ कांच की गुड़िया हो, जो ज़रा सी असावधानी से टूट-फूटकर चकनाचूर हो जाएगी।
बिलौटी का हाथ भूनेसर यादव छोड़ना नहीं चाहता था।
उसका हाथ थामे-थामे भूनेसर उसे अपने डेरे के अंदर ले गया।
अंदर कोठरी में पलंग बिछी थी।
भूनेसर ने बड़े एहतराम के साथ उसे पलंग पर बिठाया और स्वयं उसके सामने खड़ा हो गया। जैसे वह कोर्इ देवी हो और भूनेसर अदना सा भक्त।
बिलौटी तड़प उठी।
अपने सौंदर्य की पूजा करवाने का उसका कोर्इ इरादा न था।
भूनेसर यादव उसका मालिक था। वह एक साधारण नौकर ही तो थी। उसकी क्या कोर्इ सामाजिक हैसियत थी, जो भूनेसर यादव के सामने ठाट से विराज सके।
वह गड़बड़ा गर्इ, लेकिन जल्द ही उसे अपने पास उपलब्ध दौलत की ताकत का आभाष हुआ। भूनेसर यादव ठीकेदार एक मामूली लड़की के पैर चूमने को बेताब है।
वह उसके सामने हाथ बांधे खड़ा उसकी निगाहे-करम का तलबगार है।
अनुनय-विनय कर रहा है।
बिलौटी का अभिमान मोम सा गलना चाहता था।
वह असमंजस में थी।
पगली मां के यौन-षोषण की दास्तान और पगली मां का असहाय जीवन उसकी आंखों के सामने सिनेमा की रील की तरह गुज़र रहा था। एक बार अपना सर्वस्व न्योछावर करने के बाद औरत के पास एक मर्द को देने के लिए फिर कुछ नया नहीं बचता। वह बासी हो जाती है, सेकण्ड-हैण्ड सामान की तरह।
बिलौटी को तय करना था अपना मूल्य, उसे जाननी थीं अपनी सीमाएं। उसे दिखलार्इ पड़ रही थी अपने असुरक्षित भविष्य की काली भयावह परछार्इयां।
बिलौटी जानती थी कि कोर्इ पत्थर की स्लेट नहीं कि उस पर कोर्इ कुछ भी लिख कर मिटाता रहे। हां, कोर्इ घाटे का सौदा भी बुरा नहीं होता, यदि उसमें मन की “ाांति “ाामिल हो।
मन ही मन वह कर्इ मोर्चों से लड़ रही थी।
भूनेसर यादव के कांपते-गर्म हाथ के स्पर्ष से डिग सकता था उसका धैर्य।
भूनेसर यादव के अंतहीन अहसानों का बोझ, उसकी देह की क़ीमत से कहीं ज्यादा था। लेकिन वह फिर भी उसमें उत्साह का संचार नहीं हो रहा था।
बिलसपुरहिन रेजा की बात बिलौटी को याद हो आर्इ-’’भूखा सेर है भूनेसरवा भूखा सेर...!’’
उसे हंसी हो आर्इ।
कहां गया “ोर....उसके सामने तो दुम दबाए बैठा है एक पालतू कुत्ता, एक टुकड़ा रोटी की आस में जीभ लपलपाता, तलुए चाटता कुत्ता।
वह पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रही।
भूनेसर यादव से रहा न गया।
इतने नखरे, इतना इंतेजार की उसे आदत न थी।
झट उसने तुरूप का पत्ता फेंका-’’तुझे रानी बना कर रखूंगा।’’
क्या बिलौटी वाक़र्इ रानी बनना चाहती थी? नहीं, वह फिर भी न पिघली।
भूनेसर यादव और झुका-’’तू खुद बता, तुझे क्या चाहिए?’’
बिलौटी नहीं जानती थी कि उसे क्या चाहिए? इतनी लम्बी योजना उसने कभी बनार्इ होती तब न कुछ बोल पाती। और आज तक उसे अपनी चाहत प्रकट करने का अवसर ही कहां मिला था। अब जब भूनेसर यादव ने सवाल किया था तो उसे कुछ न कुछ कहना ही था, लेकिन उसके पास भाषा का औज़ार कहां था?
बिलौटी चाहती थी कि भूनेसर खुद तय करे कि उसके मन में क्या है?
कोठरी की छप्पर के नन्हे-नन्हे छेद से आती सूरज की किरणों से कमरे में रोषनी थी। चवन्नी-अठन्नी और रूपए के सिक्के की मानिंद सैकड़ों गोल-गोल प्रकाष-वृत्त कमरे में जगमगा रहे थे। ऐसा ही एक रोषनी का गोल सिक्का, बिलौटी की नाक मे डली फुल्ली पर पड़ रहा था। फुल्ली का नग जगमग-जगमग करके बिलौटी के सौंदर्य को अलौकिक आभा प्रदान कर रहा था। भूनेसर यादव उसके रूप के जादू में फंस चुका था।
बिलौटी उसके लिए एक चैलेंज की तरह थी।
इतनी औरतें आर्इ जीवन में लेकिन अपना इतना भाव तो किसी ने न लगाया था। जाने ये ससुरी बिलौटी क्या सोचे बैठी है?
बिलौटी पलंग से उठने को हुर्इ।
कहा-’’सनीचरी के संग अनपरा जाकर सिनेमा देखने का मन था।’’
भूनेसर यादव तड़प उठा-’’अरी बिलौटी, छोड़ र्इ सिनेमा-विनेमा, का रक्खा है उसमें। तू यहीं बैठी रह। तुझे रानी बना कर रखूंगा। तेरे आस-पास किसी फतिंगे की तरह मंडराता रहूंगा। यदि मैं ठीकेदार बना रहा तो तू भी ठीकेदारिन कहलाएगी।’’
बिलौटी ने इस प्रस्ताव पर भी जब उत्साह न दिखलाया तो भूनेसर ने और दाम बढ़ाया-’’तेरे सिवा अब और किसी औरत के पास न जाऊंगा। गांव में जैसे मेरी घरवाली है, वैसे तू इस कर्मक्षेत्र में मेरी पटरानी बन कर रहेगी।’’
बिलौटी की आंखें भर आर्इं-’’सच्ची!’’
भूनेसर दिल से बोला-’’हां रानी, हां...!’’
भूनेसर को थाह मिल गर्इ।
बिलौटी को राह मिल गर्इ।
बिलौटी के पास ऐसे-ऐसे जादू थे कि भूनेसर फिर उसी का होकर रह गया।
गांव की अपनी ब्याहता अहिरार्इन को भुला ही बैठा, लेकिन बिलौटी ने अपनी सौतन के साथ अन्याय न किया। वह हमेषा भूनेसर को याद दिलाती रहती कि उसकी एक और बीवी है।



पगली मां मर गर्इ।
भूनेसर का मोटर-साइकिल से एक्सीडेंट क्या हुआ, कि वह चलने-फिरने के लायक न रहा। बिलौटी ने उसका पूरा-पूरा साथ दिया।
वह स्वयं भूनेसर यादव के नाम से ठेका लेने लगी।
बिलौटी मर्दाना लटके-झटके सीख गर्इ।
भूनेसर उसका दास बना रहा।
बिलौटी की एक बेटी है। बिलौटी ने उसका नाम रखा है ‘सुरसत्ती’।
सुरसत्ती स्कूल जाती है।
भूनेसर सुरसत्ती को खूब प्यार करता है।
बिटिया सुरसत्ती बिलौटी को कभी-कभी प्यार से समझाया करती-’’मां, मुझे सुरसत्ती न कहा कर, मेरा असल नाम ‘सरस्वती’ है।’’
बिलौटी ‘सरस्वती’ बोल न पाती तो मर्दानी हंसी के साथ बोलती-’’स्साली सुरसत्ती, दिल लगा कर पढ़ाकर, महतारी की ग़लती न निकाला कर...!’’