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Wednesday, December 18, 2013

हम नही सुधरेंगे...


ऐतराज़ क्यों है आपको 
जो हम खुद को भेड़-बकरी मानते हैं 

तकलीफ क्यों है आपको 
जो हम बने हुए हैं हुकुम के गुलाम 

झल्लाते क्यों है आप 
जो हम बा-अदब खड़े मिलते हैं सिर झुकाए 

नाराज़ क्यों होते हैं आप 
जो हम अपने निजात के लिए 
गढ़ते रहते हैं नित नए आका 


                   नित नए नायक 
                    नित नए खुदा...



ये हमारी फितरत है 
ये हमारी आदत है 
बिना कोई आदेश सुने 
हम खाते नही, पीते नही 
सोते नही, जागते नही 
हँसते नही...रोते नही...
यहाँ तक कि सोचते नही...

सदियों से गुलाम है अपना तन-मन 
काहे हमे सुधारना चाहते हैं श्रीमन....

Saturday, December 14, 2013

सिर्फ कागज़ का नक्शा नही है देश....

उन्हें विरासत में मिली है सीख
कि देश एक नक्शा है कागज़ का
चार फोल्ड कर लो
तो रुमाल बन कर जेब में आ जाये
देश का सारा खजाना
उनके बटुवे में है
तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब
इसीलिए वे करते घोषणाएं
कि हमने तुम पर
उन लोगों के ज़रिये
खूब लुटाये पैसे
मुठ्ठियाँ भर-भर के

विडम्बना ये कि अविवेकी हम
पहचान नही पाए असली दाता को
उन्हें नाज़ है कि
त्याग और बलिदान का
सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित है

इसीलिए वे चाहते हैं
कि उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए
हम भी हँसते-हँसते बलिदान हो जाएँ
और उनके ऐशो-आराम के लिए
त्याग दें स्वप्न देखना...
त्याग दें प्रश्न करना...
त्याग दें उम्मीद रखना.....
क्योंकि उन्हें विरासत में मिली सीख
कि टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से
कागज़ पर अंकित
देश एक नक्शा मात्र है....

Sunday, November 24, 2013

डॉ.रोहिणी अग्रवाल : समीक्षा : पहचान

समीक्षा : पहचान 
डॉ. रोहिणी अग्रवाल 

'जनपथ' में प्रकाशित समीक्षा 




Thursday, November 14, 2013

कुछ सामयिक कवितायें : अनवर सुहैल


1-

बताया जा रहा हमें
समझाया जा रहा हमें
कि हम हैं कितने महत्वपूर्ण
लोकतंत्र के इस महा-पर्व में
कितनी महती भूमिका है हमारी
ईवीएम के पटल पर
हमारी एक ऊँगली के
ज़रा से दबाव से
बदल सकती है उनकी किस्मत
कि हमें ही लिखनी है
किस्मत उनकी
इसका मतलब
हम भगवान हो गए…
वे बड़ी उम्मीदें लेकर
आते हमारे दरवाज़े
उनके चेहरे पर
तैरती रहती है एक याचक-सी
क्षुद्र दीनता…
वो झिझकते हैं
सकुचाते हैं
गिड़गिडाते हैं
रिरियाते हैं
एकदम मासूम और मजबूर दिखने का
सफल अभिनय करते हैं
हम उनके फरेब को समझते हैं
और एक दिन उनकी झोली में
डाल आते हैं…
एक अदद वोट…
फिर उसके बाद वे कृतघ्न भक्त
अपने भाग्य-निर्माताओं को
अपने भगवानों को
भूल जाते हैं….

2-

उनकी न सुनो तो
पिनक जाते हैं वो
उनको न पढो तो
रहता है खतरा
अनपढ़-गंवार कहलाने का
नज़र-अंदाज़ करो
तो चिढ़ जाते हैं वो
बार-बार तोड़ते हैं नाते
बार-बार जोड़ते हैं रिश्ते
और उनकी इस अदा से
झुंझला गए जब लोग
तो एक दिन
वो छितरा कर
पड़ गए अलग-थलग
रहने को अभिशप्त
उनकी अपनी चिडचिड़ी दुनिया में…


3-

उन अधखुली
ख्वाबीदा आँखों ने
बेशुमार सपने बुने
सूखी भुरभरी रेत के
घरौंदे बनाए
चांदनी के रेशों से
परदे टाँगे
सूरज की सेंक से
पकाई रोटियाँ
आँखें खोल उसने
कभी देखना न चाहा
उसकी लोलुपता
उसकी ऐठन
उसकी भूख
शायद
वो चाहती नहीं थी
ख्वाब में मिलावट
उसे तसल्ली है
कि उसने ख्वाब तो पूरी
ईमानदारी से देखा
बेशक
वो ख्वाब में डूबने के दिन थे
उसे ख़ुशी है
कि उन ख़्वाबों के सहारे
काट लेगी वो
ज़िन्दगी के चार दिन…

4-

वो मुझे याद करता है
वो मेरी सलामती की
दिन-रात दुआएँ करता है
बिना कुछ पाने की लालसा पाले
वो सिर्फ सिर्फ देना ही जानता है
उसे खोने में सुकून मिलता है
और हद ये कि वो कोई फ़रिश्ता नही
बल्कि एक इंसान है
हसरतों, चाहतों, उम्मीदों से भरपूर…
उसे मालूम है मैंने
बसा ली है एक अलग दुनिया
उसके बगैर जीने की मैंने
सीख ली है कला…
वो मुझमें घुला-मिला है इतना
कि उसका उजला रंग और मेरा
धुंधला मटियाला स्वरूप एकरस है
मैं उसे भूलना चाहता हूँ
जबकि उसकी यादें मेरी ताकत हैं
ये एक कडवी हकीकत है
यदि वो न होता तो
मेरी आँखें तरस जातीं
खुशनुमा ख्वाब देखने के लिए
और ख्वाब के बिना कैसा जीवन…
इंसान और मशीन में यही तो फर्क है……

5-

जिनके पास पद-प्रतिष्ठा
धन-दौलत, रुआब-रुतबा
है कलम-कलाम का हुनर
अदब-आदाब उनके चूमे कदम
और उन्हें मिलती ढेरों शोहरत…
लिखना-पढ़ना कबीराई करना
फकीरी के लक्षण हुआ करते थे
शबो-रोज़ की उलझनों से निपटना
बेजुबानों की जुबान बनना
धन्यवाद-हीन जाने कितने ही ऐसे
जाने-अनजाने काम कर जाना
तभी कोई खुद को कहला सकता था
कि जिम्मेदारियों के बोझ से दबा
वह एक लेखक है हिंदी का
कि देश-काल की सीमाओं से परे
वह एक विश्‍व-नागरिक है
लिंग-नस्ल भेद वो मानता नहीं है
जात-पात-धर्म वो जानता नहीं ही
बिना किसी लालच के
नोन-तेल-कपडे का जुगाड़ करते-करते
असुविधाओं को झेलकर हंसते-हंसते
लिख रहा लगातार पन्ने-दर-पन्ने
प्रकाशक के पास अपने स्टार लेखक हैं
सम्पादक के पास पूर्व स्वीकृत रचनायें अटी पड़ी हैं
लिख-लिख के पन्ने सहेजे-सहेजे
वो लिखे जा रहा है…
लिखता चला जा रहां है…

Sunday, October 27, 2013

कार्तिक मास में काले बादल

आकाश में छाये काले बादल
किसान के साथ-साथ 
अब मुझे भी डराने लगे हैं...

ये काले बादलों का वक्त नही है 
ये तेज़ धुप और गुलाबी हवाओं का समय है 
कि खलिहान में आकर बालियों से धान अलग हो जाए 
कि धान के दाने घर में पारा-पारी पहुँचने लगें 
कि घर में समृद्धि के लक्षण दिखें 
कि दीपावली में लक्ष्मी का स्वागत हो

कार्तिक मास में काले बादल
किसान के लिए कितने मनहूस
संतोसवा विगत कई दिनों से
कर रहा है मेहनत
धान के स्वागत के लिये
झाड-झंखार कबाड़ के
उबड़-खाबड़ चिकना के
गोबर-माटी से लीप-पोत के
कर रहा तैयार खलिहान
कि अचानक फिर-फिर
झमा-झम बारिश आकर
बिगाड़ देती खलिहान...

इस धान कटाई, गहाई के चक्कर में
ठेकेदारी काम में
जा नही पाता संतोसवा
माथे पे धरे हाथ
ताकता रहता काले बादलों को

हे सूरज!
का तुम जेठ में ही तपते हो
कहाँ गया तुम्हारा तेजस्वी रूप
हमारी खुशहाली के लिए एक बार
बादलों को उड़ा दो न
कहीं दूर देश में
जहां अभी खेतों में पानी की ज़रूरत हो...

Friday, October 25, 2013

बाज़ार में स्त्री

छोड़ता नही मौका
उसे बेइज्ज़त करने का कोई

पहली डाले गए डोरे
उसे मान कर तितली
फिर फेंका गया जाल
उसे मान कर मछली
छींटा गया दाना
उसे मान कर चिड़िया
सदियों से विद्वानों ने
मनन कर बनाया था सूत्र
"स्त्री चरित्रं...पुरुषस्य भाग्यम..."
इसीलिए उसने खिसिया कर
सार्वजनिक रूप से
उछाला उसके चरित्र पर कीचड...

फिर भी आई न बस में
तो किया गया उससे
बलात्कार का घृणित प्रयास...
वह रहा सक्रिय
उसकी प्रखर मेधा
रही व्यस्त कि कैसे
पाया जाए उसे...
कि हर वस्तु का मोल होता है
कि वस्तु का कोई मन नही होता
कि पसंद-नापसंद के अधिकार
तो खरीददार की बपौती है
कि दुनिया एक बड़ा बाज़ार ही तो है
फिर वस्तु की इच्छा-अनिच्छा कैसी
हाँ..ग्राहक की च्वाइस महत्वपूर्ण होनी चाहिए
कि वह किसी वस्तु को ख़रीदे
या देख कर
अलट-पलट कर
हिकारत से छोड़ दे...
इससे भी उसका 
जी न भरा तो
चेहरे पर तेज़ाब डाल दिया...
क़ानून, संसद, मीडिया और
गैर सरकारी संगठन
इस बात कर करते रहे बहस
कि तेज़ाब खुले आम न बेचा जाए
कि तेज़ाब के उत्पादन और वितरण पर
रखी जाये नज़र
कि अपराधी को मिले कड़ी से कड़ी सज़ा
और स्त्री के साथ बड़ी बेरहमी से
जोड़े गए फिर-फिर
मर्यादा, शालीनता, लाज-शर्म के मसले...!

Saturday, October 19, 2013

किताबें

बड़े जतन से संजोई किताबें
हार्ड बाउंड किताबें
पेपरबैक किताबें
डिमाई और क्राउन साइज़ किताबे
मोटी किताबें, पतली किताबें
क्रम से रखी नामी पत्रिकाओं के अंक
घर में उपेक्षित हो रही हैं अब...
इन किताबों को कोई पलटना नही चाहता
खोजता हूँ कसबे में पुस्तकालय की संभावनाएं
समाज के कर्णधारों को बताता हूँ
स्वस्थ समाज के निर्माण में
पुस्तकालय की भूमिका के बारे में...
कि किताबें इंसान को अलग करती हैं हैवान से
कि मेरे पास रखी इन बेशुमार किताबों से
सज जाएगा पुस्तकालय
फिर इन किताबों से फैलेगा ज्ञान का आलोक
कि किताबों से अच्छा दोस्त नही होता कोई
इसे जान जाएगी नई पीढी
वे मुझे आशस्त करते हैं और भूल जाते हैं...

मौजूदा दौर में
कितनी गैर ज़रूरी हो गई किताबें
सस्तई के ज़माने में खरीदी मंहगी किताबें
बदन पर भले से हों फटी कमीज़
पैर को नसीब न हो पाते हों जूते
जुबान के स्वाद को मार कर
खरीदी जाती थीं तब नई किताबें
यहाँ-वहाँ से मारी जाती थीं किताबें
जुगाड़ की जाती थीं किताबें
और एक दिन भर जाता था घर किताबों से
खूब सारी किताबों का होना
सम्मान की बात हुआ करती थी तब...

बड़ी विडम्बना है जनाब
डिजिटल युग में सांस लेती पीढ़ी
किसी तरह से मन मारकर पढ़ती है
सिर्फ कोर्स में लगी किताबें....
मेरे पास रखी इन किताबों को बांचना नही चाहता कोई
दीमक, चूहों से बचाकर रख रहे हैं हम किताबें
खुदा जाने
हमारे बाद इन किताबों का क्या होगा......

Friday, October 4, 2013

टिफिन में कैद रूहें

हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न
इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती  थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के कोरे पन्नों पर....

और आप
ऐसे में  उम्मीद करते हैं कि
मैं लिक्खूं कवितायें
आशाओं भरी
ऊर्जा भरी...?

Sunday, September 29, 2013

हमारे ज़माने में माँ

मैं कैसे बताऊँ बिटिया 
हमारे ज़माने में माँ कैसी होती थी 

तब अब्बू किसी तानाशाह के ओहदे पर बैठते थे 
तब अब्बू के नाम से कांपते थे बच्चे 
और माएं बारहा अब्बू की मार-डांट से हमें बचाती थीं 
हमारी छोटी-मोटी गलतियां अब्बू से छिपा लेती थीं 
हमारे बचपन की सबसे सुरक्षित दोस्त हुआ करती थीं माँ 

हमारी राजदार हुआ करती थीं वो 
इधर-उधर से बचाकर रखती थीं पैसे 
और गुपचुप देती थी पैसे सिनेमा, सर्कस के लिए 

अब्बू से हम सीधे कोई फरमाइश नही कर सकते थे 
माँ हुआ करती थीं मध्यस्थ हमारी 
जो हमारी ज़रूरतों के लिए दरख्वास्त लगाती थीं 

अपनी थाली में बची सब्जियां और रोटी लेकर 
जब वो खाने बैठती तो हम भरपेटे बच्चे 
एक निवाले की आस लिए टपक पड़ते 
इसी एक निवाले ने हमें सिखाया 
हर सब्जी के स्वाद का मज़ा...

तुम लोगों की तरह हम कभी कह नही सकते थे 
कि हमे भिन्डी नही पसंद है 
कि बैगन कोई खाने की चीज़ है 

हमारे ज़माने की माएं 
सबके सोने के बाद सोती थीं 
सबके उठने से पहले उठ जाती थीं 
और सबकी पसंद-नापसंद का रखती थीं ख्याल 
कि तब परिवार बहुत बड़े हुआ करते थे 
कि तब माएं किसी मशीन की तरह काम में जुटी रहती थीं 
कि तब माएं सिर्फ बच्चों की माएं हुआ करती थीं..........

मैं कैसे समझाऊं बिटिया 
हमारे ज़माने में माएं कैसी होती थीं....

Saturday, September 28, 2013

अधूरी लड़ाइयों की दास्ताँ

एक धमाका 
फिर कई धमाके 
भय और भगदड़....
इंसानी जिस्मों के बिखरे चीथड़े 
टी वी चैनलों के ओ बी वेन 
संवाददाता, कैमरे, लाइव अपडेट्स 
मंत्रियों के बयान 
कायराना हरकत की निंदा 
मृतकों और घायलों के लिए अनुदान की घोषणाएं 
इस बीच किसी आतंकवादी संगठन द्वारा 
धमाके में लिप्त होने की स्वीकारोक्ति
पाक के नापाक साजिशों का ब्यौरा
सी सी टी वी कैमरे की जांच
मीडिया में हल्ला, हंगामा, बहसें
गृहमंत्री, प्रधानमन्त्री से स्तीफे की मांग
दो-तीन दिन तक यही सब कुछ
फिर अचानक किसी नाबालिग से बलात्कार
किसी रसूखदार की गिरफ्तारी के लिए
सड़कों पर धरना प्रदर्शन
मोमबत्ती मार्च....
फिर कोइ नया शगूफा
फिर कोई नया विवाद
कितनी जल्दी भूल जाते हैं हम
अपनी लड़ाइयों को
कितनी जल्दी बदल लेते हैं हम मोर्चे....
अधूरी लड़ाइयों का दौर है ये
अधूरे ख़्वाबों के जंगल में
भटकने को मजबूर हैं सिपाही....

Wednesday, September 25, 2013

खौफ के पल

उड़ रही है  धूल चारों ओर
छा रहा धुंधलका मटमैली शाम का
छोटे-छोटे कीड़े घुसना चाहते आँखों में
ओंठ प्यास से पपडिया गए हैं
चेहरे  की चमड़ी खिंची जा रही है
छींक अब आई की तब
कलेजा हलक को आ रहा है
दिल है कि बेतरतीब धड़क रहा है
साँसे हफ़नी में बदल गई हैं
बेबस, लाचार, मजबूर, बेदम
और ऐसे हालात में
हांके जा रहे हम
किसी रेवड़ की तरह...

वे वर्दियों में  लैस हैं
उनके हाथों में बंदूकें हैं
उनकी आँखों में खून है
उनके चेहरे बेशिकन हैं
उनके खौफनाक इरादों से
        वाकिफ हैं सभी...
   
ये वर्दियां किसी की भी हो सकती हैं
ये भारी बूट किसी के भी हो सकते हैं
ये बंदूकें किसी की भी हो सकती हैं
ये खौफनाक चेहरे किसी के भी हो सकते हैं
हाँ...रेवड़ में हम ही मिलते हैं
आँखों में मौत का परछाईं लिए
दोनों हाथ उठाये
एक साथ हंकाले जाते हुए
       किसी रेवड़ की तरह...

Monday, September 23, 2013

लौट आओ...

ये क्या हो रहा है
 ये क्यों हो रहा है
 नकली चीज़ें बिक रही हैं
नकली लोग पूजे जा रहे हैं...
 नकली सवाल खड़े हो रहे हैं
 नकली जवाब तलाशे जा रहे हैं
 नकली समस्याएं जगह पा रही हैं
 नकली आन्दोलन हो रहे हैं
 अरे कोई तो आओ...
 आओ आगे बढ़कर
 मेरे यार को समझाओ
उसे आवाज़ देकर बुलाओ...
 वो मायूस है
 इस क्रूर समय में
वो गमज़दा है निर्मम संसार में...
 कोई नही आता भाई..
 तो मेरी आवाज़ ही सुन लो
लौट आओ
 यहाँ दुःख बाटने की परंपरा है..
यहाँ सांझा चूल्हे की सेंक है....
 तुम एक बार अपने फैसले पर दुबारा विचार करो...
 मेरे लिए...
 हम सबके लिए.....

Saturday, September 21, 2013

फिर क्यों ?


ऐसा नही है 
कि रहता है वहाँ घुप्प अन्धेरा 
ऐसा नही है 
कि वहां सरसराते हैं सर्प 
ऐसा नही है 
कि वहाँ तेज़ धारदार कांटे ही कांटे हैं 
ऐसा नही है 
कि बजबजाते हैं कीड़े-मकोड़े 
ऐसा भी नही है 
कि मौत के खौफ का बसेरा है 

फिर क्यों
वहाँ जाने से डरते हैं हम
फिर क्यों
वहाँ की बातें भी हम नहीं करना चाहते
फिर क्यों
अपने लोगों को
बचाने की जुगत लागाते हैं हम
फिर क्यों
उस आतंक को घूँट-घूँट पीते हैं हम
फिर क्यों
फिर क्यों.....

Tuesday, September 10, 2013

एक बार फिर

एक बार फिर 
इकट्ठा हो रही वही ताकतें 

एक बार फिर 
सज रहे वैसे ही मंच 

एक बार फिर 
जुट रही भीड़
कुछ पा जाने की आस में
              भूखे-नंगों की 

एक बार फिर 
सुनाई दे रहीं,   
        वही ध्वंसात्मक  धुनें 

एक बार फिर 
गूँज रही फ़ौजी जूतों की थाप  

एक बार फिर 
थिरक रहे दंगाइयों, आतंकियों के पाँव 

एक बार फिर 
उठ रही लपटें
धुए से काला हो गया आकाश 

एक बार  फिर
गुम हुए जा रहे
शब्दकोष से अच्छे प्यारे शब्द 

एक बार फिर 
कवि निराश है, उदास है, हताश है...

Thursday, September 5, 2013

ओ तालिबान !

जिसने जाना नही इस्लाम 
वो है दरिंदा 
वो है तालिबान...

सदियों से खड़े थे चुपचाप 
बामियान में बुद्ध 
उसे क्यों ध्वंस किया तालिबान 

इस्लाम भी नही बदल पाया तुम्हे 
ओ तालिबान 
ले ली तुम्हारे विचारों ने 
सुष्मिता बेनर्जी की जान....

कैसा है तुम्हारी व्यवस्था 
ओ तालिबान!
जिसमे तनिक भी गुंजाइश नही 
आलोचना की 
तर्क की 
असहमति की 
विरोध की...

कैसी चाहते हो तुम दुनिया 
कि जिसमे बम और बंदूकें हों 
कि जिसमे गुस्सा और नफ़रत हो 
कि जिसमे जहालत और गुलामी हो 
कि जिसमे तुम रहो 
और रह पायें तुम्हे मानने वाले...

मुझे बताओ 
क्या यही सबक है इस्लाम का...?

Tuesday, September 3, 2013

आस्था की दीवार

जैसे टूटता  तटबंध 
और डूबने लगते बसेरे 
बन आती जान पर 
बह जाता, जतन  से धरा सब कुछ 
कुछ ऐसा ही होता है 
जब गिरती आस्था की दीवार 
जब टूटती विश्वास की डोर
ज़ख़्मी हो जाता दिल 
छितरा जाते जिस्म के पुर्जे 
ख़त्म हो जाती उम्मीदें 
हमारी आस्था के स्तम्भ 
ओ बेदर्द निष्ठुर छलिया ! 
कभी सोचा तुमने 
कि अब  स्वप्न देखने से भी 
डरने लगा  इंसान 
और स्वप्न ही  तो हैं 
इंसान के ज़िंदा रहने की अलामत....
स्वप्न बिना कैसा जीवन?

Friday, August 30, 2013

परिवर्तन

k ravindra
तुम मेरी बेटी नही 
बल्कि हो बेटा...
इसीलिये मैंने तुम्हे 
दूर रक्खा श्रृंगार मेज से 
दूर रक्खा रसोई से 
दूर रक्खा झाडू-पोंछे से 
दूर रक्खा डर-भय के भाव से 
दूर रक्खा बिना अपराध 
माफ़ी मांगने की आदतों से 
दूर रक्खा दुसरे की आँख से देखने की लत से....
और बार-बार
किसी के भी हुकुम सुन कर 
दौड़ पडने की आदत से भी 
तुम्हे दूर रक्खा...

बेशक तुम बेधड़क जी लोगी 
मर्दों के ज़ालिम संसार में
मुझे यकीन है...

Thursday, August 1, 2013

बेदर्द मौसम में

के रवीन्द्र की पेंटिंग

तुम्हें रोने की आज़ादी
तुम्हें मिल जाएंगे कंधे
तुम्हें घुट-घुट के जीने का
मुद्दत से तजुर्बा है
तुम्हें खामोश रहकर
बात करना अच्छा आता है
गमों का बोझ आ जाए तो
तुम गाते-गुनगुनाते हो
तुम्हारे गीत सुनकर वो
हिलाते सिर देते दाद...

इन्ही आदत के चलते ये
ज़माना बस तुम्हारा है
कि तुम जी लोगे इसी तरह
ऎसे बेदर्द मौसम में
ऎसे बेशर्म लोगों में
इसी तरह की मिट्टी से
बने लोगों की खासखास
ज़रूरत हुक्मरां को है
ज़रूरत अफसरों को है

हमारे जैसे ज़िद्दी-जट्ट
हुरमुठ और चरेरों को
भला कब तक सहे कोई
भला क्योंकर मुआफी दे....

Saturday, July 27, 2013

उसके गुनाह...


उसके कहने पर
हमने किये गुनाह
खुद फंस जाने का
जोखिम उठाते हुए

उसकी खुशी के लिये
हमने किये अत्याचार
बेज़ुबानों पर
निहत्थों पर
मासूमों पर..

उसकी नज़दीकी पाने के लिये
हमने की चुगलियां
ऎसे लोगों की
जो जेनुईन थे
जो प्रतिबद्ध थे
जो उसके निज़ाम के खिलाफ़ थे...

उसने हमारी प्रतिभा का
भरपूर किया दोहन
और हम खुशी-खुशी
बने रहे उसके औज़ार
बजते रहे झुनझुनों की तरह
लगातार....बार-बार...

एक दिन ऎसा भी आया
जब करके हमारा इस्तेमाल
वो चला गया
एक नये द्वीप में
एक नई चारागाह की तलाश में
छोड़ कर हमें
दुश्मनों के बीच
जो कभी हमारे अपने थे...

और हम अपनों की निगाह में
बन गये बौने
टूटे खिलौने
हो गया हमारा वजूद औने-पौने....

Monday, July 22, 2013

pehchan


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राजकमल प्रकाशन से
प्रकाशित
मेरे उपन्यास
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सादर
अनवर सुहैल