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Saturday, December 31, 2011

शुभकामनाएं


खुश होता हूँ
घिर जाता हूँ
जब अपनों के बीच
पूरा होने लगते हैं
कई अधूरे सपने..
जन्म लेती कई कल्पनाएँ
दिखने लगती संभावनाएं
दोस्तों , आप सभी को
नव वर्ष की शुभकामनाएं ....

Thursday, December 8, 2011

praja ka gussa

वो आ रहे हैं
लश्कर फौज लेकर
वो आ रहे हैं
बख्तरबंद गाड़ियों की आड़ लेकर
वो आ रहे हैं
... लड़ाकू विमानों में छुपकर
वो आ रहे हैं
संबिधान और कानून का सहारा लेकर
इतनी तैयारिओं के बाद भी
अपनी भूखी नंगी बेबस प्रजा के गुस्से से
वो कितने भयभीत हैं ......

Monday, November 28, 2011

purwai blog par anwar suhail








09 अक्टूबर 1964 को छत्तीसगढ़ के जांजगीर में जन्में अनवर सुहैल जी के अब तक दो उपन्यास , तीन कथा संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कोल इण्डिया लिमिटेड की एक भूमिगत खदान में पेशे से वरिष्ठ खान प्रबंधक हैं। संकेत नामक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।


बकौल महेश - अनवर सुहैल जी से मेरा पहला परिचय ‘असुविधा’ पत्रिका के माध्यम से हुआ । उसके बाद से यत्र-तत्र मैं उनकी कविताएं पढ़ता ही रहा हूँ। उनकी कविताओं की सहज संप्रेषणीयता और नए जीवनानुभव मुझे आकर्षित करते रहे हैं। अब तक उनके तीन कविता संग्रह आ चुके हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में बदलते समय और समाज की हर छोटी-बड़ी दास्तान और जीवन के विविध पहलुओं को दर्ज किया है पर मुझे उनकी कविताओं का सबसे प्रिय स्वर वह लगा जिसमें वे खादान जीवन से अनुस्यूत अपने अनुभवों को अपनी कविताओं की अंतर्वस्तु बनाते हैं।
अनवर जी की इन कविताओं को पढ़ना कोयला खादानों से जुड़े अंचलों और उसके जन-जीवन से दो-चार होना है। कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों का जीवन ,समाज , प्रकृति ,मानवीय संवेदनाएं और उनके संघर्ष उनकी कविताओं में बहुत गहराई और व्यापकता से व्यक्त हुए हैं। ये कविताएं पाठक को एक नए अनुभव लोक में ले जाती और गहरे तक संवेदित करती हैं। मानसिक रूप से हम अपने-आप को उन अंचलों और वहाँ के निवासियों से जुड़ा महसूस करते हैं। फिर यह जुड़ना किसी स्थान विशेष या लोगों तक सीमित नहीं रह जाता है बल्कि समाज की तलछट में रह रहे श्रमरत मनुष्यों और उनकी पीड़ाओं से जुड़ना हो जाता है। इन कविताओं की स्थानीयता में वैश्विकता की अपील निहित है। खदानों के जीवन परिस्थितियों को लेकर इस तरह की बहुत कम कविताएं हिंदी में पढ़ने को मिलती हैं। छोटी-छोटी और सामान्य सी प्रतीत होने वाली घटनाओं में बड़े आशयों का संधान करना इन कविताओं की विशेषता है। ये कविताएं पाठक से सीधा संवाद करती हैं , इस तरह कविता में अमूर्तीकरण का प्रतिकार करती हैं। कहीं-कहीं वे अपनी बात को कहने के लिए अधिक सपाट होने के खतरे भी उठाते हैं। नाटकीयता उनकी कविताओं की ताकत है।


अनवर सुहैल कविता में संप्रेषणीयता के आग्रही रहे हैं।इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह कविता के नाम पर सपाट और शुष्क गद्य के समर्थक हों। उनका मानना है कि गद्य लेखकों की बिरादरी आज की कविता को ‘कवियों के बीच का कूट-संदेश’ सिद्ध करने पर तुली हुई है। यानी ये ऐसी कविताएं हैं जिन्हें कवि ही लिखते हैं और कवि ही उनके पाठक होते हैं।.....कवि और आलोचकों का एक अन्य तबका ऐसा है जो कविता को गूढ़ ,अबूझ , अपाठ्य ,असहज और अगेय बनाने की वकालत करता है। वह प्रश्न खड़ा करते हैं कि किसी साधारण सी बात को कहने के लिए शब्दों की इस बाजीगरी को ही कविता क्यों कहा जाए? इसलिए अपनी कविताओं में वह इस सबसे बचते हैं।


लोकोन्मुखता उनकी कविता मूल स्वर है। लोकधर्मी कविता की उपेक्षा उनको हमेशा सालती रही है। इसी के चलते उन्होंने ‘संकेत ‘ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्रिका के माध्यम से उनका प्रयास है साहित्य केंद्रों से बाहर लिखी जा रही महत्वपूर्ण कविता को सामने लाया जाय जिसकी लगातार घोर उपेक्षा हुई है। कठिन और व्यस्तता भरी कार्य परिस्थितियों के बावजूद अनवर लिख भी रहे हैं ,पढ़ भी रहे हैं और साथ ही संपादन जैसा थका देने वाला कार्य भी कर रहे हैं। यह सब कुछ वही व्यक्ति कर सकता है जिसके भीतर समाज के प्रति गहरे सरोकार समाए हुए हों। बहुत कम लोग हैं जो इतनी गंभीरता से लगे रहते हैं और दूरस्थ जनपदीय क्षेत्रों में रचनारत लोगों के साथ अपने जीवंत संबंध बनाए रखते हैं।


पेशे से माइनिंग इंजीनियर अनवर सुहैल केवल कविता में ही नहीं बल्कि कथा के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व राजकमल प्रकाशन से उनका ‘पहचान’ नाम से एक उपन्यास आया है। जो काफी चर्चित रहा है। इस उपन्यास के केंद्र में भी समाज के तलछट में रहने वाले लोगों का जीवन है जो जीवन भर अपनी पहचान पाने के लिए छटपटाते रहते हैं। विशेषकर उन लोगों का जो धार्मिक अल्पसंख्यक होने के चलते अपनी पहचान को छुपाते भी हैं और छुपा भी नहीं पाते हैं। यह कसमकस इस उपन्यास में सिद्दत से व्यक्त हुई है।


अनवर जितने सहज-सरस साहित्यिक हैं उतने ही सहज-सरस इंसान भी। उनसे मिलने या बात करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके मृदुल व्यवहार का कायल हुए बिना नहीं रह सकता है।

जितना ज्यादा


जितना ज़्यादा बिक रहे
गैर-ज़रूरी सामान
जितना ज्यादा आदमी
खरीद रहा शेयर और बीमा
जितना ज्यादा लिप्त इंसान
भोग-विलास में
उतना ज्यादा फैला रहा मीडिया
प्रलय, महाविनाश, आतंकी हमले
और ‘ग्लोबल वार्मिक’ के डर!
ख़त्म होने से पहले दुनिया
इंसान चखना चाहता सारे स्वाद!
आदमी बड़ा हो या छोटा
अपने स्तर के अनुसार
कमा रहा अन्धाधुन्ध
पद, पैसा और पाप
कर रहा अपनों पर भी शक
जैसे-जैसे बढ़ती जा रही प्यास
जैसे-जैसे बढ़ती जा रही भूख
वैसे ही बढ़ता जा रहा डर


टीवी पर लगाए टकटकी
देखता किस तरह होते क़त्ल
देखता किस तरह लुटते संस्थान
देखता किस तरह बिकता ईमान


एक साथ उसके दिमाग में घुसते
वास्तुशास्त्र, तंत्र-मंत्र-जाप,
बाबा रामदेव का प्राणायाम
मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर के इलाज
कामवर्धक, स्तम्भक, बाजीकारक दवाएं
बॉडी-बिल्डर, लिंगवर्धक यंत्र
मोटापा दूर करने के सामान
बुरी नज़र से बचने के यत्न
गंजेपन से मुक्ति के जतन


इसी कड़ी में बिकते जाते
करोड़ों के सौंदर्य प्रसाधन
अनचाहे बाल से निजात


अनचाहे गर्भधारण का समाधान
सुडौल स्तन
स्लिम बदन के साथ
चिरयुवा बने रहने के सामान
बेच रहा मीडिया...
बड़ी विडम्बना है जनाब
आज का इंसान
होना नहीं चाहता बूढ़ा
होना नहीं चाहता बीमार
और किसी भी क़ीमत में मरना नहीं चाहता...।

Saturday, November 12, 2011

डूबता सूरज

एक :
जो हमारी निगाह में
पाप है , गुनाह है , अक्षम्य है
वही उनके निजाम को
बचाए रखने का
बनाए रखने का
सबसे बड़ा हथियार है...
यही तो इस युग की विडम्बना है...


दो :

डूबता सूरज
झांक रहा पहाड़ के पीछे से
लगता है मन नहीं उसका
उस पार जाने को
खलिहान में व्यस्त किसान के
चेहरे पर दमक रही सूर्य की आभा
इस साल फसल भी तो अच्छी हुई है.....

Thursday, November 10, 2011


चुप रहने के अपने मज़े हैं
चुप रहने के अपने फायेदे हैं
इसीलिए हमारे समय के कवि
चुप्पी साधे हैं ....
बोल कर खतरे कौन उठाए भला...

Wednesday, November 2, 2011

गज़ल





गज़ल : अनवर सुहैल

उनके संयम का सम्भाषण याद आया
अपने लोगों का भोलापन याद आया

सरकारी धन का बंटवारा होते देख
चोर लुटेरों का अनुशासन याद आया

उनके इतने चरचे, उनको देखा तो
बिन-बदली-बरखा का सावन याद आया

चारों ओर पडा है सूखा, लेकिन आज
स्वीमिंग पुल का है उद्घाटन याद आया

इस दफ़तर में जाने कितने बाबू थे
लेकिन अब है इक कम्प्यूटर याद आया

फ़ाकाकश सब मिलकर, इक दिन ज़ोर किए
कैसे डोला था सिंहासन, याद आया

दूजों की थाली पर घात लगाने वाले
भरपेटों का मरभुक्खापन याद आया

Thursday, October 6, 2011

हिना फिरदौस के रेखांकन


वह बोलती रेखाओं की भाषा
जीवन की इक नई परिभाषा
देती पिता को भरपूर दिलासा
"मुझमे है आशा ही आशा. "

Tuesday, September 20, 2011

डर



अक्सर सताता रहता
एक डर
नौकरीपेशा आदमी को
कि हो भी पाएगा वो रिटायर
या उठा पाएगा पेंशन का लाभ कुछ दिन
या टें बोल जाएगा
समय से पूर्व...

नौकरीपेशा आदमी हमेशा
अपने गेटअप की चिंता किया करता
अपने कपडों को लेकर रहता परेशान
ठीक करता रहता अपना हुलिया
अलस्सुब्ह शेविंग करता
डाई करता इस तरह कि
एक भी बाल नहीं छूटता सफ़ेद

नौकरीपेशा आदमी हमेशा
डरता असमय मरने से
कोशिश करता बचने की
हर सम्भावित खतरों से

नौकरीपेशा आदमी हमेशा
रहता सावधान
इतना कि शेविंग से पूर्व
बदलता ब्लेड प्रतिदिन
स्कूटर स्टार्ट करने से पहले
पहनता आई एस आई टेस्टेड हेलमेट
सडक पर चलता लेफ्ट साईड
जेब में हमेशा रहता वैलीड लाईसेंस
ट्रेफ़िक पुलिस की वर्दी देख सहम जाता
जैसे बच्चा डरता अध्यापक से

नौकरीपेशा आदमी हमेशा
लिखता रहता खर्च का हिसाब
आना आना, पाई पाई
चिढ़ता चंदा मांगने वालों से
जीवन बीमा की किश्तें भरता समय से
ड्राविंग लाईसेंस कराता नवीन
करता शक पेट्रोल टंकी के मीटर पर
और पेट्रोल की क्वालिटी पर

नौकरीपेशा आदमी पहना हो चाहे
टीप टाप कपडा़
उसके अंदर रहता है डर
कहीं खुल न जाए भेद
कि फटी हैं उसकी ज़ुराबें
छेद है उसकी बनियान में

नौकरी पेशा आदमी
चिंतित रहता है कि
रिटायरमेंट से पूर्व
निपटा पाएगा बच्चों की शादी
मकान का निर्माण

इसी ऊहापोह में
बीत जाती है उसकी उम्र
और आधे अधूरे स्वप्न उसके
हो नहीं पाते पूरे....

Thursday, September 1, 2011

अल्पसंख्यक या छोटा भाई




सब बोलें पर वो न बोले
सब चीखें पर वो न चीखे
सब कोसें पर वो न कोसे
क्योंकि वो मालिक नहीं है
क्योंकि वो ज्येष्ठ नहीं है
इसीलिए वो श्रेष्ठ नहीं है...

Saturday, August 27, 2011

kuchh log

कुछ लोगों ने घोषणा की
हम मालिक हैं
क़ानून हम बनाएंगे
कुछ लोगों ने घोषणा की
हम जनता हैं
...हम हर क़ानून का पालन करने के लिए अभिशप्त हैं
कुछ और लोगों ने ऐलान किया
हम आन्दोलनकारी हैं
कानून हमारे मन-माफिक बनना चाहिए
मालिकों और आंदोलनकारियो में छिड़ी जंग
फलता-फूलता रहा मिडिया
और पिसती रही जनता ...

Thursday, August 18, 2011

 
 
 
 
 
 
हम खुद तय करेंगे
हमें कैसी जेल चाहिए
हम खुद तय करेंगे
हमे कितनी कठोर सज़ा दी जाए
हम खुद तय करेंगे
...हमें कैसी मौत चाहिए
हम अपना संविधान खुद बना लेंगे
हम तुम्हारी संसद को नहीं मानते...
हम तुम्हारे कानूनों को नहीं मानते
ये सब इसलिए
क्योंकि हम अन्ना के समर्थक हैं ...

Saturday, August 6, 2011

majburi

मुझे  आसानी  से  कोई  भी
डांट  सकता  है
मुझे  आसानी  से  कोई  भी
मार  सकता  है
मुझे  आसानी  से  कोई  भी
...चुप  करा  सकता  है
क्योंकि  देखो  न ..
मेरे  नाख़ून उखाड़  लिए उसने  
मेरे  नुकीले   दांत कबाड़  लिए उसने
इस नामर्द  व्यवस्था  ने  मुझे
हिंजड़ा  बना  छोड़ा है ....
baherabandh khadaan ka muhada

Tuesday, August 2, 2011

sanket-8

संकेत का अंक ८ प्रकाशित हुआ है. इसमें वरिस्थ कवि ओम शंकर खरे 'असर' की ग़ज़लें  और कवितायेँ हैं . अंक पाने के लिए अपना पता एस एम् एस करें : ९९०७९७८१०८ पर ...
 

Thursday, June 23, 2011


 

 पढ़ रहा हूँ अखिलेश की किताब 'मकबूल' 
जैसे देख रहा हूँ हुसैन के घोड़े
जैसे देख रहा हूँ हुसैन की सफ़ेद दाढ़ी
जैसे देख रहा हूँ हुसैन की लम्बी उन्गलिओं में सजा ब्रश
जैसे देख रहा हूँ क़तर में जलावतन हुसैन
...
जैसे देख रहा देवी देवताओं के बीच हुसैन
जैसे देख रहा हूँ त्रिशूल से फाड़ी जाती
और मशाल में जलती पेंटिंग्स....

Thursday, June 9, 2011

धरना प्रदर्शन











राज-मैदान मेँ
राजा की मर्ज़ी बिना
व्यवस्था के ख़िलाफ़
झुनझुने बजने लगे
आ जुटे तमाशबीन

झुनझुनोँ का शोर
भाया नहीँ
राजा के चमचोँ को
आनन-फानन
राजा की फौज आ गई

झुनझुने तोड़े जाने लगे
बजाने वाले भागे
बजवाने वाले भागे
तमाशबीनोँ  घायल हुए

तमाशबीनोँ को
ताली बजाने के सिवा 
आता न था कुछ
तमाशबीन आदतन
पाला बदल
करने लगे
राजा का गुणगान...
समझे श्रीमान !

Friday, June 3, 2011

संकेत का केशव तिवारी अंक













बिना किसी लालच,
दबाव और भय के
एकदम चुपचाप
रिलीजियसली
करता अपने काम
और फिर भी मुझे
नहीँ मिलती पहचान
जबकि वो बिना कुछ किए-धरे ही
पाता अच्छे कामगार का ईनाम
क्योँकि उसमेँ है
आत्मप्रशंसा की कला
विज्ञापन के दौर मेँ
खराब माल बेच लेना
कोई उससे सीखे...

Wednesday, June 1, 2011

कैसे बने बात

अमृता   शेरगिल 









एक देखता राह
एक व्यस्त दिन रात
एक बाँधता गिरह
एक खोलता गाँठ
एक चाहता मान
एक खुद परेशान
दोनो जैसे नदी के दो पाट
कैसे बने बात...

Tuesday, May 24, 2011

कविता छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ के कविओं की कविताओं पर केन्द्रित " कविता छत्तीसगढ़" एक ऐसा प्रयास है, जिसमे छत्तीसगढ़ के जन-जीवन, लोक-रंग, मिटटी की  खुशबु, और नव चेतना के दर्शन अनायास मिल जाते हैं...
श्री सतीश जयसवाल जी हिंदी के वरिष्ठ कथाकार, कवि, यायावर और संस्मरण लेखक के रूप में प्रसिद्द हैं, उनकी कोशिशों का नतीजा है "कविता  छत्तीसगढ़"
पुस्तक के सफल सम्पादन का श्रेय सतीश जायसवाल को जाता है, पुस्तक की भूमिका लिखी है श्री विश्वरंजन ने . 
छत्तीसगढ़ के १०३ कविओं की कविताओं को समेटे ४४० पृष्ठ की किताब के 
                                            प्रकाशक हैं :
                                            वैभव प्रकाशन , अमीनपारा चौक , पुरानी बस्ती , रायपुर छ ग
                                             मूल्य ५००

Friday, May 20, 2011

छोटे बहर की ग़ज़ल

मनेन्द्रगढ़ : हसदो साईट












 हदों     का   सवाल   है
यही    तो    वबाल   है.

दिल्ली या लाहोर क्या 
सबका   एक  हाल  है 

भेडिये  का  जिस्म है 
आदमी  की  खाल  है 

अँधेरे  बहुत    मगर 
हाथ  में  मशाल   है 

: अनवर सुहैल 

Sunday, May 15, 2011

हंस मई २०१० में प्रकाशित कहानी "नीला हाथी"

हंस मई २०१० कहानी : अनवर सुहैल 
हंस मई २०१० में मेरी कहानी "नीला हाथी" प्रकाशित हुई है...

अंधविश्वाश में खिलाफ जिहाद करती कहानी से कुछ उद्धहरण प्रस्तुत हैं :
"ये मज़ार न होते तो क़व्वालिये बेकार हो गए होते, तो श्रद्धालु  इतनी  गैरजरूरी यात्राएं न करते और बस - रेल में भीड़ न होती. ये मज़ार न होते तो लड़का पैदा करने की इच्छाएं दम तोड़ जाती. मज़ार न होतो तो जादू-टोने जैसे छुपे दुश्मनों से आदमी कैसे लड़ता? ये मजार न होते तो खिदमतगारों, भिखारिओं, चोरों और बटमारों को अड्डा न मिलता?"

"मैंने कई मजारों की सैर की . सभी जगह मैंने पाया की वहाँ इस्लाम की रौशनी नदारत थी. था सिर्फ और सिर्फ अकीदतमंदों की भावनाओं से खेलकर पैसा कमाना . मैं तो सिर्फ मूर्तियाँ बनाया करता था, लेकिन इन जगहों पर मैंने देखा की एक तरह से मूर्तिपूजा ही तो हो रही है. तभी मेरे दिमाग में ये विचार आया की मैं भी पाखण्ड करके देखता हूँ."

आप भी 'नीला हाथी " कहानी पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं ....

Saturday, April 23, 2011

ग़ज़ल २

नजमा सालेह विशाखापत्तनम की पेंटिंग 
शहर में आज फिर क्या हो गया है 
हवा  में  कौन  नफरत  बो गया है 

तिरी  खुशबु   समेटे  बाजुओं   में 
मिऱा  कमरा  अकेला  सो गया है 

हज़ारों  शख्स  भागे  जा  रहा  हैं
 नहीं कुछ जानते क्या हो गया है 

न जाने कौन सी बस्ती उधर है 
न आना चाहता है,   जो गया है 

वो आया था घटा का भेस धरकर 
गया तो  आसमा  भी  धो गया है  
                                         ---अनवर सुहैल

Friday, April 22, 2011

ग़ज़ल

सबा शाहीन की पेंटिंग 

ग़ज़ल के कुछ अश'आर : अनवर सुहैल 

उनके संयम का संभाषण याद आया
अपने लोगों को भोलापन याद आया

सरकारी धन  का    बँटवारा होते देख 
चोर- लुटेरों का अनुशासन याद आया 

चारों ओर पडा है सूखा लेकिन आज 
स्वीमिंग पुल का है उदघाटन याद आया 

जिस दिन भूखे लोग इकट्ठे जोर किये 
कैसे डोला था  सिंहासन याद आया


Friday, April 1, 2011

nazm

 ये नज़्म मैंने बीस वर्ष की उम्र में लिखी थी और आज तक मुझे कंठस्थ है.
मैंने चाहा कि इसे अपने मित्रों के समक्ष रक्खूं और आप सब कि नजर है ये nazm
जो फैज़ से प्रभावित होकर मैंने कही थी...
फैज़ कि स्मृति को समर्पित नज़्म....
फैज़ अहमद फैज़



रात सुनसान व बोझिल सी है
फ़िर मुझे नींद नहीं आयेगी
थक चुके जिस्मो-रुह उनीन्दे
कल्पनाएं भी थकी जाती हैं
कोई चुपके से थपक दे आकर
कोई मां बनके सुला दे मुझको
या बता दे कहां है सहर मेरी

है  शबे - गम  रौशनी  मद्धम
दरो-दीवार पे चिपका चुप है
ज़ुबां भी और हवा भी चुप है
सोचता हूं किसी मकडी की तरह
कोई चुपचाप मकां बुनके कहे
आओ कि बांट लें बराबर हम
हम तुम्हारे व तुम हमारे गम
कि जहां ज़िंदगी की शाम कटे
कि जहां प्यार हो आज़ादी हो
कि जहां तीर भी कलम की तरह
गुनगुनाती हों अमन की नज़्में

आओ कि चीर दें सन्नाटे को
हो गई सुबह खोल लें खिडकी
अब नहीं ख्वाब देखने का सगुन
अब नहीं नींद की ज़ुरुरत है.....

Thursday, March 3, 2011

संकेत ७

संकेत कविता केन्द्रित लघुपत्रिका है. संकेत-७ विष्णु चन्द्र शर्मा की कविताओं पर केन्द्रित है. विष्णु चन्द्र शर्मा की शमशेरियत पर अच्छी पकड़ है और शमशेर जन्मशती पर विशेष कवितायेँ इस अंक की उपलब्धि हैं .....
पृष्ठ  ३२  सहयोग राशी १५ विशेष सहयोग 1०० 
संकेत ७ , संपादक अनवर सुहैल  
टाइप IV-३ ऑफिसर'स कालोनी. पो बिजुरी जी अनुपपुर एम् पी 484440

Sunday, February 13, 2011

कोयला खदान के पात्र

कविता: अनवर सुहैल

1.चमरू

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता हे चमरू
उतरती है चैन साईकिल की
इस बीच कई बार
फुलपैंट का पांयचा
फंस कर चैन में
    हो चुका चीथड़ा
चमरू की त्वचा की तरह
दूसरी पेंट भी तो
नहीं पास उसके!

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
मुंह अंधेरे छोड़ता घर-परिवार
रांधती है बीवी अलस्सुबह भात
अमरू की तीखी-खट्टी चटनी
या कभी खोंटनी साग
पोलीथीन में बांध कर खाना
भगाता साईकिल तेज़-तेज़ चमरू
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क तक पहुंचने में
नाकने पड़ते नाले तीन
इन नालों के कारण
बारिश में करना पड़ता ड्यूटी नागा उसे
चमरू नहीं जानता
कि राजधानी में मेट्रो का बिछाया जा रहा जाल
कि चार दिन के खेल के लिए
फूंके जाते हैं हज़ारों करोड़ रूपए
ऐसे समय में जब अनाज भंडारन के लिए
नहीं है अभी भी गोदाम देश में...

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
जब खदान के मुहाड़े
मुंशी महराज हड़काता है
-‘‘आज फिर लेट आया बे चमरू!’’
पतली दुबली काया में
सांस के उतार-चढ़ाव को सहेजे
दांत निकाल देता सफाई चमरू-
‘‘का करूं महराज.... अब से गल्ती न होई!
भले से शाम देर तक ले लेना काम
लउटईहा मत महराज!’’

चमरू खदान में
करता हर तरह के काम
जानता खदान का चप्पा-चप्पा
मधुमक्खी के छत्ते की तरह तो
सुरंगें हैं कोयला खदान की
या कहें अंतड़ियों के जाल सी हैं सुरंगें खदान की
अपने संग मजूरों की जुट्टी बना
दौड़ता-निपटाता सारे काम चमरू
इसीलिए महराज मुंशी उसे
    ज्यादा नहीं धमका पाता है.....

चमरू खदान का
सबसे पुराना ठीकेदारी-मजूर है
महराज मुंशी जानता है
यदि चमरू रूठा
तो लपक लेगा दूसरा ठीकेदार उसे
इसलिए प्यार से गरियाकर
लगा देता उसे ड्यूटी पर....

थोड़ी देर बाद चमरू
हेलमेट में केप-लैम्प बांधे
मजूरों की जुट्टी संग उतरता
कोयला खदान के अंतहीन गलियारों में
महराज मुंशी मजूरों को उतार
देता मोबाईल पर ठीकेदार को रिपोर्ट
और भाग जाता महराजिन के पास!

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू काम पर
इसी तरह आते हैं
सैकड़ों चमरू कोयला खदानों में
अपनी-अपनी साईकिलों पर होके सवार
इस तरह
कि न जी पाते हैं क़ायदे से
और न मर ही पाते हैं सलीके से!


2. मनोहरा

महुए की दारू
पिए मनोहरा
करता ड्यूटी नागा

पी-पी करके
छलनी हुआ कलेजा उसका
जान नहीं अब उसमें इतनी
कर पाए काम खदान का
कोयले की खदान
जहां आना-जाना भी
होता है एक श्रमसाध्य कार्य

महुए की दारू
पिए मनोहरा
करता खूब उधारी
काॅलरी कर्मचारी को
मिल भी जाता आसानी से उधार
क्योंकि पाते हैं वे अच्छी पगार

मनोहरा की पासबुक
गिरवी है महाजन के पास
इस उसके पैरों गिरकर
करता नैया पार
आदत से लाचार!

महुए की दारू
पिए मनोहरा
पीट रहा घरवाली को
मार रहा है बच्चों को
हांफ-हांफ कर बर्राता है
गिरता औंधे मुंह
और फिर इक दिन
ऐसा गिरा कि उठ न पाया
महुए की दारू का
मनोहरा बना शिकार
इस तरह से
बाल-बच्चों पर
खत्म हुआ उसका अत्याचार...


3. ललिया

परदेसी की घरवाली ललिया
परदेसी के रहते
जान नहीं पाई दुनियादारी
लेकिन विधवा होते ही
उसने सीख ली
चील-गिद्धों के बीच
    जीने की कला!

वैसे भी कहां जान पाती हैं
संसार को महिलाएं
जब तक रहती हैं
बेटी, पत्नी, मां
होने पर विधवा ही
उन्हें पता चलता है
कि कितना पराश्रित जीवन था उनका

विधवा ललिया को
जेठ, देवर और ससुर ने
समझाया भी
और फिर धमकाया बहुत
कि अकेली नार
अनपढ़ गंवार
कैसे कर पाएगी
कोयला खदान में नौकरी

ललिया नहीं थी कमज़ोर
जानती थी वह
यदि उसने मानी हार
बन जाएगी
दर-दर की भिखारन और लाचार
अनाथ बच्चों का मुंह देख
पति परदेसी की जगह
ललिया ने ली
खदान में अनुकम्पा-नियुक्ति!

लम्बा सा घूंघट लिए
ललिया ने सम्भाला
बड़े साहब का आॅफिस में काम
बाबुओं, चपरासियों, कामगारों के
इशारों, चुहलबाजियों से परेशान
एक दिन उसने घूंघट को दी तिलांजलि
और एक नई ललिया ने लिया जन्म

अब ललिया किसी से नहीं शर्माती
किसी से नहीं घबराती
एक दिन उसने की बड़े साहब से बात
और सीखने लगी वर्कशाप में
ग्राइंडिंग मशीन का काम
अब ललिया नहीं है चपरासन
ललिया है एक मेकेनिक
उसने खरीद ली है एक स्कूटी
और ज़माने को ठेंगे पर रख
स्वावलम्बी ललिया
काम निपटाकर
अपने बाल-बच्चों के पास
स्कूटी से उड़ जाती है फुर्र....

Sunday, January 16, 2011

धन्नासेठ प्रकाशक और हिन्दी कवि की विपन्नता का आख्यान: सौदा

धन्नासेठ प्रकाशक और हिन्दी कवि की विपन्नता का आख्यान: सौदा

                                                                                                अनवर सुहैल


बाबा नागार्जुन के सृजन के केन्द्र में था आम-आदमी, खेतिहर किसान, मजदूर, हस्तशिल्पी, विकल्पहीन मतदाता, स्त्रियां, हरिजन और हिन्दी का लेखक। बाबा ने बड़ी आसान भाषा में अपनी बात कही ताकि बात का सीधा अर्थ ही लिया जाए। जिस तरह बाबा नागार्जुन अपनी वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान और बोली-बानी में भदेस और सहज थे उसी तरह उनका समूचा लेखन प्रथम दृष्टया तो सरल-सहज-सम्प्रेषणीय नज़र आता है किन्तु उनकी अलंकारहीन भाषा का जादू देर तक पाठक-श्रोता के मन-मष्तिस्क में उमड़ता-घुमड़ता रहता है। नागार्जुन की यही विशेषता उन्हें क्लासिक कवियों की श्रेणी में खड़ा करती है।
मैं सोचता हूं कि आधुनिक हिन्दी का काव्य कितना अपूर्ण होता यदि निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय, केदार और नागार्जुन जैसे लेखकों का सृजन-सहयोग हिन्दी-कविता को न मिला होता। आज का कवि जाने क्यों अपनी परम्परा से दूरी बनाना चाहता है। नागार्जुन की कविता इतनी मारक है कि सीधे टारगेट पर प्रहार करती है और बिना किसी दम्भ के मुस्कुराकर अपनी जीत का ऐलान करती है। शब्द की मारक क्षमता का आंकलन बाबा की विशेषता थी। बाबा जानते थे कि सब कुछ खत्म हो जाएगा लेकिन कविता में फंसे हुए शब्द हमेशा लोगों के दिलों में जिन्दा रहेंगे और ताल ठोंक कर कहेंगे-
‘‘बाल न बांका कर सकी, शासन की बंदूक’’
शब्द की शक्ति यही है।
बक़ौल ग़ालिब-‘‘जो आंख से टपका तो फिर लहू क्या है?’’
नागार्जुन के शब्द बड़े पावरफुल हैं। उनमें ग़ज़ब की धार है, पैनापन है और ज़रूरत पड़ने पर खंज़र की तरह दुश्मन के सीने में उतरने की कला है।
अपने परिवेश की मामूली से मामूली डिटेल बाबा की नज़रों से चूकी नहीं है। बाबा सभी जगह देखते हैं और तरकश से तीर निकाल-निकाल कर प्रत्यंचा पर कसते हैं। इसी तारतम्य में लेखक और प्रकाशक के बीच समीकरण की भी उन्होनें दिलचस्प पड़ताल की है। 
हिन्दी के लेखक की दरिद्र आर्थिक-स्थिति और प्रकाशकों की सम्पन्नता को विषय बनाकर बाबा नागार्जुन की एक कविता है ‘सौदा’। ‘सौदा’ यानी ‘डील’। लेखक और प्रकाशक के अंतर्संबंधों की पड़ताल करती कविता ‘सौदा’ में बाबा ने बड़ी सहजता से लेखकों की निरीह-दरिद्रता और प्रकाशकों के काईयांपन को बयान किया है। इस कविता में यूं कहें कि धूर्त प्रकाशकों को बड़े प्यार से चांदी का जूता मारा है। कवि ने प्रकाशक को जो कि मूलतः विक्रेता होता है किन्तु कच्चे माल के रूप में उसे पाण्डुलिपियां तो खरीदनी ही पड़ती हैं। इस हिसाब से ‘सौदा’ में प्रकाशक एक ऐसे खरीददार के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसे प्रत्यक्षतः रचनाओं की ज़रूरत है लेकिन वह विक्रेता पर अहसान भी जताना चाहता है कि न चाहते हुए, घाटे की सम्भावना होते हुए भी वह कवि का तैयार माल खरीदने को मजबूर है।  ऐसा इसलिए है कि दुर्भाग्यवश प्रकाशक इस धंधे में फंसा हुआ है। अच्छे करम होते तो वह कोई और काम न कर लेता। काहे रद्दी छापने के काम में फंसा होता। प्रकाशक का दृष्टिकोण पता नहीं दूसरी भाषाओं में कैसा है, किन्तु हिन्दी में तो जो नागार्जुन का अनुभव है वैसा ही खट्टा-कसैला अनुभव कमोबेश तमाम लेखकों को होता है। लेखकों को प्रकाशक की चैखट में माथा रगड़ना ही पड़ता है। सिद्ध करना पड़ता है कि ‘‘हां जनाब, आपने अभी तक जो छापा, वाकई कूड़ा था, लेकिन आप मेरी कृति को तो छापिए, देखिएगा हाथों-हाथ बिक जाएंगी प्रतियां और धड़ाधड़ संस्करण पे संस्करण निकालने होंगे। ये किताब छपेगी तो जैसे प्रकाशन जगत में क्रांति आ जाएगी। आप एक बार हमारे प्रस्ताव पर विचार तो करें।’’
जवाब में प्रकाशक यही कहता रहेगा--
‘‘लेकिन जनाब यह मत भूलिए कि डालमिया नहीं हूं मैं,
अदना-सा बिजनेसमैन हूं
खुशनसीब होता तो और कुछ करता
छाप-छाप कर कूड़ा भूखों न मरता’’
ये हैं मिस्टर ओसवाल, हिन्दी की प्रगतिशील पुस्तकों के पब्लिशर मिस्टर ओसवाल। जिनकी नामी दुकान है ‘किताब कुंज’। मिस्टर ओसवाल का चरित्र-चित्रण जिस तरह नागार्जुन ने किया है उससे हिन्दी के अधिकांश लेखक परिचित हैं। देखिए मिस्टर ओसवाल नामक प्रकाशक जो कैप्सटन सिगरेट का पैकेट रखता है, जिसकी कलाई पर है ‘स्वर्णिम चेन दामी रिस्टवाच की’,
जिसने
‘‘अभी अभी ली है ‘हिन्दुस्तान फोर्टीन’
सो उसमें यदा-कदा साथ बिठाते हैं
पान खिलाते हैं, गोल्ड फ़्लेक पिलाते हैं
मंजुघोष प्यारे और क्या चाहिए बेटा तुमको???’’
है न प्रकाशकीय पात्र की अद्भुत सम्पन्नता। इसी के बरअक्स आप ज़रा लेखक की विपन्नता का दृश्य देखें-
‘‘बेटा जकड़ा है बान टीबी की गिरफ़्त में
पचास ठो रूपइया और दीजिएगा
बत्तीस ग्राम स्टप्टोमाईसिन कम नहीं होता है
जैसा मेरा वैसा आपका
लड़का ही तो ठहरा
एं हें हें हें कृपा कीजिएगा
अबकी बचा लीजिएगा...एं हें हें हें
पचास ठो रूपइया लौंडे के नाम पर!’’
लेखक प्रकाशक के आगे अपनी व्यथा को किस तरह गिड़गिड़ाकर व्यक्त कर रहा है-
‘‘जिएगा तो गुन गाएगा लौंडा हिं हिं हिं हिं....हुं हुं हुं हुं
रोग के रेत में लसका पड़ा है जीवन का जहाज़-’’
प्रगतिशील प्रकाशक मिस्टर ओसवाल के सामने लेखक नतमस्तक है। वह नहीं चाहता कि प्रकाशक उसकी पाण्डुलिपि वापस करे। 
‘‘जितना कह गया, उतना ही दूंगा
चार सौ से ज़्यादा धेला भी नहीं
हो गर मंजूर तो देता हूं चैक
वरना मैनस्कृप्ट वापस लीजिए
जाइए, गरीब पर रहम भी कीजिए’’
बस प्रकाशक का ये जवाब लेखक की कमर तोड़ देता है। अच्छे अच्छे लेखक की हवा निकल जाती है जब प्रकाशक सिरे से पाण्डुलिपि को नकार दे। किसी भी लेखक के लिए सबसे मुश्किल क्षण वह होता है जब किसी कारण से उसका लिखा ‘अस्वीकृत’ हो जाए या ‘वापस लौट आए’।
इस कविता में तीसरा पात्र ‘पाण्डुलिपि’ है। पाण्डुलिपि यानी लेखक का उत्पाद। इस उत्पाद के सहारे प्रकाशक युगों-युगों तक कमाता है लेकिन लेखक के रूप में पाण्डुलिपि को लेकर नागार्जुन के मन की व्यथा-कथा का एक बिम्ब-
‘‘बिदक न जाएं कहीं मिस्टर ओसवाल?
पाण्डुलिपि लेकर मैं क्या करूंगा?
दवाई का दाम कैसे मैं भरूंगा?
चार पैसे कम....चार पैसे ज्यादा....
सौदा पटा लो बेटा मंजुघोष!
ले लो चैक, बैंक की राह लो
उतराए खूब अब दुनिया की थाह लो
एग्रीमेंट पर किया साईन, कापीराइट बेच दी’’
मसीजीवी लेखक के लिए कालजयी सृजन बेहद सरल है लेकिन उस कालजयी सृजन के एवज़ धनार्जन बेहद कठिन है। क्या मिलता है लिखने के बदले? कितना कम मिलता है और वह भी अनिश्चित रहता है मिलना-जुलना। पता नहीं लेखन किसी को पसंद भी आएगा या नहीं? संशय बना रहता है।
लेखक अक्सर कहते हैं कि सृजन एक तरह से प्रसव पीड़ा वहन करने वाला श्रमसाध्य काम है। इस प्रसव पीड़ा से लेखक हमेशा जूझता है। कितना मुश्किल काम है किसी कृति को सृजित करना। चाहे वह एक कविता हो, कहानी हो, उपन्यास हो या अन्य कोई विधा। क्लासिक तेवर के कवि बाबा नागार्जुन तक जब प्रकाशक के समक्ष अपनी रचना और व्यथा के साथ खड़े होते हैं तो सृजन के दर्द को भूल कर प्रकाशक के साथ बाबा नागार्जुन ने कितनी बारीकी से सृजन की शिद्दत को व्यंग्य से बांधा है-
‘‘दस रोज़ सोचा, बीस रोज़ लिखा
महीने की मेहनत तीन सौ लाई!
क्या बुरा सौदा है?
ज्ीाते रहें हमारे श्रीमान् करूणानिधि ओसवाल
साहित्यकारों के दीनदयाल
नामी दुकान ‘किताब कुंज’ के कुंजीलाल
इनसे भाग कर जाउंगा कहां मैं
गुन ही गाउंगा, रहूंगा जहां मैं
वक़्त पर आते हैं काम
कवर पर छपने देते हैं नाम’’
‘सौदा’ कविता का यही मर्म है। प्रकाशक ऐन-केन प्रकारेण, लेखक की पाण्डुलिपि पर क़ब्ज़ा कर लेता है और फिर छापने में मुद्दत लगा देता है। गरजुहा लेखक यानी मसिजीवी लेखक तो लिखने के लिए अभिशप्त होता ही है, दिन-रात आंखें फोड़कर, कमर तोड़कर वह लिखेगा ही।
यही नागार्जुन की शैली है। बाबा अपनी बात इस साफ़गाई से कहते हैं कि सामने वाला चारों खाने चित हो जाए और नाराज़ भी न हो। वाकई, इतिहास गवाह है कि हिन्दी का लेखक ग़रीब से ग़रीब होता गया है और प्रकाशक हिन्दुस्तान के कई शहरों के अलावा विदेशों में भी अपनी शाखाएं खोल रहे हैं। जब भी उनके पास ज़रूरी लेखन लेकर जाओ तो पहला वाक्य यही रहेगा-
‘‘मार्केट डल है जेनरल बुक्स का
चारों ओर स्लंपिंग हैं...’’
और प्रकाशक की गर्जना का एक चित्र देखिए-
‘‘फुफ् फुफ् फुफकार उठे
प्रगतिशील पुस्तकों के पब्लिशर मिस्टर ओसवाल
नामी दुकान ‘किताब कुंज’ के कुंजीलाल
यहां तो ससुर मुश्किल है ऐसी कि....
और आप खाए जा रहे हैं माथा महाशय मंजुघोष!’’
ऐसी बात, इतनी सादगी से और इतनी ताक़त से बाबा नागार्जुन ही कह सकते हैं...सिर्फ और सिर्फ नागार्जुन.....